जम्मू कश्मीर के दर्जे में संवैधानिक बदलाव को तीन वर्ष पूरे हो चुके हैं। पत्रकारिता की पारंपरिक पाठशालाओं में आपको जो बातें सबसे पहले बताई जाती हैं उनमें से एक यह है कि अगर तीन बातें एक ही दिशा में संकेत कर रही हों तो आपकी खबर सही है। हम उन तीन बातों पर नजर डालते हैं जो 5 अगस्त, 2019 के बाद बदल गई हैं। इसके साथ ही हम तीन ऐसी बातों को भी देखेंगे जिन्हें नहीं घटित होना चाहिए था तथा तीन ऐसी बातों को भी जिन मामलों में हालात और अधिक बिगड़ गए हैं।
परंतु आप में से कई लोग मुझसे पूछ सकते हैं कि बार-बार कश्मीर की बात क्यों कर रहा हूं? अब तो कोई उसके बारे में सोचता भी नहीं है। शायद यही बेहतरी की ओर सबसे अहम बदलाव है। अगर कश्मीर हमारे सोच से बाहर है और बदलाव की तीसरी वर्षगांठ मीडिया की सुर्खियों में या प्राइम टाइम की बहस में भी नहीं है। ट्विटर पर कोई ट्रेंड नहीं चला। इन बातों का यही अर्थ है कि इस नाटकीय तथा दुस्साहसिक कदम से कुछ ठोस हासिल हुआ है।
इस विषय में शांति से सोचिए। बीते 75 वर्षों में सन 1972 से 1987 के शांतिपूर्ण समय को छोड़ दें तो जम्मू कश्मीर एक शाश्वत समस्या के रूप मे हमारे दिमाग में बना रहा। यहां ‘हमारा’ शब्द का इस्तेमाल पूरे देश में आम जनमानस के लिए किया गया है और खासतौर पर जम्मू कश्मीर के। अगर इसे देश के बाकी हिस्से में समस्या के रूप में देखा जाता तो यहां रहने वाले लोग तो सीधे पीड़ित कहलाते।
सबसे बड़ा सकारात्मक बदलाव तो यही है कि कश्मीर एक संकट के रूप में हमारे दिमाग से निकल गया है। अतीत में यह एक संकट के रूप में असर रखता था क्योंकि घाटी, आतंकवादी, अलगाववाद, इस्लाम और पाकिस्तान के बीच आसानी से रिश्ता कायम कर लिया जाता था।
इसने एक खास तरह से राष्ट्रीय हित को परिभाषित करने में मदद की। जन संघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी का कश्मीर में निधन हुआ। उनके अनुयायियों को यह रहस्यमय लगा और वे हमेशा के लिए शहीद मान लिए गए। यही कारण है कि दशकों बाद दिसंबर 1991-जनवरी 1992 में भाजपा में नेतृत्व की जंग में मुरली मनोहर जोशी ने श्रीनगर में तिरंगा फहराने के लिए मार्च किया। यह बात अलग है कि उस आयोजन की ऐतिहासिक तस्वीर में से जिस व्यक्ति का कद सबसे अधिक बढ़ा वह उस वक्त के युवा कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी हैं।
सन 1989 के बाद से ही पाकिस्तान की मदद से होने वाले सशस्त्र हमले, आम जनमानस में कश्मीर की पहचान जैसे बन गए। इसके बाद बॉलीवुड में ऐसी फिल्मों का दौर शुरू हुआ जिसमें मुस्लिम प्राय: बुरे और आतंकी होते थे। वे प्राय: पाकिस्तानी दलाल होते थे। अब बॉलीवुड में भी यह सब नजर नहीं आता। चीन और तुर्की को छोड़ दें तो बीते तीन साल में किसी अन्य देश ने किसी भी तरह से कश्मीर ‘मुद्दे’ का जिक्र नहीं किया है।
खाड़ी देश और इस्लामिक दुनिया इस राहत में नजर आते हैं कि अब यह कोई मुद्दा नहीं बचा। अब ओआईसी के बयानों की कोई अहमियत नहीं रह गई। अन्य बातों के अलावा इसका एक कारण यह भी है कि वह उइगर मसले पर पूरी तरह खामोश रहता है लेकिन अपनी शिखर बैठक में चीन के विदेश मंत्री को सर्वाधिक प्रमुख अतिथि के रूप में आमंत्रित करता है। तीसरा पाकिस्तान। इमरान खान ने व्यापक अभियान छेड़ा लेकिन किसी ने उन पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने भारत के साथ तनाव बढ़ाया, व्यापार बंद किया, अपनी अर्थव्यवस्था का पतन होने दिया और आज भारत से ज्यादा परमाणु हथियार रखने वाला पाकिस्तान एफएटीएफ और आईएमएफ से मदद की गुहार करता रहता है।
आज आतंकवादी हमले जारी रह सकते हैं लेकिन फिलहाल कश्मीर मसले को लेकर पाकिस्तान की कोई हैसियत नहीं है। इस बात का एक असर यह हुआ है कि भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत की शर्तें बदल चुकी हैं। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान ने हमेशा माना कि अगर वे भारत को बातचीत पर विवश करें तो वे कुछ हासिल कर सकते हैं। अतीत के दशकों में वह इसी उम्मीद में खुलकर या छिपकर कार्रवाई करता रहा। अब यह समाप्त हो गया है। जो हो चुका, भारतीय संसद उसे बदल नहीं सकती।
अगर देखें कि भारत को जो कुछ हासिल करना चाहिए था लेकिन वह नहीं कर पाया तो इसमें पहली नाकामी यह है कि अब तक एक पूर्ण राजनीतिक और लोकतांत्रिक प्रक्रिया शुरू हो जानी चाहिए थी। अब तक दोनों नये क्षेत्र दिल्ली से शासित हैं। यह कश्मीर के लोगों के लिए अनुचित और भारत के लिए खतरनाक था।
भाजपा नेता इस बात पर गर्व करते हैं कि उन्होंने हुर्रियत नेतृत्व जैसे अतीत के उत्पात को समाप्त कर दिया। लेकिन खाली स्थान के कारण खतरा बना हुआ है। नये चुनाव कराकर राज्य और उसके निर्वाचित नेताओं को वह स्वायत्तता देनी होगी जो उसे मिलनी चाहिए। अब्दुल्ला, मुफ्ती तथा मुख्यधारा के बाकी नेताओं को प्रतिस्पर्धी माहौल मिलना चाहिए। केंद्र सरकार अगर तीन वर्ष बाद भी किसी आशंका से ग्रस्त है तो यह नाकामी है।
दूसरी विफलता है जम्मू कश्मीर को सांप्रदायिक बनाया जाना। हाल के दिनों में जो राजनीतिक कदम उठाये गए हैं उन्होंने हिंदू जम्मू और मुस्लिम कश्मीर के बीच की खाई को चौड़ा किया है। भाजपा के लिए यह सपना देखना उचित है कि जम्मू कश्मीर में उसका मुख्यमंत्री होगा लेकिन सांप्रदायिक विभाजन के जरिये ऐसा करना लगभग असंभव है, बशर्ते कि धांधली भरे चुनाव और कठपुतली मुख्यमंत्रियों का दौर शुरू हो जाए। अगर ऐसा हुआ तो घाटी में पुराने दिन वापस आ जाएंगे और इन तीन वर्षों में अर्जित लाभ भी समाप्त हो जाएंगे। सबको साथ लेकर चलने की प्रक्रिया में इतनी देर कर दी गई है कि अब लग रहा है ऐसा जानबूझकर किया गया।
तीसरी विफलता है घाटी के लोगों को शांतिबहाली का कोई ठोस लाभ न मिलना। स्थानीय बुद्धिजीवी, पत्रकार और नागरिक भय में जी रहे हैं। कई लोगों पर कड़े आतंकवाद विरोधी कानूनों की मार है और लंबे समय से जेल में हैं, उनके विदेश जाने पर रोक है, और उन्हें कई तरह से प्रताड़ित किया जाता रहा है। केंद्र सरकार को अब तक वहां थोड़ी शिथिलता लानी चाहिए थी। इतने बड़े भूभाग को इतने लंबे समय तक सख्त नियंत्रण में रखना उचित नहीं है। इसका विपरीत प्रभाव हो सकता है।
बीते तीन वर्षों में सबसे बड़ा नकारात्मक प्रभाव रहा है घाटी के युवाओं में अलग-थलग होने की बढ़ती भावना। ये युवा 60 के दशक के कश्मीरी युवा नहीं हैं। ये आधुनिक, शिक्षित तथा देश के अन्य हिस्सों खासकर हिंदी क्षेत्र के युवाओं से ज्यादा मुखर युवा हैं।
वे प्रतिभाशाली महत्त्वाकांक्षी और नेटवर्क वाले साइबर जगत के वैश्विक नागरिक हैं। सरकार की नाकामी या उसकी अनिच्छा या शायद दोनों ने उन्हें नाराज किया है। घाटी में तैनात किसी वरिष्ठ सैन्य या खुफिया अधिकारी से पूछिए वह आपको बताएंगे कि वहां स्थानीय स्तर पर उग्रवाद के लिए कितना अनुकूल माहौल है। लश्कर ए तैयबा और जैश ए मोहम्मद जैसे संगठन अपनी विचारधारा और हथियार भेज रहे हैं लेकिन उनके काम को अंजाम देने वाले जिस्म भारतीय होंगे। यह शर्मनाक होगा।
दूसरी बात, प्रदेश में बाहर से कोई निवेश या उद्यम लाने में नाकामी हाथ लगी है। कई घोषणाएं हुईं लेकिन हकीकत में कुछ खास नहीं हुआ। इसका अर्थ यह है कि मोदी सरकार उद्यमियों को यह विश्वास नहीं दिला पाई कि कश्मीर देश के अन्य राज्यों की तरह ही सुरक्षित है। जबकि विशेष दर्जा हटाकर यही बात स्थापित करनी थी।
तीसरा, मेरा मानना है कि कश्मीर का दर्जा बदलने से चीन की सेना ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दी। इस समय चीन की सेना की मौजूदगी ही हमारे लिए सबसे बड़ा खतरा है। इसे चीन के नजरिये से देखिए। भारत ने जम्मू कश्मीर तथा लद्दाख को बांट दिया जो अब केंद्र शासित है। अक्साई चिन जो हमारे नियंत्रण में है वह भारतीय मानचित्र में लद्दाख में दिखता है। मोदी सरकार ने संसद में कहा था कि वह अक्साई चिन को हमसे वापस लेगी। ऐसे में क्यों न हम वहां जाएं और भारतीयों को याद दिलाएं कि हम भी कश्मीर विवाद में एक पक्ष हैं?
मैं यह दावा नहीं करता कि मैं चीनियों का दिमाग पढ़ सकता हूं। मैं इतना मूर्ख भी नहीं हूं कि यह मान लूं कि चीन ने 15,000 फुट की ऊंचाई पर एक लाख से अधिक हथियारबंद जवान घूमने फिरने भेजे हैं। इन तीन वर्षों की यह सबसे अहम नकारात्मक बात लगती है।