देश के कई बड़े बंदरगाहों ने चीन से आने वाले माल की मंजूरी रोकने का निर्णय लिया है। इससे उद्योग जगत को माल पहुंचने में अप्रत्याशित देरी होनी तय है। उनके इस कदम से इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को खासतौर पर दिक्कत होगी। इसमें मोबाइल फोन भी शामिल हैं। इस समय देश में चीन के मोबाइल फोन ब्रांड का दबदबा है, हालांकि उनकी असेंबली और अंतिम रूप देने का अधिकांश काम भारत में होने लगा है। परंतु भारतीय ब्रांड भी काफी हद तक चीन से आने वाले कलपुर्जों पर निर्भर हैं या फिर उनमें ऐसे पुर्जे लगे हैं जो चीन से आयात किए जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि हर खेप को खोलकर दोबार देखा जा रहा है। यह एकदम अफसरशाही किस्म की प्रताडऩा है।
परेशान करने वाली बात यह है कि ऐसा तब किया जा रहा है जबकि सीमा शुल्क विभाग और केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर एवं सीमा शुल्क बोर्ड (सीबीआईसी) की ओर से इस विषय में कोई लिखित या मौखिक निर्देश नहीं जारी किया गया है। यह मनमाना कदम है जो जानकारी के मुताबिक कुछ खुफिया सूचनाओं के बाद उठाया गया है। यह कदम आत्मघाती और अतार्किक है। जाहिर है ऐसा करने वाले आर्थिक सिद्धांतों की बुनियादी समझ भी नहीं रखते। उन्हें भारतीय कारोबारी ढांचे की भी समझ नहीं है। विनिर्माण आधारित अर्थव्यवस्था में चीन से होने वाले आयात की बात करें तो चीन के कुल निर्यात का केवल 3 फीसदी भारत आता है। जाहिर है इसे रोकने से चीन की अर्थव्यवस्था को कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इतना ही नहीं चीन को होने वाला भारतीय निर्यात भी हमारे कुल निर्यात का 6 फीसदी है। दूसरे शब्दों में कहें तो चीन के साथ कारोबार भारतीय निर्यातकों के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है, न कि चीन के निर्यातकों के लिए। क्या अघोषित व्यापारिक युद्ध में उलझे अधिकारियों को यह सारी बात पता नहीं होगी? यकीनन निर्णय लेते वक्त ये आंकड़े समुचित अधिकारियों को बताए गए होंगे। अगर ऐसा नहीं किया गया तो यह गलती है। अगर जानकारी होने के बावजूद इन्होंने मंजूरी में देरी होने दी है तो उन्होंने महामारी के कारण पहले से संकट से जूझ रही देश की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई है।
यह बात ध्यान देने लायक है कि एकीकृत आपूर्ति शृंखला वाले विश्व में कई क्षेत्र चीन से कच्चे माल के आयात पर निर्भर हैं। जाहिर है किसी भी भौगोलिक क्षेत्र पर अत्यधिक निर्भरता खतरनाक हो सकती है और पूरी दुनिया के उत्पादक अपनी आपूर्ति शृंखला विविधतापूर्ण करना चाहते हैं। भारतीय उत्पादकों को भी ऐसा ही करना चाहिए। परंतु आ चुके माल की आपूति में अफसरशाही बाधा उत्पन्न करके ऐसा नहीं किया जा सकता। इससे केवल उन निर्माताओं और कंपनियों को परेशानी होगी जिन्हें कच्चे माल की आवश्यकता है। अगर यह रवैया लंबे समय तक कायम रहा तो उन्हें उत्पादन रोकना पड़ेगा। ऐसे समय में जबकि हर कदम आपूर्ति और मांग बढ़ाने पर केंद्रित होना चाहिए उन्हें नुकसान पहुंचाना ठीक नहीं। यह कदम जरूरी तौर तरीकों से एकदम विपरीत है और सरकार के कारोबारी सुगमता बढ़ाने और अर्थव्यवस्था में सुधार लाने के तमाम हालिया दावों के खिलाफ जाता है।
निश्चित तौर पर चीन जिस तरह वैश्विक कारोबारी व्यवस्था में आक्रामकता के साथ अपना वजन बढ़ा रहा है, वैसे में उसके प्रति अविश्वास की तमाम वजह हैं। खासतौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था पर इसका विशेष प्रभाव है। परंतु उसका हल इस बात में निहित है कि भारत अपनी प्रतिस्पर्धा बढ़ाए, अन्य देशों के साथ करीबी कारोबारी रिश्ते बनाए और चुनिंदा आपूर्ति शृंखला में चीन का स्थानापन्न तलाश करे। चीन की चुनौती से निपटने के लिए क्या करना है, इस विषय में अफसरशाहों को बेहतर सलाह दिए जाने की जरूरत है।
