भारत का पुराना कुलीन वर्ग अपना दबदबा गंवा चुका है। आज भारत का कारवां उन लाखों भारतीयों की बदौलत आगे बढ़ रहा है जिन्हें हमारे गिनेचुने कुलीन संस्थानों द्वारा तैयार नहीं किया गया।
सर आइवन मेनेजेस (1959-2023) जिनका हाल ही में निधन हुआ है, वह एक शानदार व्यक्ति थे। बहुत संभव है कि मेरी उनसे कहीं मुलाकात हुई हो लेकिन मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता था। मैं उनके साथ स्कूल या कॉलेज तो बिल्कुल भी नहीं गया।
उनके तमाम गुणों, विशेषताओं और सफलताओं के बारे में उनके सहपाठी अर्थशास्त्री अरविंद सुब्रमण्यन द्वारा लिखे गए श्रद्धांजलि लेख से पता चला जो इस समाचार पत्र में गत गुरुवार को प्रकाशित हुआ था। मैं उन सभी बातों को सही मानता हूं। परंतु मैं श्रद्धांजलि के समापन वाक्य को पढ़कर पल भर के लिए उलझ गया जिसमें कहा गया था, ‘अरस्तू भी होते तो वे भी आइवन से ईर्ष्या करते।’
सवाल यह है कि अरस्तू आखिर सर आइवन से ईर्ष्या क्यों करते, जो दुनिया की एक बड़ी शराब कंपनी डियाजियो के वैश्विक प्रमुख के पद पर पहुंचे? मैंने बहुत सोचा और फिर रहस्य खुल गया। अरस्तू कभी दिल्ली के सेंट स्टीफंस कॉलेज में पढ़ाई जो नहीं कर सके थे। अगर उनके माता-पिता उन्हें इस कॉलेज में भेज पाते तो वह भी सन 1979 के अर्थशास्त्र ऑनर्स के स्नातकों के बीच जगह पाते जिन्होंने आगे चलकर भारत और दुनिया भर में राज किया।
आइवन मेनेजेस जिस बैच से आते थे, इंदिरा नूयी, सत्य नडेला और सुंदर पिचाई जैसे वैश्विक कारोबारी कंपनियों के दिग्गज भी उसी बैच से आते हैं। देश के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और एक अन्य वरिष्ठ न्यायाधीश संजय किशन कौल भी उसी बैच से आते हैं।
सबसे महंगे वकीलों में एक अभिषेक मनु सिंघवी भी शायद उसी बैच से हैं। विश्व बैंक के मुखिया अजय बंगा, अधोसंरचना के विशेषज्ञ विनायक चटर्जी और अनेक अफसरशाह भी उसी बैच से आते हैं जिनके अगर मैं नाम लिखने लगूं तो मुझ पर आरोप लग जाएगा कि मैं उस स्मृति लेख से चोरी कर रहा हूं।
यह कोई व्यंग्य लेख नहीं है। यह बस मेरा देखने का तरीका है कि भारत क्या था, वह कहां से आया है, कहां पहुंचा है और किस दिशा में बढ़ रहा है। 1979 का यह वर्ग जिस भारत से आता था वह आज के भारत से बहुत अलग था। अखिल भारतीय सेवाओं, भारतीय प्रबंध संस्थानों के सफल बैच, न्यायपालिका के शीर्ष रैंक और कॉर्पोरेट जगत में सफल लोगों की जनांकिकी का अध्ययन कीजिए। आप पाएंगे कि 10 वर्ष बाद यानी सन 1989 तक उस बैच का एक छोटा हिस्सा भी वह सफलता दोहरा नहीं सका। भारत इस प्रकार बदला है।
सन 2003 में ‘एचएमटी एडवांटेज’ शीर्षक वाले एक लेख में मैंने देश में नए किस्म के कुलीन वर्ग के उदय और उभार का जिक्र किया था जो हिंदी भाषी संस्थानों से आ रहे थे। उस लेख की प्रेरणा अंतरिक्षयात्री कल्पना चावला बनी थीं जो हरियाणा के करनाल से निकल कर नासा पहुंची थीं।
मैंने उस वक्त लिखा था कि हमारी राजनीति, अफसरशाही, सशस्त्र बल, कंपनियों, न्यायपालिका और यहां तक कि मीडिया तक में अब पुराने कुलीनों की कोई स्थापित जगह नहीं रह गई। अब यह बात मायने नहीं रखती कि आप आखिर किस जगह से आए हैं, आपके पिता जी ने क्या किया, आपके परिवार का संबंध किन क्लबों और नेटवर्क से है। इन बातों ने 20 वर्ष पहले ही अपनी प्रासंगिकता गंवा दी थी।
अब हमें पता है कि आइवन मेनेजेस के पिता एक विशिष्ट अफसरशाह और रेलवे बोर्ड के चेयरमैन रहे थे। ऐसे में श्रद्धांजलि लेख हमें याद दिलाता है कि वह एक अच्छे रसूख वाले परिवार से ताल्लुक रखते थे। मुकेश और अनिल अंबानी ने मुंबई की एक चाल के निकट गुजराती भाषी स्कूल से पढ़ाई की। धीरूभाई अंबानी करीब ही एक छोटा कारोबार करते थे। वह कुछ कर दिखाना चाहते थे। वह स्कूल इतना छोटा था कि आज शायद उसका अस्तित्व भी न हो।
आखिर भारत में ऐसा क्या आमूलचूल बदलाव आया कि अभी हाल तक के कुलीनों का नेटवर्क अपना दबदबा खो बैठा? वे गायब नहीं हुए हैं, होंगे भी नहीं। नए कुलीन भी उभरेंगे। बात केवल इतनी है कि नेटवर्क इतनी तेजी से बढ़ा और भारत की अर्थव्यवस्था और समाज में इतना विस्तार से पनपा कि अब किसी खास संस्थान से ऐसे लोगों के निकलने की पहचान करना मुश्किल है।
इस बदलाव का सिरा सन 1991 में हुए आर्थिक सुधारों के पहले चरण से जोड़ा जा सकता है। जब तक अर्थव्यवस्था का आकार छोटा था और वह धीमी गति से बढ़ रही थी तब तक चुनिंदा संस्थान ही ऐसी प्रतिभाएं तैयार करते थे जो कॉर्पोरेट बोर्ड रूम से अफसरशाही और न्यायपालिका तक नजर आती थीं। अब तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था को तमाम प्रतिभाशाली लोगों की जरूरत है।
सेंट स्टीफंस/दून/मेयो/सेंट कोलंबस/सेंट जेवियर्स/ला मार्टिनियर (ये नाम मैंने श्रद्धांजलि लेख से लिए हैं) आदि अभी भी महान संस्थान हैं, शायद वे देश के सर्वाधिक प्रतिष्ठित संस्थान भी हों लेकिन वे भारत की प्रतिभाओं की आवश्यकता की दृष्टि से अपर्याप्त हैं।
यही वजह है कि टाटा एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विसेज जैसे समकक्ष संस्थान को आज इन संस्थानों, पारिवारिक नेटवर्क और उम्मीदवारों के पिता के नाम की जांच से आगे बढ़ने की आवश्यकता है। इस बीच 24 घंटे कड़ी मेहनत करने को तत्पर निम्न मध्यवर्गीय और गरीब भारत ने यूपीएससी जैसी परीक्षाओं को और अधिक प्रतिस्पर्धी बना दिया है।
आईएएस अकादमियों द्वारा प्रकाशित टॉपर्स और रैंक धारकों की सूची पर नजर डालिए और देखिए क्या वहां इन पुराने संस्थानों का कोई नाम है। वहां प्रतिस्पर्धा करना बहुत कठिन है और यहां तक कि साक्षात्कार की प्रक्रिया में भी पृष्ठभूमि को तवज्जो नहीं दी जाती। सबसे बड़ा, साफ सुनाई और दिखाई देने वाला बदलाव यह रहा है कि कैसे लोगों, खासकर नियोक्ताओं ने इस बात को तरजीह देनी बंद कर दी है कि आप अंग्रेजी कैसे बोलते हैं।
यह परिवर्तन सबसे अधिक अंग्रेजीभाषी कुलीनों के आखिरी गढ़ में नजर आता है और वह है सैन्य अधिकारियों की मेस। पिछले तीन दशकों से अधिकांश नए अधिकारी ग्रामीण, छोटे कस्बों और गैर कुलीन वर्ग से आते हैं। उनमें बड़ी तादाद भूतपूर्व सैनिकों या जेसीओ के बच्चों की है।
यह बदलाव सीमापार भी नजर आ रहा है। पाकिस्तान के मौजूदा सेना प्रमुख पर उस समय कटाक्ष किए गए जब उन्होंने चीनी सेना के प्रमुख के साथ बातचीत में ‘प्लेजर’ और ‘मेजर’ जैसे शब्दों का उच्चारण कुछ इस प्रकार किया जैसा कि कोई गैर अंग्रेजीदां पंजाबी व्यक्ति कर सकता है। बहरहाल चीन के लोगों को इससे फर्क भी क्या पड़ा होगा?
लब्बोलुआब यह कि हम ऐसी दुनिया में रहते हैं जो सेंट स्टीफंस कॉलेज के अर्थशास्त्र विभाग के सन 1979 के बैच से अलग है। अतीत से मोह अच्छी बात है और हम पुराने लोगों को इसका हक है। मुझे उसी कॉलेज के एक और पुराने स्नातक का लिखा एक लेख याद आता है। अंग्रेजी भाषा के इस्तेमाल में माहिर उस लेखक ने अफसोस करते हुए लिखा कि दुनिया कितनी बदल गई है। उनके मुताबिक यह बदलाव बुरा है।
उस समय को बहुत गहराई से याद किया गया था जब हर कोई साधारण जींस पहनता था, सबके पिताओं के पास फिएट की प्रीमियर पदि्मनी कार होती थी और परिवार और अधिक का लालच नहीं करता था। कितना खूबसूरत था वह युग और आज के अति लालची, अतिमहत्त्वाकांक्षी दौर से कितना बेहतर था। वह ऐसा समय था जब एक सफल पीढ़ी (शायद कुछ हजार लोग) अपने बच्चों को भारत के ईटन, ऑक्सफर्ड और कैंब्रिज जैसे संस्थानों में भेजा करती थी।
भारत को उतनी ही प्रतिभाओं की जरूरत थी। देश उस समय 30,000 कारें बनाता था और जरूरत भी प्राय: उतनी ही कारों की होती थी। यह समय कितना अनैतिक, और बेशर्मी का है कि हम 40 लाख कारें बना रहे हैं फिर भी चाहने वाले प्रतीक्षा सूची में हैं। कारें उन चुनिंदा लोगों के लिए तो नहीं रख दी जातीं जो वास्तव में उनके योग्य हैं।
वह बीता दौर कितना भी यादगार क्यों न रहा हो लेकिन वे वापस नहीं आने वाला। आप कुछ पुराने फिल्मी नगमों में इसे महसूस कर सकते हैं। मुकेश का जाने कहां गए वो दिन या किशोर कुमार का कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, मोहम्मद रफी का याद न जाए बीते दिनों की अथवा एसडी बर्मन का राजा गए, ताज गए, बदला जहां सारा/रोज मगर बढ़ता जाए कारवां हमारा इसके उदाहरण हैं।
वह शानदार समय बीत चुका है और भारत का कारवां तेजी से आगे बढ़ रहा है, और ऐसा लग रहा है मानो लाखों प्रतिभाशाली भारतीयों द्वारा खींचा जा रहा है जिन्हें तैयार करने की क्षमता हमारे पुराने बेहतरीन संस्थानों में नहीं है। मुझे नहीं लगता कि अरस्तू को इससे कोई समस्या होती।