ओवर द टॉप यानी ओटीटी और दूरसंचार कंपनियों में से किसे किसको भुगतान करना चाहिए और कौन किसका शोषण कर रहा है, इस कहानी में बहस मुर्गे और अंडे की कहानी की तरह अंतहीन हो गई है। इस बीच सरकार का रुख इंतजार करने का है। नई दिल्ली और लाटविया की राजधानी रिगा में शायद ही कोई समानता हो लेकिन पिछले दिनों दोनों शहरों के टेक और मीडिया हलकों में ओटीटी पर जमकर बहस हुई। पारंपरिक दूरसंचार कंपनियों द्वारा सवाल उठाया जा रहा है कि ओटीटी कंपनियों को उनके द्वारा तैयार और सशुल्क इस्तेमाल किए जाने वाली अधोसंरचना का अनुचित ढंग से और नि:शुल्क इस्तेमाल करने दिया जा रहा है।
दूसरे पक्ष की दलील है कि दूरसंचार सेवा प्रदाता अपने डेटा की खपत बढ़ाने के लिए ओटीटी की सामग्री का सहारा ले रहे हैं। यह भी कि दूरसंचार कंपनियों का काफी प्रति उपभोक्ता प्रति माह औसत राजस्व (एआरपीयू) ओटीटी की लोकप्रिय सामग्री और संचार सेवाओं से आता है। रिगा में हाल ही में आयोजित 5जी शिखर बैठक ‘टेक्रिटरी’ में दूरसंचार कंपनियों तथा ओटीटी प्रतिभागियों के बीच निवेश के नियमन और नवाचार आदि को लेकर काफी बहस हुई। भारत में भी सरकार को नाराजगी भरे पत्र लिखे गए जिनकी बदौलत ओटीटी प्लेटफॉर्म सुर्खियों में रहे।
पूरा मामला पैसे से जुड़ा हुआ है: दूरसंचार कंपनियां चाहती हैं कि ओटीटी फर्म उन्हें अपने राजस्व का कुछ हिस्सा दें क्योंकि वे उनके मंच का इस्तेमाल करती हैं। व्यक्तिगत और सेल्युलर ऑपरेटर्स एसोसिएशन ऑफ इंडिया के रूप में सांगठनिक तौर पर उनका कहना है कि स्काईप से लेकर गूगल और फेसबुक से लेकर माइक्रोसॉफ्ट तक दिग्गज ओटीटी न तो सरकार के साथ राजस्व साझा कर रहे हैं और न ही वे स्पेक्ट्रम खरीदने के लिए कुछ राशि व्यय कर रहे हैं। उनका संदेश यही है कि ओटीटी का परिदृश्य दूरसंचार कंपनियों के राजस्व बहिर्गमन, स्पेक्ट्रम और लाइसेंस फीस तथा मजबूत बुनियादी ढांचा विकसित करने की तुलना में काफी अलग है। इस बीच तगड़ी जुबानी जंग में ब्रॉडबैंड इंडिया फोरम (बीआईएफ) ने मांग की है कि दूरसंचार कंपनियों को ओटीटी को भुगतान करना चाहिए क्योंकि उनकी वजह से उनका डेटा ट्रैफिक बढ़ता है।
दूरसंचार कंपनियों ने इसे सिरे से नकार दिया। कॉर्पोरेट अधिवक्ता और स्वतंत्र बोर्ड निदेशक तमाली सेन गुप्ता के मुताबिक ओटीटी की सामग्री और संचार सेवा प्रदाताओं में अंतर है। उनका कहना है कि विषय वस्तु तैयार करने वाली कंपनियों के पास राजस्व का केवल एक स्रोत होता है। दूरसंचार कंपनियों को उनके शुल्क में हिस्सा क्यों लेना चाहिए? बहरहाल, ओटीटी संचार सेवाओं के बारे में उन्होंने कहा कि वे सेवा प्रदाताओं के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं इसलिए राजस्व साझेदारी का मामला बन सकता है।
दूरसंचार क्षेत्र पर नजर रखने वाले एक विश्लेषक ने गोपनीयता की शर्त पर कहा कि भारत के नजरिये से संचार सेवा वाली ओटीटी के दूरसंचार प्लेटफॉर्म इस्तेमाल करने पर कुछ शुल्क लगना चाहिए। वह जूम, माइक्रोसॉफ्ट टीम और गूगल मीट जैसे ओटीटी की बात कर रहे थे। विश्लेषक के अनुसार एक सामान्य दलील तो यही है कि दुनिया के किसी भी देश में ओटीटी पर दूरंसचार बुनियादी ढांचे के इस्तेमाल के लिए शुल्क नहीं लगता है लेकिन वह दलील शायद भारत में लागू नहीं हो। वह कहते हैं, ‘अधिकांश अन्य भौगोलिक क्षेत्रों में दूरसंचार की शुल्क दर भारत की तुलना में काफी अधिक है।
भारतीय दूरसंचार बाजार संकट में है। यही वजह है कि यहां इन कारोबारियों से कुछ शुल्क बटोरने का प्रावधान करना चाहिए।’ उनके मुताबिक दूरसंचार कंपनियों के लिए दूसरा विकल्प यह है कि वे उपभोक्ताओं से उच्च शुल्क वसूलें और संकट से बाहर आएं। वह कहते हैं कि कंटेंट प्लेफॉर्म पर आरोप लगाने की कोई गुंजाइश नहीं है क्योंकि सामग्री तो चारों ओर है। यहां तक कि ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर भी उस स्थिति में शुल्क लगना चाहिए लेकिन यह वांछित नहीं है।
यह बहस कमोबेश वैसी ही है जैसे पहले अंडा आया या मुर्गी आई यानी कौन किसे भुगतान करेगा या कौन किसका शोषण कर रहा है। नियामक और सरकार दोनों वर्षों से इंतजार करने के मूड में हैं। इस विषय ने भारतीय दूरसंचसार प्राधिकरण (ट्राई) और दूरसंचार विभाग दोनों को आठ वर्षों से उलझा रखा है। अगस्त 2014 मे ट्राई ने ओटीटी सेवाओं के लिए नियामकीय ढांचे पर एक सेमीनार का आयोजन किया था। वह पहला मौका था जब दूरसंचार सेवा प्रदाताओं के प्रतिनिधि, ओटीटी सेवा प्रदाता और विधि विशेषज्ञों ने ऐसे विषय पर अपना नजरिया पेश किया था जो आगे चलकर बहुत विवादास्पद होने वाला था। दूरसंचार विभाग द्वारा एक मशविरा पत्र लाने और फिर अनुशंसा पत्र की बात कहने पर ट्राई ने सितंबर 2020 में कहा कि दूरसंचार सेवाओं के डेटा ट्रैफिक में असाधारण इजाफा हुआ है और सेवा प्रदाताओं ने अपने डेटा प्लांस के साथ असीमित कॉल वाले प्लान पेश किए हैं।
ट्राई की अनुशंसाओं ने इस बात को रेखांकित किया कि ओटीटी का इस्तेमाल बढ़ने के साथ दूरसंचार सेवा प्रदाताओं का ट्रैफिक भी बढ़ा है। कहा गया कि विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न कारोबारी मॉडल विचाराधीन हैं और जल्दबाजी में कोई नियामकीय उपाय पेश करने से समूचे उद्योग जगत पर नकारात्मक असर हो सकता है। ऐसे में इस प्रश्न के लिए ट्राई का जवाब शायद यही था कि इसमें उलझना ही नहीं है। ट्राई ने कहा कि हालात को लेकर प्रतिक्रिया के लिए बाजार शक्तियों का अनुसरण किया जा सकता है। उसने कोई नियामकीय हस्तक्षेप नहीं किया। बाद में कहा गया कि सही समय आने पर उपयुक्त हस्तक्षेप किया जाएगा।
क्या समय आ गया है? ट्राई में एक और मशविरा पत्र पर काम चल रहा है जो अधिक समावेशी होगा। इस बीच मसौदे के मुताबिक देखें तो अन्य नियामकीय ढांचे मसलन प्रस्तावित दूरसंचार विधेयक में ओटीटी संचार को सेवा प्रदाता के रूप में शामिल किया जाएगा। व्यक्तिगत डेटा संरक्षण विधेयक भी किसी तरह ओटीटी को अपने दायरे में ला सकता है। विशेषज्ञों का मानना है कि ओटीटी को सही ढंग से परिभाषित कर पाना और उनका नियमन ठीक कर पाना मुश्किल है। खासतौर पर वित्तीय शुल्क लगाने के मामले में।
अब जबकि लाटविया से लेकर भारत तक तथा अन्य जगहों पर भी उद्योग जगत के प्रतिनिधि और नीति निर्माता हल तलाशने में जुटे हुए हैं तो सभी की निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि अंतरराष्ट्रीय दूरसंचार संघ (आईटीयू) इस विषय पर क्या सलाह दे सकता है?
आशा यही है कि तकनीकी रिपोर्ट या दिशानिर्देश जारी किए जाएंगे जो दूरसंचार बनाम ओटीटी की लड़ाई के लिए एक खाका बनेगी। बहरहाल, दूरसंचार कंपनियां जोर दे रही हैं कि बड़े टेक प्लेटफॉर्म नेटवर्क लागत साझा करें लेकिन इस बीच एक भय यह भी है कि कहीं भारत समेत सरकारों द्वारा तय की गई नेट निरपेक्षता की सीमा का उल्लंघन न हो जाए। ओटीटी के समर्थकों का कहना है कि अलग-अलग उपभोक्ताओं के लिए अलग-अलग मूल्य निर्धारण से नेट निरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन होगा। इस परिदृश्य में ओटीटी की पहेली को हल करने की कोशिश में हम शायद नेट निरपेक्षता 2.0 के कथानक की ओर बढ़ सकते हैं।