पिछले सप्ताह भारतीय मीडिया में दो खबरें सुर्खियों में रही थीं। पहली खबर एंटीबायोटिक सहित नकली दवाओं की आपूर्ति के आरोप में कुछ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किए जाने से जुड़ी थी। इन लोगों पर आरोप हैं कि वे महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश और झारखंड में सरकारी अस्पतालों को घटिया एवं नकली दवाओं की आपूर्ति कर रहे थे। जो गोलियां और टैबलेट अस्पतालों को भेजी गई थीं, उनमें ज्यादातर टैल्कम पाउडर और स्टार्च से तैयार की गई थीं। उनमें कोई औषधीय रसायन था ही नहीं।
इसके फौरन बाद इतना ही परेशान करने वाली दूसरी खबर आ गई। केंद्रीय औषध मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) द्वारा हाल में किए गए एक सर्वेक्षण में पाया गया कि बाजार में उपलब्ध दवाएं (कुछ प्रमुख एंटीबायोटिक, एंटैसिड, एंटीपायरेटिक्स और रक्तचाप की दवाएं) गुणवत्ता के मामले में कमजोर थीं। इन दवाओं का लोग अक्सर इस्तेमाल करते हैं। इनमें कुछ दवाओं का उत्पादन एवं बिक्री हिंदुस्तान एंटीबायोटिक्स, एल्केम, टॉरेंट और दूसरी नामी कंपनियां करती हैं।
जिन ब्रांडों के नमूने गुणवत्ता के पैमानों पर नाकाम हो गए, उनमें से कुछ तो अपनी-अपनी श्रेणियों में बाजार के अगुआ हैं। भारत में दवा निरीक्षक हर महीने बाजार में उपलब्ध दवाओं की जांच करते रहते हैं। सीडीएससीओ ने लगातार पाया है कि इनमें से कुछ दवाओं के नमूने गुणवत्ता मानकों की शर्तें पूरी नहीं कर पा रहे हैं। यह पहली रिपोर्ट नहीं थी जिसमें कई दवाएं घटिया होने की बात कही गई है। फर्क इतना है कि पहले आई इसी तरह की रिपोर्ट की तुलना में इसमें अधिक विस्तार से बात की गई है।
घटिया और नकली दवाओं की समस्या केवल भारत में ही नहीं है। कुछ वर्ष पहले विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने अनुमान जताया था कि निम्न और मध्यम आय वाले देशों के बाजारों में बिक रहे 10 चिकित्सा उत्पादों (ज्यादातर दवाएं या टीके मगर स्वास्थ्य उपकरण भी) में से क घटिया या ‘फर्जी’ की श्रेणी में आता है। भारत अपनी वर्तमान प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से निम्न मध्यम आय वाले देशों में आता है। यह समस्या विकसित या उच्च-आय वाले देशों में भी थोड़ी-बहुत है।
घटिया और नकली दवाएं कई कारणों से देश की आर्थिक उत्पादकता एवं वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं। इन प्रभावों की पड़ताल के लिए एशिया, लैटिन अमेरिका और अफ्रीका के देशों में कई अध्ययन किए गए हैं। हैरत की बात है कि इस विषय पर भारत में ऐसा एक भी अध्ययन नहीं हुआ है, जो विस्तृत हो या बड़े पैमाने पर नमूने लेकर किया गया हो।
तब भी यह समझने में विशेष कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि देश की अर्थव्यवस्था पर घटिया एवं नकली दवाओं का बड़ा असर क्यों होता है। ये दवाएं बीमारियां ठीक करने में कारगर नहीं होतीं और अक्सर लोगों को अधिक समय तक बीमार रखती हैं। कभी-कभी ये जानलेवा भी साबित होती हैं। इससे इलाज का खर्च बढ़ जाता है और कामकाज का नुकसान भी होता है। इससे नौकरी जा सकती है और इलाज के लिए कर्ज भी लेना पड़ जाता है।
जिस देश में इलाज के लिए एक बार अस्पताल में भर्ती होने पर ही देश की बड़ी आबादी की माली हालत खस्ता हो जाती है वहां ऐसी दवाओं की वजह से भारी संख्या में लोग गरीबी के जंजाल में फंस जाते हैं। घटिया और नकली दवाएं किसी भी उम्र के लोगों की जान ले सकती हैं मगर नवजात शिशुओं और बुजुर्गों के लिए ये ज्यादा खतरनाक होती हैं। इनसे लोगों की सेहत को दीर्घकालिक खतरे भी बढ़ जाते हैं जैसे बीमारियों से लड़ने की क्षमता कमजोर होना या दवाओं का रोगाणुओं पर बेअसर होना।
निम्न एवं उच्च आय वाले सभी देशों को इस समस्या का सामना करना पड़ सकता है मगर भारत के लिए यह समस्या दो कारणों से ज्यादा ही बड़ी है। पहला कारण भारत की आबादी है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमानों के अनुसार भारत अब दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया है, इसलिए यहां समस्याएं भी कई गुना बड़ी हो गई हैं। अन्य देशों की तुलना में भारत में युवा आबादी अधिक है जिसके कई लाभ हैं। किंतु घटिया और नकली दवाएं स्वास्थ्य के लिए खतरा पैदा कर रही हैं। लोगों की काम करने की क्षमता प्रभावित होने से देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर कम हो सकती है।
पिछले कई दशकों से भारत ने ‘दुनिया का दवाखाना’ कहलाने के लिए अथक प्रयास किए हैं। जेनेरिक दवा और किफायती टीके बनाने का अपना हुनर वह दुनिया को दिखा ही चुका है। मगर नकली एवं घटिया दवाओं की बाढ़ आने से दूसरे देश भारत से दवाओं का आयात करने में हिचकेंगे और इसका फायदा प्रतिस्पर्द्धी देशों को मिल जाएगा। इस समस्या से निपटने के लिए काफी कम प्रयास किए गए हैं। जब भी दवा विनिर्माता घटिया दवाएं बनाते या भेजते पकड़े जाते हैं, उन्हें सजा मुश्किल से ही मिलती है। सजा होती भी है तो कुछ हजार रुपये के जुर्माने तक सिमटकर रह जाती है, जिसे चुकाने में उन्हें कोई तकलीफ नहीं होती। घटिया दवाओं के पूरे बैच ही बाजार से वापस मंगाने जैसे कड़े कदम नियामकीय प्राधिकरण कभी नहीं उठाते।
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में घटिया एवं नकली दवाओं की दो प्रमुख वजह हैं। पहली नियामकीय क्षमता से जुड़ी है। सीडीएससीओ काफी हद तक अधिकारियों पर निर्भर रहते हैं मगर ज्यादातर राज्यों में नमूने की पड़ताल की क्षमता या विशेषज्ञता तैयार नहीं हो सकी है।
इसकी वजह से वे कंपनियों को विनिर्माण के अच्छे पैमाने अपनाने के लिए बाध्य नहीं कर पाते और न ही वे दोषी विनिर्माताओं के खिलाफ कदम उठा पाते हैं। दूसरी वजह यह है कि इन दवाओं की बिक्री तो बड़ी दवा कंपनियां अपने नाम से करती हैं मगर असल में वे इन्हें छोटी कंपनियों से ठेके पर बनवाती हैं। वहां न तो गुणत्ता पर नियंत्रण होता है और न ही उस पर काबू रखने के उपकरण खरीदने का पैसा होता है।
ये दोनों समस्याएं दूर हो सकती हैं, बशर्ते केंद्र एवं राज्य सरकारें ऐसा करने के लिए तत्पर हों। राज्यों में बुनियादी क्षमता और विकास करने की बात हो या दोषियों को सजा देने वाले कड़े कानूनों का अभाव हो, दुर्भाग्य से भारतीय नीति निर्धारकों ने स्वास्थ्य सेवाओं को हमेशा कम प्राथमिकता दी है।
दुनिया में हुए कई अध्ययनों से पता चला है कि घटिया एवं नकली दवाएं किसी भी देश को गहरा नुकसान पहुंचाती हैं मगर भारत में नीति निर्धारकों ने इस बात की भी अनदेखी की है। भारत अगर अगले तीन या चार दशकों में भी मध्य-आय वर्ग वाले देशों की जमात से उठकर उच्च-आय वर्ग वाले देशों की सूची में जगह पाना चाहता है तो उसे अपना रवैया बदलना ही होगा।
(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेस वर्ल्ड के संपादक रह चुके हैं तथा संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैक व्यू के संस्थापक हैं)