श्रीलंका लगातार एक के बाद दूसरे संकट से जूझ रहा है। अपनी कई समस्याओं के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। परंतु कोविड-19 के प्रभाव तथा रूस-यूक्रेन युद्ध जैसी बाहरी घटनाओं ने भी उसे प्रभावित किया है। एक बात एकदम स्पष्ट है कि जहां भी सत्ता के दो केंद्र रहे हैं, वहां अंत:स्फोट की स्थितियां बनी हैं। चाहे मामला राजनीति का हो या आर्थिक नीति निर्माण का।
हाल के वर्षों में श्रीलंका की मुश्किलों की शुरुआत सन 2014-15 में हुई थी जब प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दलों का एक गठजोड़ तैयार हुआ था। वाम झुकाव वाली श्रीलंका फ्रीडम पार्टी (एसएलएफपी) और मुक्त बाजार समर्थक यूनाइटेड नैशनल पार्टी (यूएनपी) का यह गठजोड़ तैयार करने में पूर्व राष्ट्रपति मैत्रिपाला सिरीसेना और प्रधानमंत्री राणिल विक्रमसिंघे की अहम भूमिका थी। नैशनल यूनिटी फ्रंट (एनयूजी) की पहली सरकार ने महिंदा राजपक्षे की श्रीलंका पीपुल्स पार्टी (एसएलपीपी) की सरकार को पराजित किया था। लेकिन अगले दो ही वर्षों में हालात बदल गए। विवाद और सत्ता को लेकर संघर्ष उस समय चरम पर पहुंच गया जब सिरीसेना ने एक संवैधानिक तख्तापलट के जरिये विक्रमसिंघे को हटा दिया और 2018 में महिंदा राजपक्षे को प्रधानमंत्री बना दिया। इस बीच देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दखल दिया और दिसंबर 2018 में विक्रमसिंघे को बहाल करने का आदेश दिया। अब तक सरकार में सत्ता के दो प्रतिद्वंद्वी केंद्र सामने आ चुके थे। अफसरशाही को भी दो में से किसी एक को चुनने में मुश्किल हो रही थी। श्रीलंका का यह दावा कि वहां सन 2009 से कोई आतंकवादी हमला नहीं हुआ है, 21 अप्रैल, 2019 को गलत साबित हो गया जब ईस्टर के दिन वहां बम विस्फोट हुए। इसके बावजूद सत्ता के शीर्ष पर आपसी लड़ाई ने खत्म होने का नाम नहीं लिया। सिरीसेना ने अपने रक्षा सचिव से कहा कि वह प्रधानमंत्री को राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद (एनएससी) की बैठक में आमंत्रित न करें। राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने बम विस्फोट की घटनाओं को लेकर दो समांतर जांचों के आदेश जारी कर दिए।
श्रीलंका इस समय अर्थव्यवस्था पर कोविड-19 के असर तथा रूस-यूक्रेन युद्ध के प्रभाव के रूप में दोहरे संकट का सामना कर रहा है। विदेशों से कम धन आने तथा पर्यटकों के न आने के कारण विदेशी मुद्रा भंडार न्यूनतम स्तर पर पहुंच चुका है। ये दोनों श्रीलंका के राजस्व के दो प्रमुख स्रोत हैं। उस पर बकाया कर्ज भी बहुत बड़ी मात्रा में है। ऐसी स्थिति में केवल दो ही विकल्प नजर आते हैं: मित्र देशों से मदद की प्रार्थना की जाए या अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के पास जाकर कर्ज चुकानेे तथा अर्थव्यवस्था को स्थिर करने के लिए कर्ज की मांग की जाए।
केंद्रीय बैंक के गवर्नर अजित निवार्ड कबराल ने बार-बार आईएमएफ के पास जाने से इनकार किया है। उन्होंने कैबिनेट की ऐसी सलाह भी ठुकरा दी। वित्त मंत्री बेसिल राजपक्षे ने 2021 का सालाना बजट पेश करते समय भी यह स्वीकार किया कि उनके देश को आईएमएफ के पास जाना पड़ सकता है। कबराल ने जोर देकर कहा कि विदेशी मुद्रा की समस्या अस्थायी हैऔर देश की अर्थव्यवस्था मजबूत स्थिति में है। श्रीलंका के कुलीनों (श्रीलंका एक लोकतांत्रिक समाजवादी गणराज्य है) ने कबराल के पूर्वग्रह को स्पष्ट किया: आईएमएफ के पास जाने का अर्थ होता मुद्रा का अवमूल्यन, ब्याज दरों में इजाफा, सरकारी वाणिज्यिक उपक्रमों का निजीकरण और कर्ज में और डूब जाना।
राष्ट्रपति के छोटे भाई बेसिल राजपक्षे को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उनकी बनायी रणनीतियों पर चलकर ही राजपक्षे सत्ता में वापस लौटे। परंतु वह देश के केंद्रीय बैंक के गवर्नर से सार्वजनिक रूप से असहमत दिखे। जब चीन ने श्रीलंका के लिए दरवाजे बंद कर लिए और वित्त मंत्री को भारत से एक नहीं बल्कि अनेक बार मदद मांगनी पड़ी तब राष्ट्रपति ने दखल दिया। राष्ट्रपति गोटाभाया राजपक्षे ने व्यक्तिगत रूप से दखल दिया और स्पष्ट किया कि मुद्रा का अवमूल्यन करने तथा मदद के लिए अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के पास जाने के बाद कबराल से पद छोडऩे को नहीं कहा गया था।
यदि आर्थिक नीति को लेकर व्यवस्थित ढंग से विचार किया गया होता तो शायद श्रीलंका की आम जनता को इतनी मुश्किलों का सामना न करना पड़ता। कई विपक्षी नेता मानते हैं कि अगर पहले आईएमएफ की मदद ली जाती तो श्रीलंका को 12-12 घंटे की बिजली कटौती और खाने की कमी से बचाया जा सकता था। तब खुद पर गर्व करने वाला यह देश इस कदर शक्तिहीन नहीं महसूस करता।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि श्रीलंका आईएमएफ से कितनी मदद चाहता है। कबराल भी इस वार्ता में शामिल हैं। वह कड़ा मोलतोल करना चाह रहे हैं। उनकी दलील है कि श्रीलंका ने आईएमएफ के पास जाने के पहले अपनी मुद्रा का अवमूल्यन किया और उसने कभी किसी ऋण को चुकाने में चूक नहीं की। उनके मुताबिक यह वित्तीय हालत बेहतर रखने की उनकी देश की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। हकीकत यह है कि श्रीलंका आईएमएफ के पास तब गया है जब वह डिफॉल्ट के कगार पर है। इन हालात में एक भारतीय के रूप में देखा जाए तो भारत के ताजा कदमों से राहत मिलती है। श्रीलंका ने अपने अस्पताल संचालित रखने के लिए भारत से मदद नहीं मांगी। भारत ने मदद की पेशकश की।
भारत सैकड़ो अन्य छोटे-मोटे हस्तक्षेप भी कर सकता है जिनका भारत पर कोई खास बोझ नहीं पड़ेगा। ऐसा करके वह श्रीलंकाई कुलीनों के मन की वह आशंका दूर कर सकता है जिसके तहत वे अपनी सरकार से पूछ रहे हैं कि इसके बदले में क्या दिया जाएगा? भारत इतना अच्छा व्यवहार क्यों कर रहा है? भारत के पास अवसर है कि वह एक मददगार पड़ोसी की भूमिका निभाकर तथा ऐसी समस्याएं सुधारकर उपमहाद्वीप में अपनी छवि सुधार सके जिन्हें पैदा करने में उसकी कोई भूमिका नहीं रही। उसे इस अवसर का पूरा लाभ लेना चाहिए।
