साफ गोई और राजनीतिक कामयाबी ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह के व्यक्तित्व की खासियत है। हाल ही में उन्होंने जिस सच को स्वीकारा है, वह पूरे देश को चौंका सकता है।
उनका कहना है कि बेघर लोगों को आवास मुहैया कराने की सरकार की योजना भूमिहीनों के लिए लागू नहीं होगी।गौरतलब है कि देश के 16 करोड़ दलितों में से तकरीबन 80 फीसदी भूमिहीन हैं।
पिछले 60 वर्षों में इन्हें रहने के लिए एक घर भी मयस्सर नहीं हो सका है। योजना आयोग के सदस्य और ग्रामीण मामलों के प्रवक्ता बी. एन. युगांधर भी इस बात को बड़ी कठोरता और मजबूती के साथ रख चुके हैं। युगांधर कह चुके हैं – ‘आपसे किसने कहा है कि इंदिरा आवास योजना सिर्फ बेघरों के लिए है? यह केवल उन लोगों के लिए है जिनके पास अपनी जमीन है।
मुझसे बात करने से पहले आप अपनी जानकारी दुरुस्त कर लें।’ यह पत्रकार उनके तेवर और तथ्य दोनों को देखकर थोड़ी देर के लिए स्तब्ध हो गई और सोच में डूब गई। मन में कई तरह के सवाल कौंधने लगे। मसलन, क्या बेघर भूमिहीन नहीं हो सकते? या फिर जब तक भारत सरकार उनके लिए आवास मुहैया नहीं कराती, तब तक वे किसी पेड़ को अपना आशियाना बनाएं।अक्सर ऐसा होता है कि आम आदमी को साफ तौर पर दिखने वाली चीजों पर नीति बनाने वालों की नजर ही नहीं जाती।
भारत निर्माण की वृहद योजना के तहत 2012 तक 60 लाख घर बनाने का प्रस्ताव है। लेकिन इस योजना का क्या फायदा, जब देश के सबसे जरूरतमंद आदमी को सिर ढंकने के लिए छत भी नसीब न हो पाए।इस देश में दलितों के लिए कई दशकों से आरक्षण का प्रावधान लागू है, बावजूद इसके ऊंची नौकरियों में उनकी संख्या नहीं बढ़ पाई है। आधी सदी के बाद अब सरकार को यह महसूस हो रहा है कि आवास योजनाओं में भूमिहीन दलितों का कोई हिस्सा नहीं है। उच्च शिक्षा संस्थानों में ओबीसी कोटा एक ठोस शुरुआत है।
इस तरह की अनेक पहलें की जा सकती हैं। पर इसका दुखद पहलू यह है कि इनमें से कोई भी पहल अपने मंजिल को हासिल नहीं कर पाती।दलितों की पैरोकार बनने की ललक में आंध्र प्रदेश सरकार ने इंदिराप्रभा योजना के तहत भूमिहीनों में 6 लाख एकड़ जमीन बांट दी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस अभियान की शुरुआत अगस्त 2005 में मेडक जिले में की। इसके तहत भूमिहीनों को 3 हजार एकड़ जमीन पट्टे पर दी गई। दलित बहुजन मोर्चा के बिनय कुमार कहते हैं कि लोगों को अब तक पता ही नहीं चल पाया है कि उनकी जमीन कौन सी है।
इसकी वजह यह है कि अब तक जमीन नापने वाले सर्वेक्षक (सर्वेयर) की नियुक्ति नहीं की गई है। जो पट्टे इनके स्थान से नजदीक हैं, उसे पाकर ही अब ये संतुष्ट हो गए हैं। नेशनल फेडरेशन ऑफ दलित लैंड राइट्स मुवमेंट के प्रमुख विंचेंट मनोहारन का कहना है कि जमीन का रिश्ता प्रतिष्ठा और आजीविका से जुड़ा है। इसके साथ ही यह समाज की छुआछूत जैसी बुराइयों को भी दूर कर सकता है।
बकौल मनोहारन, भूदान जैसे आंदोलन भी इसी लक्ष्य को पाने के लिए थे। लेकिन भूदान कार्यकर्ताओं से बात करने पर पता चलता है कि भूमिहीनों को जमीन बांटी ही नहीं गई। उनके मुताबिक राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी जैसी योजनाएं भूमिहीन दलितों की जिंदगी में खास बदलाव नहीं ला पातीं। बल्कि इनसे वे ताजिंदगी खेतिहर मजदूर बनकर रह जाते हैं।
मनोहारन इस सच को स्वीकारते हैं कि लगभग 80 प्रतिशत मजदूर दूसरों की जमीन पर रहते हैं। यहां तक कि दाह-संस्कार या दफनाने आदि के लिए भी उन्हें इजाजत लेनी पड़ती है।कुछ सक्रिय कार्यकर्ता दलित भूमि समिति बनाने की मांग कर रहे हैं ताकि दलितों के लिए जमीन की जरूरत जैसे मामलों पर कोई पहल की जा सके। फेडरेशन पूरी दुनिया में भूमिहीनों के अभियान पर नजर रखता है।
मसलन, लैटिन अमेरिका में सैन तियेरा, नैरोबी में जमीन के लिए दंगे और अब यूरोप में नोवोक्स या वॉयसलेस जिसमें बेरोजगार, बेघर और भूमिहीन सभी एकजुट हो रहे हैं। हाल ही में गैरसरकारी संगठन एकता परिषद ने भी एक अलग तरह की मुहिम छेड़ी है। इसके तहत एकता परिषद के कार्यकर्ताओं ने भूमि आयोग बनाने के दिल्ली तक मार्च किया। हालांकि फेडरेशन की मांग इससे अलग है।
मनोहारन कहते हैं – ‘हम केवल भूमिहीनाें की नहीं, बल्कि दलितों क ो भूमि का अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ रहे हैं। दशकों पहले गठित अनुसूचित जाति आयोग के बावजूद इस तरह के मामले हमारे सामने हैं।’ मनोहारन इस आयोग की प्रासंगिकता पर ही सवाल उठाते हैं। उनका मानना है कि जब हालात में कोई बदलाव नहीं आता, तो इस तरह की संस्था के होने का क्या मतलब है?
जड़ों की ओर लौटो!लालकृष्ण आडवाणी विभिन्न राज्यों में पार्टी को मजबूत करने की मुहिम चला रहे हैं। ऐसे में मुमकिन है कि साध्वी उमा भारती की पार्टी में वापसी हो जाए। दिल्ली के दिग्गज मदनलाल खुराना की वापसी भी हो ही चुकी है। भाजपा क ी कोशिश यह भी है कि झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के साथ उनके रिश्ते अच्छे हो जाएं। जब अर्जुन मुंडा क ो मुख्यमंत्री बनाए जाने के बाद मरांडी ने भाजपा से नाता तोड़ लिया था। झारखंड में मधु कोड़ा की सरकार भी मुश्किलों के दौर से गुजर रही है। यह संभावना है कि कोड़ा की सरकार गिर जाए।