सभी लोग भारत की आर्थिक विकास की यात्रा की खुशी मना रहे हैं। देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर अब 8 प्रतिशत पार कर गई है, जो कम नहीं मानी जा सकती। अधिकांश निवेशक इस धारणा के साथ निवेश कर रहे हैं कि आने वाले दशक में भारत पूरे दस वर्षों की अवधि में वास्तविक जीडीपी में 6.5-8.0 प्रतिशत की वृद्धि प्राप्त कर लेगा।आर्थिक वृद्धि को लेकर जताए जा रहे अनुमान एवं वित्तीय स्थिरता के दावों के दम पर भारत का मूल्यांकन गुणक देश के अब तक के इतिहास के सर्वोच्च स्तर पर पहुंच गया है। वृद्धि की यह रफ्तार रोजगार के पर्याप्त अवसर सृजित करने और भारत में आंतरिक ऋण से जुड़े हिसाब-किताब को सहज बनाने के लिए जरूरी है।
बाजार के लिए भी यह आवश्यक है क्योंकि यह रफ्तार 11-13 प्रतिशत नॉमिनल जीडीपी वृद्धि की तरफ इशारा करती है। नॉमिनल जीडीपी वृद्धि दर को कंपनियों की आय बढ़ने के एक ठोस संकेत के तौर पर देखा जाता रहा है।
भारत की आर्थिक विकास गाथा की जब चर्चा होती है तो एक मात्र कमजोर पक्ष निजी पूंजी व्यय या पूंजीगत व्यय के रूप में दिखती है। सरकार ने सार्वजनिक निवेश बढ़ाने के उपाय कर सराहनीय काम किया है परंतु निजी क्षेत्र से बड़े स्तर पर निवेश अब तक आता दिखाई नहीं नहीं हो रहा है। लोकप्रिय धारणा यह है कि निजी क्षेत्र से पूंजीगत व्यय में जब तक तेजी नहीं आएगी तब तक भारत की विकास गाथा अधिक समय तक लोगों की जुबान पर नहीं टिक सकती।
आइए, पहले कुछ आंकड़ों पर विचार करते हैं। जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार ने सत्ता संभाली थी तो सार्वजनिक निवेश लगभग 2.3 लाख करोड़ रुपये था। मोदी के पहले कार्यकाल में यह आंकड़ा मामूली बढ़कर 3.2 लाख करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गया। दूसरे कार्यकाल में यह आंकड़ा बढ़ता ही गया और लगभग 3.2 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर लगभग 11 लाख करोड़ रुपये (वित्त वर्ष 2025) पहुंच गया।
उदाहरण के लिए रेलवे में सार्वजनिक निवेश पर विचार किया जा सकता है। पिछले 10 वर्षों के दौरान इसका पूंजीगत व्यय 16 गुना बढ़कर 15,000 करोड़ रुपये से 2.5 लाख करोड़ रुपये हो गया है। सड़कों के मामले में भी यही रुझान देखा जा रहा है। सड़क खंड में पूंजी निवेश 9 गुना बढ़कर 3 लाख करोड़ रुपये के स्तर पर पहुंच गया है।
सकल नियत पूंजी निर्माण एक बार फिर 30 प्रतिशत का आंकड़ा पार कर गया है, जो कम होकर 27 प्रतिशत रह गया था। यह आंकड़ा 32-33 प्रतिशत तक पहुंचाने का लक्ष्य साधा जा रहा है। ये सभी उत्साह बढ़ाने वाले आंकड़े हैं और सरकार की आकांक्षा और क्रियान्वयन क्षमता में स्वागतयोग्य बदलाव को दर्शाते हैं। यह स्थिति जारी रहनी चाहिए और आशा की जाती है कि यह निरंतरता जारी रहेगी।
पूंजीगत व्यय के मामले में निजी क्षेत्र की भूमिका पर सभी की चिंता का कारण यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र से निवेश की एक सीमा है। हम इस बात की उम्मीद नहीं कर सकते कि सार्वजनिक निवेश उसी रफ्तार से बढ़ेगा जितनी रफ्तार से यह पिछले कुछ वर्षों के दौरान बढ़ा है। इसके पीछे कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि सरकार ने वित्त वर्ष 2026 तक राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.5 प्रतिशत से नीचे रखने और आगे चलकर इसे और कम करने का लक्ष्य तय कर रखा है। ऐसे में सार्वजनिक निवेश में सालाना 10-15 प्रतिशत वृद्धि होने की संभावना सीमित लग रही है।
इसके अलावा रकम खर्च होने से जुड़ा विषय भी है। मुझे नहीं लगता कि रेलवे में लगातार पूंजी व्यय क्रियान्वयन के स्तर पर भी उतना ही कारगर हुआ होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो जितना व्यय हो रहा है वह पूरी तरह इस्तेमाल में आ रहा है या नहीं यह भी देखना होगा। प्रभावी रूप से 2.5 लाख करोड़ रुपये खर्च करना भी सरल नहीं है।
राष्ट्रीय राजमार्गों की बात करें तो सालाना निर्माण बढ़कर 10,000-15,000 किलोमीटर रह गया है मगर पिछले पांच वर्षों से यह रफ्तार इसी दायरे में रही है। हम यहां से इसकी रफ्तार और अधिक बढ़ाने में स्वयं को सक्षम नहीं पा रहे हैं। यह भी पूंजी के शत-प्रतिशत इस्तेमाल की क्षमता से जुड़ा मामला है। उपरोक्त परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए निजी क्षेत्र को अपनी भूमिका निभानी पड़ेगी।
कुछ लोगों को निजी क्षेत्र के आगे आने को लेकर अंदेशा है मगर इस बात के पूरे संकेत हैं कि वे भी सार्वजनिक क्षेत्र के साथ मिलकर चलेंगे। पिछले छह महीनों के दौरान मुझे एक भी कंपनी ऐसी नहीं दिखी जहां क्षमता नहीं बढ़ाई गई हो। प्रत्येक कंपनी क्षमता विस्तार करना चाहती है और वह इसे वैश्विक औसत के करीब पहुंचना चाहती है। विस्तार को लेकर अपनी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने के लिए उनके पास पर्याप्त धन भी उपलब्ध है। उदाहरण के लिए टाटा ने सेमीकंडक्टर (13 अरब डॉलर से अधिक), जेएसडब्ल्यू ने इस्पात एवं वाहन और अदाणी और अंबानी ने अक्षय ऊर्जा में निवेश की घोषणाएं की हैं।
पूंजी बाजार भी बढ़-चढ़ कर साथ दे रहा है। बिजली, रक्षा और पूंजीगत वस्तु खंडों के शेयरों ने शानदार प्रदर्शन किया है। जब कोई कंपनी क्षमता विस्तार की बात करती है तब उसका शेयर तपाक से उछल जाता है। कुछ वर्षों तक ऐसा नहीं होता था जब क्षमता विस्तार को ठीक नहीं माना जाता था और शेयर को इसका खमियाजा भुगतना पड़ता था। पूंजी बाजार अब क्षमता विस्तार को प्रोत्साहन दे रहा है और इस मकसद के लिए रकम जुटाने के प्रयासों को भी बढ़ावा दे रहा है। पूंजीगत व्यय के इर्द-गिर्द चल रही चर्चा पर उद्यमी सकारात्मक प्रतिक्रिया दे रहे हैं।
बाजार में सकारात्मक माहौल से स्पष्ट रूप से परिसंपत्ति निर्माण को प्रोत्साहन मिल रहा है। सरकार उत्पादन-संबद्ध प्रोत्साहन योजना के माध्यम से विनिर्माण को बढ़ावा दे रही है। इसके अच्छे परिणाम भी सामने आए हैं। इसके साथ ही अधिक पूंजी की जरूरत वाले क्षेत्रों जैसे बिजली और धातु में भी दिलचस्पी काफी बढ़ी है। कुल मिलाकर तस्वीर साफ दिख रही है। आंकड़े तो अभी नहीं दिख रहे हैं मगर निजी क्षेत्र भारी भरकम निवेश की तैयारी करता दिख रहा है।
एक मात्र प्रश्न ऋण (बैंकों से उधार या बॉन्ड जारी कर या किसी अन्य माध्यम से रकम जुटाना) को लेकर है। इस मोर्चे पर थोड़ी बाधा दिख रही है और कुछ शीर्ष कर्जधारकों को छोड़कर कारोबार विस्तार के लिए ऋण लेना शेष सभी इकाइयों के लिए मुश्किल है। पूंजी (इक्विटी फाइनैंसिंग) सभी क्षेत्रों के लिए उपलब्ध है मगर ऋण के मामले में यह स्थिति नहीं है। बैंक और म्युचुअल फंड दोनों ही अब किसी तरह का जोखिम लेने से बच रहे हैं।
उन्हें इस बात का खतरा सता रहा है कि कहीं ऋण भुगतान नहीं होने का सिलसिला फिर न शुरू हो जाए। अगर किसी ऋण की अदायगी नहीं हो पाती है तो लगभग सभी लोग यह मान बैठते हैं कि चुकाने वाले की मंशा ठीक नहीं है। मगर कोई यह मानने को तैयार नहीं होता कि कारोबार के साथ जोखिम भी जुड़ा होता है।
अगर किसी की हिस्सेदारी में 50 प्रतिशत कम हो जाती है तो और फंड कंपनी को नुकसान होता है तो कोई इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता कि कहीं न कहीं कुछ गड़बड़ है। आश्चर्य की बात है कि ऋण या बॉन्ड के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता। इनमें थोड़ा सा भी नुकसान हो तो तलवारें खिंच जाती है।
बैंकों को 2010-2020 के दौरान तगड़ा नुकसान हुआ था। तब बैंकिंग प्रणाली में गैर-निष्पादित आस्तियां (एनपीए) दो अंक में चली गई थीं। शायद यह एक वजह हो सकती है। कॉर्पोरेट बॉन्ड पर म्युचुअल फंडों को हुआ नुकसान भी इसका कारण हो सकता है। ऋण पर होने वाले नुकसान पर शेयरधारकों की झिरकी खाने के बाद इन संस्थानों के पास जोखिम लेने की गुंजाइश काफी कम हो जाती है।
पहले जो हुआ सो हो गया। अब इन संस्थानों, बैंकों और म्युचुअल फंडों को जोखिम लेने की अपनी क्षमता बढ़ानी होगी। सभी कंपनियों की पहुंच पूंजी तक सुनिश्चित करनी होगी वह भी सस्ती दरों पर। इस समय विडंबना यह है कि पूंजी (हिस्सेदारी बेच कर जुटाई गई रकम) तो उपलब्ध है मगर कई परियोजनाओं एवं समूहों के लिए ऋण उपलब्ध नहीं हैं।
अगर हम निजी क्षेत्र से निवेश बढ़ाना चाहते हैं तो हमें यह परिस्थिति बदलनी होगी। बड़ी कंपनियां एवं समूह तो स्वयं अपने स्तर पर नकदी का इंतजाम कर परियोजनाएं आगे बढ़ा सकते हैं मगर अधिकांश कंपनियां ऐसा नहीं कर सकती हैं। कई परियोजनाओं के लिए पूंजी पर लागत कम करने के लिए ऋण की जरूरत है। विदेश से ऋण लेना भी कोई ठोस विकल्प नहीं है क्योंकि यह पर ब्याज कहीं अधिक हो गया है।
अगर हम निजी क्षेत्र से पूंजीगत व्यय बढ़ाना चाहते हैं तो हमें सभी क्षेत्रों के लिए ऋण की उपलब्धता सुनिश्चित करनी होगी। निवेशक, नियामक एवं कर्जदाताओं की टीम सभी को यह भी सुनिश्चित करना होगा कि केवल जोखिम की आशंका के कारण ऋण सुविधा बंद न की जाए। केवल मजबूत पूंजी बाजार से बात नहीं बनने वाली है।
बॉन्ड बाजार तक पहुंच सभी के लिए सहज एवं सुगम बनानी होगी। पिछले दशक में ऋण आवंटन में हुई गलतियों का असर निजी क्षेत्र के पूंजीगत व्यय पर पड़ने नहीं दिया जा सकता। बैंक निवेशक और म्युचुअल फंड यूनिटधारकों को साख जोखिम सहने की क्षमता विकसित करनी होगी। भविष्य की हमारी रणनीति इसी पर निर्भर करती है।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)