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महामारी पर दिखाई समझदारी अब बजट में दिखाने की बारी

Last Updated- December 12, 2022 | 9:32 AM IST

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जल्दी ही वह बजट पेश करेंगी जिसे अनिवार्य तौर पर महामारी बजट के रूप में याद किया जाएगा। कम ही केंद्रीय बजट इतने कठिन हालात में पेश किए गए होंगे और जिनकी इस कदर प्रतीक्षा रही होगी। सीतारमण पर असंभव को संभव कर दिखाने का दबाव होगा: किसानों, उपभोक्ताओं, आम परिवारों और कंपनियों को राहत देना, खर्च और ऋण पर नियंत्रण करना तथा भारी गिरावट के बाद वृद्धि बहाल करना।
अब तक सरकार ने महामारी को लेकर समझदारी भरी प्रतिक्रिया दी है। कुछ अन्य देशों के उलट उसने समझा है कि स्वास्थ्य को लेकर आपात स्थिति के बीच मांग बढ़ाने की कोशिश का विपरीत असर हो सकता है। इसका फायदा हुआ और अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे पटरी पर लौट रही है। स्वाभाविक है कि लॉकडाउन और महामारी दीर्घकालिक नुकसान छोड़ जाएंगे। प्रश्न यह है कि सरकार इसे कैसे ठीक करेगी। तथ्य यह भी है कि इस नुकसान की प्रकृति को समझने में वक्त लगेगा। कई क्षेत्र और हित समूह जोर देंगे कि उन्हें राहत या प्रोत्साहन में प्राथमिकता दी जाए। ऐसी मांगों पर ध्यान नहीं देना चाहिए।
यह सही है कि वित्त मंत्री ने कहा कि वह राजकोषीय घाटे को खुद को चिंतित नहीं करने देगी। उनका अर्थ शायद यह नहीं हो कि वह व्यय बढ़ाना चाहती हैं। व्यय बढ़ाना गलत होगा। व्यय बढ़ाकर जिस तरह मंदी से बाहर निकला जा सकता है वही तरीका महामारी में काम आए यह जरूरी नहीं। मंदी के दौर में भी भारत को इसकी कीमत दीर्घावधि में चुकानी पड़ी। सन 2008-09 के वित्तीय संकट से निपटने में जो चूक की गईं उनकी कीमत हमें अब तक चुकानी पड़ रही है। बैंकों की बैलेंस शीट इसका उदाहरण है।
व्यय बढ़ाने की चौतरफा उठती मांग के बीच उन्हें यह बात याद रखनी चाहिए। पिछली बार तत्कालीन वित्त मंत्री ने ऐसी मांग सुनने की गलती की थी। इस बार ऐसा नहीं होना चाहिए। सरकार को निवेशकों, नागरिकों और करदाताओं के साथ चर्चा का विश्वसनीय रास्ता अपनाना चाहिए। सबसे पहले तो पूरी तरह पारदर्शी निजीकरण की ओर लौटना चाहिए। थोड़े बहुत विनिवेश का वक्त गया। निजीकरण से उत्पादकता में भी सुधार होता है। यह फंड के साथ-साथ वृद्धि हासिल करने का भी अच्छा जरिया है। दूसरा, सरकार को सारी उधारी पारदर्शी रखनी चाहिए। अधिक पारदर्शिता से घाटे को लेकर समझ बेहतर रहेगी। तीसरा, सरकार को वैश्विक पूंजी की आवक को प्राथमिकता देनी चाहिए। अब तक सरकार प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आंकड़ों से संतुष्ट रही है, हालांकि वह बड़ी परियोजनाओं और कंपनियों में आने वाली एकमुश्त आवक रही है। जरूरत यह है कि देश में आने वाली दीर्घावधि की विदेशी पूंजी सरकार का वित्तीय बोझ कम करे। फिलहाल, देश की वित्तीय बचत पर सरकार का एकाधिकार है। ऐसे में निजी क्षेत्र के लिए कुछ खास करने को नहीं है। देश में अधिक विदेशी पूंजी आम परिवारों की बचत पर निर्भरता कम करेगी। विदेशी पूंजी के इस चैनल के लिए तरीके हैं। उनमें से एक तरीका है विभिन्न परियोजनाओं को ग्रीन रेटिंग देना ताकि नए ईएसजी केंद्रित फंड आ सकें। दूसरा तरीका है नगर निकायों और सरकारी उपक्रमों में वैश्विक डेट बाजार का लाभ उठाने की क्षमता विकसित करना। तीसरा तरीका है, नए निजी नियंत्रण वाले विकास वित्त संस्थान जिनमें सरकार की आंशिक हिस्सेदारी होती है और जो विभिन्न प्रमुख क्षेत्रों पर केंद्रित रहते हैं।
चौथा, सरकार को कल्याण व्यय पर नियंत्रण रखना चाहिए। दुनिया भर में महामारी के दौरान यह कठिन साबित हुआ है। खराब ढंग से लक्षित राहत को लोग व्यय नहीं करते उसकी बचत करते हैं। अमेरिका में ऐसा ही देखने को मिला। शहरी गरीबों पर केंद्रित नई योजनाएं घोषित की जा सकती हैं लेकिन उनके लिए प्रावधान करना होगा। यह मुश्किल है क्योंकि अर्थव्यवस्था अभी सामान्य नहीं हुई है। हमें नहीं पता कि महामारी के बाद सामान्य हालात कैसे होंगे।
पांचवां, पश्चिम के कृत्यों की अनदेखी करनी होगी। हाल ही में आरबीआई के एक पूर्व गवर्नर ने वित्त मंत्री को संबोधित एक आलेख में ऐसी सोच का जिक्र किया जिसका मानना है कि मुद्रास्फीति काल्पनिक है। मैं यह देखकर चकित हुआ, क्योंकि इससे संकेत मिलता है कि भारत में दुनिया की खराब बौद्धिक धाराओं से ज्ञान लेने की प्रवृत्ति अभी भी जारी है। आरबीआई के गवर्नर को यह जानना चाहिए कि यदि अमेरिका और जापान में उच्च व्यय, ऋण और घाटे के बावजूद मुद्रास्फीति की वापसी नहीं हुई है तो जरूरी नहीं कि भारत में भी ऐसा हो।
छठी बात, याद रहे कि संस्थान मायने रखते हैं। जब भारी आवक, उधारी और प्रोत्साहन की योजना बनानी हो तो इन फंड का ध्यान रखना होगा, इन्हें विनियमित करना होगा। यह अहम है। सरकारी व्यय के प्रबंधन और मुद्रास्फीति को लक्षित करने की बात करें तो आरबीआई की स्वतंत्रता एक बड़ी उपलब्धि है जिसे बरकरार रखना चाहिए। दीर्घावधि के वित्त के लिए अलग नियामकीय क्षमता विकसित करनी चाहिए।
आखिरी बात, निवेशकों के संरक्षण का वादा होना चाहिए। हमें समझना होगा कि अतीत से लागू विधानों पर हमारी निर्भरता और अंतरराष्ट्रीय पंचाटों में हमारा उलझना यह संकेत देता है कि भारत निवेश के लिए उपयुक्त देश नहीं है। इसका गलत असर होगा। लालची कर अधिकारियों की बात सुनकर नीति निर्माता कर राजस्व के चक्कर में बड़े निवेश को दूर कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि हम स्पष्ट प्रतिबद्धता जताएं कि अतीत से लागू विधान नहीं होंगे। हमें अंतरराष्ट्रीय पंचाटों के निर्णय भी स्वीकार करने की बात कहनी होगी। सरकार को निवेश संधियों की जांच करनी चाहिए ताकि निवेशकों के पास धीमी भारतीय कानून व्यवस्था का विकल्प हो।
वित्त मंत्री को इस अवसर का लाभ उठाते हुए देश में विकास संबंधी कार्यों के वित्त पोषण के लिए वैकल्पिक स्रोत तैयार करने चाहिए। उन्हें देश को निवेशकों के और अनुकूल बनाना चाहिए। यहां दो राह हैं और सरकार को सही रास्ता चुनना ही होगा।

First Published - January 19, 2021 | 11:19 PM IST

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