यदि आप एक रोमांचक वेब सीरीज को इंस्टाग्राम रील्स के साथ मिलाते है तो आपको बेहद छोटे संस्करण वाला ड्रामा (यानी माइक्रो ड्रामा) देखने को मिलता है। इस तरह के काल्पनिक शो में दो से तीन मिनट के एपिसोड होते हैं। दुनिया भर में ऐसे माइक्रो ड्रामा की प्रोग्रामिंग का चलन शुरू हो चुका है।
एक सीजन के 30 से 50 एपिसोड में से हरेक एपिसोड एक रोमांचक मोड़ पर खत्म होता है जिसमें कोई हत्या, शादी, धोखा या मुक्ति पाने जैसी ही कई तरह की भावनाओं से लबरेज ये एपिसोड आपको अगले, और फिर उसके अगले एपिसोड पर जाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। दरअसल, इस तरह के एपिसोड भावनात्मक उत्सुकता जगाते हैं जिसके कारण ही दर्शक इसे लगातार देखने के लिए प्रेरित होते हैं। यह वास्तव में दर्शकों को एक जगह स्थिर रखने की भी जुगत है ताकि वे इससे अलग जाकर कोई दूसरा विकल्प न देख पाएं क्योंकि उनके पास ऑनलाइन समय बिताने के लिए विकल्पों की भरमार है।
मीडिया पार्टनर्स एशिया की एक रिपोर्ट का अनुमान है कि माइक्रो ड्रामा ने 2024 में 8 अरब डॉलर का वैश्विक राजस्व हासिल किया। सबसे पहले चीन में लगभग एक दशक पहले ऐसे ड्रामा की शुरुआत हुई थी और अब भी चीन इस तरह के ड्रामे का प्रमुख केंद्र बना हुआ है। यह दुनिया का सबसे बड़ा माइक्रो ड्रामा बाजार है, जिसका विज्ञापन और भुगतान राजस्व 7 अरब डॉलर से अधिक है।
चीन में 83 करोड़ से अधिक दर्शक ऐसे कई शो देखते हैं जिनमें बाइटडांस (रेड फ्रूट), टेनसेंट (वीचैट वीडियो अकाउंट्स) और कुआइशौ (शी फैन) पर ‘रेनकिस्ड फेट’ या ‘दिस किलर इस अ बिट क्यूट’ जैसे कई शो हैं। मीडिया पार्टनर्स एशिया की रिपोर्ट के अनुसार, इस साल के अंत तक, माइक्रो ड्रामा चीन में घरेलू बॉक्स ऑफिस को पीछे छोड़ देंगे। वहीं अमेरिका 81.9 करोड़ डॉलर के राजस्व के साथ दूसरा प्रमुख उपभोक्ता है।
अगर भारत की बात करें तो यहां भी माइक्रो ड्रामा ने धूम मचा दी है। इस साल की शुरुआत में, फ्लिक टीवी, रील सागा, चाय शॉट्स जैसे आधा दर्जन खिलाड़ियों ने इस तरह के ड्रामा से जुड़े कारोबार के लिए 20 लाख डॉलर से 50 लाख डॉलर (लगभग 17 करोड़ रुपये से 45 करोड़ रुपये) के बीच पूंजी जुटाई।
ऐसे में दो सवाल खड़े होते है जिनमें से पहला सवाल यह है कि आखिर निवेशक किस पर दांव लगा रहे हैं? कॉमस्कोर के आंकड़ों के अनुसार, जून 2025 में भारत में लगभग 52.3 करोड़ लोग समाचार, मनोरंजन और सोशल मीडिया के लिए ऑनलाइन ब्राउजिंग कर रहे थे। यह संभावित दर्शकों की संख्या है। इनमें से कई पहले से ही माइक्रो ड्रामा देख रहे हैं। हालांकि, इसका कोई अनुमान नहीं है कि कितने ग्राहक इन्हें देखने के लिए पैसे दे रहे हैं या माइक्रो ड्रामा को विज्ञापन से कितना पैसा मिलता है। इसका मतलब है कि करीब 2.5 लाख करोड़ रुपये (भुगतान के साथ-साथ विज्ञापन) का मीडिया एवं मनोरंजन तंत्र दांव पर है जिसमें टीवी, डिजिटल, ऑडियो और गेमिंग शामिल है।
माइक्रो ड्रामा यूट्यूब, नेटफ्लिक्स, इंस्टाग्राम, और दंगल टीवी या इसी तरह की सेवाओं में परस्पर बदली वाले खाली क्षेत्र में आते हैं। वे उस छोटे समय पर कब्जा करने की कोशिश करते हैं जिस दौरान हम रील्स देखते हैं, किसी समाचार चैनल को बदलते हैं या व्हाट्सऐप पर दोस्तों के साथ चैट करते हैं। हालांकि, इसमें एक अच्छी वेब सीरीज से जुड़ी रोमांचक कहानी और कम लागत पर अधिक एपिसोड की दरकार होती है।
मीडिया एजेंसी लोडस्टार यूएम के अनुसार, उन छोटी स्क्रीनों पर एक उपभोक्ता तक पहुंचने की विज्ञापन दर टीवी की एक-चौथाई या यूट्यूब की आधी है। ऐसे में विज्ञापन का खेल बहुत बड़े पैमाने का होना चाहिए यानी करीब 10-20 करोड़ उपयोगकर्ताओं के बीच। इसका मतलब है कि वे एक बड़े पैकेज के हिस्से के रूप में बेहतर काम कर सकते हैं, जैसे एमेजॉन एमएक्स प्लेयर पर एमएक्स फटाफट, जिसके पास पहले से ही 25 करोड़ यूनीक विजिटर हैं या डिश टीवी के ऐप वाचो पर फ्लिक्स।
भुगतान राजस्व के कारगर होने के लिए, माइक्रोड्रामा को एक विशेष सेवा का हिस्सा होना होगा, जैसे कि पॉकेट फिल्म्स, जो यूट्यूब, फेसबुक और जियो हॉटस्टार जैसे प्लेटफॉर्म पर लघु फिल्मों का एक बड़ा वितरक है, या कुकु एफएम जो एक ऑडियो सीरीज और बुक्स सेवा है जिसने हाल ही में कुकु टीवी को माइक्रो ड्रामा से जोड़ा है। इनकी संयुक्त सेवा के तहत 60 लाख ग्राहक जुड़े हैं जो तीन महीनों के लिए लगभग 499 रुपये से लेकर सालाना 1,499 रुपये तक का भुगतान कर रहे हैं।
इस तेजी के कारण दूसरा सवाल यह उठता है कि आखिर यह मीडिया की खपत, उपभोक्ता व्यवहार और हम किस दिशा में जा रहे हैं, इसके बारे में क्या कहता है? भारत में 900 से अधिक चैनल, हजारों समाचार पत्र, 860 से अधिक रेडियो चैनल हैं और इनके अलावा देश में सालाना 1,600 से अधिक फिल्में बनती हैं। साथ ही, 60 से अधिक वीडियो स्ट्रीमिंग ऐप्स हैं और एक दर्जन म्यूजिक ऐप्स हैं।
अब निश्चित रूप से दर्शकों और श्रोताओं के लिए अधिक समृद्ध विकल्प उपलब्ध है जिस पर भारतीयों की नजर है। कॉमस्कोर के आंकड़ों के अनुसार, नवंबर 2024 में दर्शकों ने रोजाना 2.5 घंटे ऑनलाइन समाचार, मनोरंजन सामग्री के साथ ही सोशल मीडिया देखा। इसमें अगर टीवी (प्रति दिन 4 घंटे से कम) और अन्य मीडिया को जोड़ दें तो रोजाना लोगों का करीब 7-8 घंटे का समय किसी न किसी मीडिया पर खर्च होता है यानी कम से कम 52.3 करोड़ भारतीय ऑनलाइन रहते हैं।
इसका नतीजा यह हुआ है कि आप मानव इतिहास में इस वक्त सबसे विचलित उपभोक्ता दिख रहे हैं। एक शोध कहता है कि ज्यादा स्क्रीन देखने वाले उपयोगकर्ताओं की ध्यान अवधि महज 8 सेकंड है। ऐसे में सवाल यह है कि आप ऐसे उपभोक्ता को कोई कहानी कैसे सुना सकते हैं?
यही कारण है कि इस कारोबार से पैसा कमाना मुश्किल हो जाता है खासतौर पर छोटे और केंद्रित खिलाड़ियों के लिए। लंबे समय तक, मीडिया का अर्थशास्त्र इसके बार-बार देखे जाने वाले दोहराव के मूल्यों पर आधारित था। एक सफल फिल्म, शो या संगीत का वास्तव में लंबा जीवन होता था जिससे इसकी निर्माता कंपनी को उससे पैसा कमाने का मौका मिलता था। लेकिन अब गूगल और मेटा, टीवी की कीमत के एक-चौथाई कीमत पर विज्ञापनदाताओं को सभी श्रेणी और भौगोलिक क्षेत्रों में दर्शक मुहैया कराते हैं। दोहराने की बात तो छोड़िए, यह बेहद हैरानी की बात होगी कि अगर खूब सामग्री का उपभोग करने किसी उपभोक्ता को कोई किताब या शो याद रहे।
दो से तीन घंटे की फिल्मों से लेकर, 30-50 मिनट के टीवी शो तक और फिर वेब सीरीज तक, 8-10 मिनट के शॉर्ट्स तक और अब एक से दो मिनट के माइक्रो ड्रामा तक विचार करें तो यह वास्तव में एक छोटे, तेज रफ्तार वाले और यकीनन अधिक विचारहीन उपभोग वाली यात्रा रही है। ऐसे में यह सवाल लाजिमी हो जाता है कि क्या हम जल्द सिर्फ तस्वीरें ही देखेंगे?