हाल में आयोजित 20 देशों के समूह (जी-20) की दो मंत्री-स्तरीय बैठकें संयुक्त बयान जारी हुए बिना ही समाप्त हो गईं। इस समूह की बैठकों में सदस्य देशों की तरफ से संयुक्त बयान जारी नहीं होना भारत के लिए बड़ी समस्या साबित हो सकती है।
इस समस्या का समाधान खोजने के लिए भारत को पूरी सक्रियता से अपेक्षित भूमिका निभानी होगी। केवल सहज अवस्था में बने रहने भर से काम नहीं चलेगा। भारत ने दुनिया में अपनी नेतृत्व क्षमता दिखाने के लिए जी-20 समूह देशों की अध्यक्षता हासिल करने में काफी मेहनत की है।
पिछले साल इंडोनेशिया जी-20 समूह की अध्यक्षता कर रहा था। उसके नेतृत्व में उम्मीद से बढ़कर परिणाम आए। भारतीय प्रतिनिधिमंडल की मदद से इंडोनेशिया यूक्रेन के संदर्भ में संयुक्त बयान में इस्तेमाल शब्दों के लिहाज से यूरोप, रूस और चीन को साथ लाने में सफल रहा। इसके बावजूद यह सहमति नहीं टिक पाई।
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि जी-20 समूह की पिछले साल हुई बैठक के बाद जारी संयुक्त बयान में उपयोग किए गए शब्द रूस और चीन को स्वीकार्य नहीं रह गए हैं। इस बीच यूरोपीय और अमेरिकी देश जी-20 समूह के प्रतिनिधियों द्वारा वित्तीय मसलों पर जारी बयान में भी यूक्रेन पर रूसी हमले को शामिल करना चाहते हैं।
जी-20 समूह के अंतर्गत वित्तीय मसलों पर होने वाली इस बैठक में भू-राजनीतिक स्थिति पर बहुत अधिक चर्चा नहीं होती है और केवल इनके आर्थिक परिणामों पर विचार किया जाता है।
भारत का आधिकारिक पक्ष है कि संयुक्त बयान जारी नहीं होना कोई समस्या नहीं है। भारत के अनुसार इस बैठक की अध्यक्षता करने वाले देश के नाते उसकी तरफ से जारी आधिकारिक वक्तव्य इसकी जगह ले सकता है। भारत अपनी भूमिका पश्चिम एवं पूरब और उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के देशों को जोड़ने वाली एक कड़ी के रूप में देख रहा है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सभी देशों को एक साथ लाने में भारत की विफलता चिंता पैदा करेगी।
जी-20 समूह की अध्यक्षता के जरिये भारत आंशिक रूप से स्वयं के हितों को साध सकता है मगर पूरी तरह ऐसा नहीं किया जा सकता। दुनिया में हाल के वर्षों में बहुपक्षवाद की अवधारणा को नुकसान पहुंचा है। इसे देखते हुए भारत जी-20 समूह को एक ऐसे मंच के रूप में देख रहा है जहां साझा विषयों पर निर्णय लिए जा सकते हैं।
भारतीय कूटनीतिज्ञ यह भी महसूस कर रहे हैं कि कोविड महामारी के बाद वैश्विक संचालन से अलगाव ग्लोबल साउथ के देशों में तेजी से बढ़ा है, इसलिए कुछ संस्थानों को कम से कम इस अलगाव को एक संकट बनने से रोकने की दिशा में पहल करनी चाहिए। यह भी स्पष्ट है कि बहुपक्षवाद से जुड़े अन्य ढांचे मौजूदा बहुपक्षीय संस्थानों की जगह लेने या इन्हें दुरुस्त करने के लिए अस्तित्व में आ रहे हैं।
उदाहरण के लिए शुक्रवार को जापान ने घोषणा की कि वह यूरोपीय संघ द्वारा तैयार नए विवाद समाधान ढांचे का हिस्सा बनेगा। यह ढांचा विश्व व्यापार संगठन में मध्यस्थता प्रक्रिया की जगह लेने के लिए तैयार किया जा रहा है। ये नए बहुपक्षीय ढांचे विकासशील देशों की सक्रिय भागीदारी के बिना तैयार किए जा रहे है, इसलिए इन देशों, विशेषकर भारत के यह लिए चिंता का विषय जरूर होना चाहिए।
भारत जी-20 समूह की अध्यक्षता को अपने कई वर्षों के प्रयासों के परिणाम के रूप में देख रहा है। इस तरह का प्रयास इंडोनेशिया की तरफ से शुरू हुआ था और 2024 में ब्राजील इस समूह की अध्यक्षता करेगा। 2025 में इस समूह के नेतृत्व की कमान दक्षिण अफ्रीका के पास होगी।
इन देशों की अध्यक्षता में विकासशील देशों के खास आग्रह पर वैश्विक संचालन पर होने वाली चर्चा को एक नया शक्ल देने पर ध्यान दिया जाएगा। अगर भारत की अध्यक्षता अपेक्षाओं के अनुरूप नहीं रही तो दीर्घ अवधि के लिए किया जा रहा यह प्रयास भी खटाई में पड़ सकता है।
बहुपक्षवाद को हुए नुकसान की भरपाई, साझा समस्याओं का समाधान खोजना और वैश्विक संचालन में भारत एवं तेजी से उभरते देशों की भागीदारी बढ़ाने का गंभीर लक्ष्य आसानी से पटरी से उतर सकता है।
अगर जी-20 समूह की बैठक में सदस्य देशों के प्रतिनिधियों को लगता है कि वास्तविक समस्याओं पर कम ध्यान दिया जा रहा है और भारत की छवि दुनिया में बेहतर दिखाने पर अधिक ऊर्जा खर्च हो रही है तो सकारात्मक परिणाम आने की उम्मीद घटती जाएगी। प्रतिनिधिमंडल को उनके अपने देशों में भी विरोध का सामना करना पड़ सकता है।
ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के दौरान पूरी कूटनीति को उनके व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द दिखाने का उनके देश में विरोध हो रहा है। भारत में भी यह एक पेचीदा सवाल है क्योंकि किसी खास व्यक्ति के चारों तरफ राजनीतिक चक्र का घूमना एक नया चलन बन चुका है।
मगर वर्तमान सरकार को वैयक्तिकरण से मिलने वाले लाभ का मूल्यांकन इस बात को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए कि वैश्विक पटल पर भारत की छवि नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित करने में असफल रहने से होने वाले असर कितने नुकसानदेह होंगे।
इन दोनों समस्याओं-पिछले वर्ष की तुलना में पूरब एवं पश्चिम के देशों में अधिक मतभेद उभरने और जी-20 समूह की अध्यक्षता करने वाले देशों का कम सक्रिय दिखना- का समाधान सुनिश्चित किया जा सकता है। इसके लिए केवल भारत को लाभ पहुंचाने वाले विषयों पर अधिक ध्यान नहीं देकर वृहद विषयों पर अधिक ध्यान देना होगा।
नए संस्थानों में सुधार के लिए खास प्रस्ताव और वैश्विक एवं क्षेत्रीय वित्तीय एवं आर्थिक परिणामों की तरफ झुकाव जी-20 में भारत के सहयोगी देशों की भागीदारी बढ़ाएंगे। ये प्रस्ताव विकासशील देशों के विशेष आग्रह पर लाए जा सकते हैं।
ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका में जी-20 समूह की बैठकों से पहले इन पर पहले से सहमति बन जाए तो यह और अच्छी बात होगी। यूक्रेन पर रूस के आक्रमण से चर्चा अन्य महत्त्वपूर्ण विषयों की ओर ले जाने से जी-20 समूह के सदस्य देशों के बीच आपसी सहयोग बढ़ेगा। इसका परिणाम यह होगा कि सदस्य देशों के बीच मतभेद का स्तर कम हो जाएगा और सकारात्मक परिणाम निकलने की गुंजाइश बढ़ जाएगी।