इस सप्ताहांत दुनिया भर के नेता जी-20 शिखर बैठक में हिस्सा लेने के लिए राजधानी नई दिल्ली में एकत्रित हुए हैं। शहर में उम्मीद का माहौल है और लोक निर्माण विभाग ने उसके बड़े हिस्से को सजा-संवार दिया है। शहर के बाकी हिस्से को सुरक्षा सेवाओं ने बंद कर दिया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए इसके अंतरराष्ट्रीय नतीजे भले ही महत्त्वपूर्ण हों लेकिन वे दोयम हैं। आम चुनाव करीब हैं और मोदी चाहेंगे कि यह शिखर बैठक कामयाब हो। मोदी और उनके मतदाताओं के बीच जो समझ है उसका एक अहम हिस्सा यह भी है कि भारत वैश्विक मामलों में नेतृत्वकारी भूमिका अपनाएगा, भले ही वे देश के आकार और आर्थिक ताकत के अनुरूप हों या उसके साथ तालमेल वाले न भी हों।
परंतु इस पूरी कोशिश के मूल में एक दिक्कत है और उसका नाम है चीन। जी-20 को लेकर उस कदर जोश नहीं है जितना होना चाहिए क्योंकि चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के बिना यह आयोजन अधूरा होगा। हमें इस सप्ताह पता चला कि शी कार्यक्रम में नहीं आएंगे, हालांकि हमें इसकी वजह नहीं बताई गई।
इसे लेकर कई अटकलें लगाई गईं: कुछ लोगों ने कहा कि शी चिनफिंग शायद चीन की अर्थव्यवस्था के बारे में दुनिया के दूसरे देशों के नेताओं से बात नहीं करना चाहते होंगे। दूसरों ने कहा कि ऐसा करके वह ब्रिक्स समूह का कद मजबूत करना चाहते हैं जिसमें हाल ही में नए सदस्य शामिल किए गए हैं। ऐसे भी दावे किए गए कि कम्युनिस्ट पार्टी की अंदरूनी राजनीति के कारण वह नहीं आए।
भारत में ज्यादा लोग यह पता लगाने की मशक्कत नहीं कर रहे हैं कि शी क्यों नहीं आए। हमें लगता है कि हमें इसकी वजह पता है: वह भारत की आकांक्षाओं पर कुठाराघात करने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी अनुपस्थिति- खासतौर पर महज एक पखवाड़ा पहले जोहानिसबर्ग में ब्रिक्स की बैठक में शिरकत के तत्काल बाद यहां न आने को भला और क्या समझा जाए। जैसा कि कुछ नीति निर्माता कहते भी हैं कि इसे शी के युग में चीन के शीर्ष नेताओं के रुझान के अनुकूल ही माना जाना चाहिए जहां वैश्विक नेतृत्व के भारत के दावों को बार-बार अनदेखा किया गया है और नकारा गया है।
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मोदी की बात करें तो उनके लिए यह स्थिति व्यक्तिगत निराशा की भी है और साथ ही व्यक्तिगत जवाबदेही की भी। उन्होंने कई बार यह कोशिश की है कि चीन के साथ रिश्तों को नए सिरे से सुधारा जाए। बल्कि नौ वर्ष पहले सत्ता में आने के बाद यह उनकी प्रमुख विदेश नीति संबंधी पहल थी।
दोनों नेताओं ने अहमदाबाद में पुनर्विकसित साबरमती वाटरफ्रंट के समक्ष चहलकदमी की थी और झूले पर झूले थे। परंतु उनकी बातचीत के साथ ही यह खबर आई कि चीन की सेना ने हिमालय क्षेत्र में भारत के कब्जे वाले इलाके में घुसपैठ शुरू कर दी है। इसके साथ ही भारतीय सैनिकों के साथ उनका विवाद फिर शुरू हो गया।
यह कई झटकों में से एक था। चीन के कूटनयिकों ने भारतीय कूटनयिकों के उन प्रयासों को भी नाकाम किया जिनमें उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान से काम कर रहे आतंकवादियों पर प्रतिबंध लगवाने का प्रयास किया। उन्होंने भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में भी शामिल नहीं होने दिया। यह वह समूह है जो परमाणु सामग्री के अंतरराष्ट्रीय कारोबार का नियमन करता है।
भारत के नीति निर्माताओं को लगता है कि उन्होंने अपनी सीमा से परे जाकर चीन की विभिन्न चिंताओं का निराकरण किया है लेकिन चीन की ओर से बदले में ऐसा कुछ भी देखने को नहीं मिला।
सीमा और आतंकवाद को लेकर विवाद को शायद क्षणिक मसला माना जा सकता है जो समय के साथ हल हो जाने वाला हो लेकिन हकीकत में शी चिनफिंग की महत्त्वाकांक्षाओं के इस दौर में भारत-चीन रिश्तों के भविष्य की चिंताएं कहीं अधिक गहरी हैं। मुख्य समस्या यह है कि अब ऐसा प्रतीत हो रहा है कि चीन वैश्विक मंच पर भारत के उभार का न तो समर्थन करेगा और न ही उसकी राह सुगम बनाएगा। जबकि बीते दशकों में भारत ने चीन के लिए यह काम किया है।
इस सप्ताहांत जी-20 शिखर बैठक में शी की अनुपस्थित को लेकर उत्पन्न नाराजगी और निराशा से जुड़ा एक और पहलू है। यह जी-20 शिखर बैठक मोदी द्वारा एक नई आक्रामक और तेजी से बढ़ती शक्ति वाले देश के प्रदर्शन के लिहाज से डिजाइन की गई थी। बीते महीनों के दौरान दर्जनों उच्चस्तरीय बैठकें हुईं ताकि शिखर बैठक का अंतिम एजेंडा तैयार किया जा सके। परंतु गत वर्ष इंडोनेशिया की अध्यक्षता के उलट ये बैठकें वहां आए मंत्रियों के संयुक्त वक्तव्य के बिना समाप्त हुईं।
चीन और रूस के अधिकारियों ने लगातार इंडोनेशिया की अध्यक्षता के दौरान यूक्रेन युद्ध पर बनी सर्वसम्मति वाली भाषा को भारत के कार्यकाल के दौरान इस्तेमाल करने की अनुमति देने से इनकार किया और अब शी ने इस बैठक को यह बड़ा झटका देने का प्रयास किया।
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क्या हम इस बात पर जरूरत से ज्यादा सोच विचार कर रहे हैं? निश्चित तौर पर दोनों देश कहते हैं कि वे एक बहुध्रुवीय विश्व चाहते हैं और उनका ऐसा कहना अमेरिका और पश्चिम के खिलाफ सीधी टिप्पणी है। यह बात तमाम वास्तविक और काल्पनिक झटकों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है? मैं इसे लेकर निश्चित नहीं हूं। आखिरकार भारत और चीन के बीच बहुध्रुवीय दुनिया के स्वरूप को लेकर भी तो सहमति नहीं है।
भारत का मानना है कि ऐसे नए संस्थान सामने आने चाहिए जो युद्ध के बाद की व्यवस्था में विकासशील देशों का उचित प्रतिनिधित्व करें। इस बीच चीन भले ही लगातार दावा कर रहा है कि वह नया शीतयुद्ध नहीं चाहता लेकिन वह अमेरिका के साथ सीधी भिड़ंत की कल्पना को लेकर एकदम सहज है। चीन की दृष्टि में समान साझेदार के रूप में भारत के लिए कोई जगह नहीं है।
अगर शी और उनकी पीढ़ी के नेता अमेरिका से इस बात के लिए नाराज हैं कि उसने चीन के उभार को उचित तवज्जो नहीं दी और एक नई महाशक्ति के लिए जगह नहीं बनाई तो शायद वे जानबूझकर इस बात से आंख मूंद रहे हैं कि वे अपने दक्षिण में मौजूद एक विशाल देश में वैसी ही नाराजगी भर रहे हैं। भारत का उभार धीमा और चीन की तुलना में कम नाटकीय है लेकिन अगर चीन उसके लिए जगह नहीं बनाता वह एक ऐसे भविष्य की ओर बढ़ रहा है जहां उसे एक नहीं बल्कि दो नाराज बड़ी शक्तियों का सामना करना होगा।