लाल बहादुर शास्त्री के 19 महीने के कार्यकाल की विरासत को ताशकंद शांति समझौते तक समेट देना उनके साथ न्याय नहीं है। पलटकर देखें तो 19-19 महीने के दो दौर नजर आएंगे, जिन्होंने तीन पीढ़ियों में हमारे अतीत को गढ़ा है, हमारा वर्तमान तय किया है और एकदम अलहदा तरीकों से हमारे भविष्य को भी प्रभावित करते रहेंगे। इनमें से एक का अंदाजा लगाना आसान है – 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 के बीच आपातकाल के 19 महीने। अब बताइए कि 19 महीनों का दूसरा दौर कौन सा था? आपके लिए पहेली आसान बना देते हैं। हमारे प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल याद कीजिए। नेहरू का नहीं, इंदिरा का नहीं, वाजपेयी, मोदी, वीपी सिंह, गौड़ा, गुजराल, चरण सिंह में से किसी का भी नहीं।
अब आप पहेली बूझ ही गए होंगे तो मेरी सलाह है कि पिछल हफ्ते आई लाल बहादुर शास्त्री की जीवनी ‘द ग्रेट कंसिलिएटर: लाल बहादुर शास्त्री ऐंड द ट्रांसफॉर्मेशन ऑफ इंडिया’ पढ़िए, जिसे आईएएस अधिकारी रह चुके प्रख्यात विद्वान संजीव चोपड़ा ने लिखा है। 9 जून 1964 को जवाहरलाल नेहरू के निधन से 11 जनवरी 1966 को ताशकंद में अपने त्रासद निधन के बीच शास्त्री ने ठीक 19 महीने प्रधानमंत्री पद संभाला। और हम ऐसा क्यों कह रहे हैं कि भारत की राजनीति पर इन 19 महीनों ने एकदम अलग तरीके से मगर बहुत ज्यादा असर डाला?
जरा सोचिए कि केवल 19 महीने में भारत ने बड़ी जंग (सितंबर 1965) लड़ी, टैंकों की झड़प (अप्रैल से जुलाई 1965 तक कच्छ में) झेली, भीषण खाद्य संकट से जूझा, राजनीति के बेहद कठिन दौर से गुजरा और इतनी संस्थाएं खड़ी कर दीं, जो हमारे इतिहास में 19 महीने के किसी दौर में हीं हुईं।
शास्त्री के 19 महीनों के दौर का सबसे अहम बिंदु बेशक 22 दिन की जंग है, जो उन्होंने बेहद प्रतिकूल परिस्थितियों में लड़ी और सैन्य इतिहासकार कुछ भी कहें वास्तव में उन्होंने वह जंग हमारे लिए जीती। अगर हम खुद से बेहतर साजो सामान वाले और हर मामले में खुद से बहुत बेहतर दुश्मन को रोके रखते हैं तो इसे जीत ही कहा जाएगा। और वह भी तब जब जंग में एक खेमे पाकिस्तान के पास ही मकसद था। उसे कश्मीर जीतने का शानदार मौका दिखा मगर वह हार गया। यह आखिरी मौका था, जब कश्मीर लेने के लिए उनके पास हमसे ज्यादा सैन्य और राजनयिक ताकत थी। मगर शास्त्री के मजबूत इरादों ने उनके सपने को हमेशा के लिए दफन कर दिया।
शास्त्री की विरासत को ताशकंद शांति समझौते तक समेटना अन्याय है, जिस पर दस्तखत के बाद उनकी जान भी चली गई थी। शास्त्री का असली योगदान उन लड़ाइयों में है, जो उन्होंने लड़ी थीं। फील्ड मार्शल अयूब खान और उनके पिछलग्गू जुल्फिकार अली भुट्टो को 1962 में जंग हार चुकी और बदलाव से गुजर रही भारतीय सेना एकदम कमजोर लगी। श्रीनगर में 1963 में हजरतबल संकट ने उनका हौसला और भी बढ़ा दिया। मगर इस फेर में वह भारत की बागडोर नेहरू से शास्त्री तक जाने को राजनीतिक अस्थिरता समझने की भूल कर बैठे और फिर कच्छ के रण में हमले कर देखने लगे कि भारत कितना तैयार है।
बेहतरीन ढंग से लिखी किताब में चोपड़ा बताते हैं कि पाकिस्तानियों ने कच्छ में पैटन टैंक का इस्तेमाल कर अपने अमेरिकी आकाओं को भी परखा। समझौते के हिसाब से वे भारतीयों के खिलाफ टैंक नहीं उतार सकते थे मगर जब अमेरिका ने ज्यादा एतराज नहीं जताया तो वे समझ गए कि अब कश्मीर पर हमला करने का वक्त आ गया है।
नतीजा? महज दो महीने बाद ऑपरेशन जिब्राल्टर शुरू हुआ, जिसमें 10,000 से ज्यादा हथियारबंद घुसपैठिए कश्मीर भेजे गए। जिब्राल्टर नाम इसलिए दिया गया क्योंकि यूरोप में उसी जगह इस्लाम ने सबसे पहले कब्जा किया था। घुसपैठियों की हर टीम का नाम किसी मशहूर इस्लामी जंगजू के नाम पर था: तारिक, कासिम, खालिद, सलाहुद्दीन और गजनवी। जब ये टीमें घाटी में भारतीय सेना को उलझातीं तो ऑपरेशन ग्रैंड स्लैम के जरिये निर्णायक प्रहार किया जाता। इसमें टैंकों की फौज उतारकर जम्मू में अखनूर हथिया लेने या अयूब के शब्दों में भारत की गर्दन काट देने की योजना थी। बताते हैं कि उसने कहा था, ‘हिंदुओं का हौसला दो-तीन से ज्यादा चोट नहीं झेल सकता’। मगर वह शास्त्री के मजबूत इरादों को भांपने में चूक कर गया। सेना के जनरल खास तौर पर पाकिस्तानी हमेशा आम लोगों को कमतर मानते हैं। इसलिए शास्त्री के छोटे कद और मुलायम आवाज ने उनके भ्रम को और पक्का कर दिया। बस, उन्हें यह नहीं पता था कि 5 फुट 2 इंच के इस दुबले शरीर के भीतर गजब के हौसले और पक्के इरादे वाला एक भारतीय देशभक्त बैठा है।
शास्त्री ने 3 सितंबर को जब कैबिनेट की बैठक की तो घुसपैठियों को पीछे धकेलने में हम कामयाब हो रहे थे। अखनूर पर पाकिस्तानी टैंकों का खतरा देखकर उन्होंने अपना जवाब तय कर लिया। पाकिस्तानी फौज को तहस-नहस कर दो, उसकी थोड़ी सी जमीन पर कब्जा करो और जंग जीतने के बाद वापस कर दो। लेकिन संयुक्त राष्ट्र के युद्धविराम प्रस्ताव में दोनों पक्षों से 5 अगस्त की स्थिति पर लौटने के लिए कहा गया और पाकिस्तान को चंब से हटना पड़ा। हालांकि पाकिस्तान कश्मीर को हथियाने का मौका चूक गया मगर जमीन पर तस्वीर वैसी नहीं थी, जैसी हमें बताई जाती है। इसीलिए भारत को हाजी पीर दर्रा लौटाना पड़ा, जो शायद शास्त्री के असमय निधन की वजह बना।
1966 में शुरू हुई कानाफूसी से आज के व्हाट्सऐप तक शास्त्री की मृत्यु रहस्य ही बनी हुई है और उसके पीछे अनगिनत साजिशें बताई जाती रही हैं। किताब दो बातें साफ कर देती है। पहली, शास्त्री को दो बार दिल के दौरे पड़ चुके थे, एक 1959 में और दूसरा प्रधानमंत्री बनने के फौरन बाद 5 जून 1964 को। उस समय न स्टैटिन होते थे, न स्टेंट और न ही बायपास सर्जरी। तीसरा दौरा झेलना और भी मुश्किल होता। दूसरी, ताशकंद समझौते पर दस्तखत वाले दिन शास्त्री पहले खुश नजर आ रहे थे। लेकिन जब उन्हें देश में ‘सरेंडर ऑफ हाजी पीर’ जैसी प्रतिक्रियाओं का पता लगा और अंत में जब उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी से बात की, जो नाखुश लगीं तो उनका हौसला टूट गया। कुछ ही घंटे में उनका निधन हो गया।
शास्त्री की विरासत को युद्ध और शांति तक ही समेटना या ‘जय जवान’ कहकर रह जाना उनके साथ अन्याय और त्रासदी है। ‘जय किसान’ उनका ज्यादा बड़ा योगदान था। उन्होंने हरित क्रांति शुरू की, सी सुब्रह्मण्यम को खाद्य मंत्री बनाया, वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन की प्रतिभा पहचानी और भारत का पहला केंद्रीय कृषि विश्वविद्यालय बनाया। इससे भी अहम बात अमेरिकियों के साथ हाथ मिलाना था। शास्त्री की सियासत का जो पहलू हम भूल जाते हैं वह उनका नेहरूवादी मध्य-वाम लीक से अलग रहना है। चोपड़ा की तरह आप उन्हें मध्यपंथी कह सकते हैं। मैं उन्हें दक्षिणपंथी झुकाव वाला मध्यमार्गी कहूंगा।
देखिए कि नेहरू जब पुरुषोत्तम दास टंडन को कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनने देने पर अड़ गए तो शास्त्री कितने रुष्ट हुए, शास्त्री सर्वेंट्स ऑफ पीपल सोसाइटी में बढ़े और लाला लाजपत राय से काफी कुछ सीखा। यह भी देखिए कि पहले अविश्वास प्रस्ताव के दौरान उन्हें धुर दक्षिणपंथी और पश्चिम समर्थक स्वतंत्र पार्टी का समर्थन मिला था। उनका भाषण पढ़िए,जहां वह कम्युनिस्ट नेता हिरेन मुखर्जी के नेहरूवाद से भटकने के आरोप का कड़ा प्रतिरोध करते हैं। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट जिसे भटकाव कहते हैं वह लोकतंत्र में बदलाव कहलाता है।
अमेरिका में कहा जाता है कि जनता ही आपकी विरासत होती है। शास्त्री के मामले में मैं कहूंगा कि महान जन नेता की उससे भी बेहतर विरासत वे संस्थाएं होती हैं, जिन्हें वह गढ़ जाता है। अगली बार आप पीएमओ, सीबीआई, सीवीसी, कृषि मूल्य आयोग और बीएसएफ जैसे शब्द सुनें तो शास्त्री को जरूर याद करिएगा। ये सब ही हैं, जिनकी वजह से शास्त्री के 19 महीने हमारे वर्तमान और भविष्य के लिए अहम बने।