चीन 6 मार्च को श्रीलंका को वित्तीय सहायता एवं ऋण पुनर्गठन का आश्वासन देने वाले द्विपक्षीय ऋणदाताओं की सूची में आखिरी देश के रूप में आखिरकार शामिल हो गया। इसके बाद अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भी कोलंबो को 2.9 अरब डॉलर की राहत राशि पर अंतिम निर्णय लेने पर तैयार हो गया। श्रीलंका आईएमएफ और चीन के साथ बारी-बारी से बातचीत के माध्यम से लगातार तालमेल बैठाने के प्रयास में लगा हुआ है। श्रीलंका से जुड़े घटनाक्रम दक्षिण एशिया में एक बड़े बदलाव की ओर इशारा कर रहे हैं। बेल्ट एवं रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) का हिस्सा रहे दक्षिण एशिया के दो प्रमुख देशों- पाकिस्तान और बांग्लादेश- ने वर्ष 2022 में आईएमएफ से वित्तीय सहायता मांगी थी। यह घटनाक्रम इस बात का संकेत है कि विकासशील देश आईएमएफ और पश्चिमी देशों से सहायता प्राप्त कर अपने आर्थिक हित सुरक्षित एवं स्थिरता बनाए रखना चाहते हैं। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में वे चीन को भी नाराज नहीं करना चाहते हैं।
बदलते वैश्विक समीकरणों में चीन की भू-राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं बढ़ गई हैं। वह बदलते विश्व में अपने लिए अलग स्थान तलाश रहा है और इस प्रक्रिया में ‘ब्रेटन वुड्स सिस्टम’ के साथ उसका टकराव बढ़ता जा रहा है। चीन का यह रवैया आईएमएफ जैसे संस्थानों की बराबरी और उनकी जगह लेने की महत्त्वाकांक्षा का हिस्सा है। 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट और 2013 में बीआरआई की शुरुआत के बाद चीन के वित्तीय संस्थान एवं बैंक रणनीतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण समझे जाने वाले निवेश बड़े स्तर पर करते आए हैं। 2021 तक चीन 1.5 लाख करोड़ डॉलर मूल्य के ऋण आवंटित कर चुका था और इस दृष्टि से वह दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदाता बन गया।
मगर दक्षिण एशिया में हाल में सामने आई आर्थिक तंगहाली चीन से ऋण लेने से जुड़े जोखिमों पर रोशनी डालती है। इस समय श्रीलंका पर चीन का 7 अरब डॉलर से अधिक का ऋण है। श्रीलंका पर फिलवक्त जितना विदेशी कर्ज है उसका यह करीब 20 प्रतिशत है। इस तरह, चीन सबसे बड़ा द्विपक्षीय ऋणदाता बन गया है। पिछले कई वर्षों के दौरान चीन ने दुनिया, खासकर दक्षिण एशिया में कर्ज का एक ऐसा जाल बुना है जिसमें श्रीलंका जैसे देश फंसते जा रहे हैं।
2017 में यह स्पष्ट हो गया था कि श्रीलंका में विदेशी मुद्रा भंडार घटता जा रहा है। इसे देखते हुए बीजिंग ने श्रीलंका का विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ाने के लिए नई वित्तीय सहायता की पेशकश की। श्रीलंका को आईएमएफ की शरण में जाने से रोकना चीन के हित में था। इसका कारण यह था कि अगर श्रीलंका आर्थिक सुधार, ऋण पर नुकसान सहने और ऋण पुनर्गठन के लिए प्रयास करता तो इससे चीन के आर्थिक हित प्रभावित होते।
2022 में श्रीलंका में आर्थिक संकट गहरा गया। कोलंबो ने चीन से 4 अरब डॉलर की सहायता मांगी और ऋण पुनर्गठन करने का आग्रह किया। मगर श्रीलंका के आग्रह को चीन ने गंभीरता से नहीं लिया। सहायता देना तो दूर की बात, चीन ने ऋण भुगतान निलंबित रखने और आर्थिक संकट से निकलने के लिए आईएमएफ से 2.9 अरब डॉलर की सहायता मांगने पर श्रीलंका से अपनी नाखुशी जाहिर कर दी। आईएमएफ ने श्रीलंका से वृहद आर्थिक सुधार करने का आग्रह किया और उसे अपने द्विपक्षीय ऋणदाताओं से ऋण पुनर्गठन का आश्वासन मांगने के लिए कहा। मगर चीन ऋण पुनगर्ठन के लिए तैयार नहीं हुआ जिससे श्रीलंका दो बार आईएमएफ द्वारा तय समय सीमा का पालन नहीं कर पाया। बाद में जब भारत और जापान श्रीलंका को दिए ऋणों के पुनर्गठन के लिए तैयार हुए तो चीन को भी आधे-अधूरे मन से आगे आना पड़ा। चीन का एग्जिम बैंक 4.1 अरब डॉलर ऋण के पुनर्गठन के लिए तैयार हो गया जबकि चाइना डेवलपमेंट बैंक जैसे दूसरे ऋणदाताओं ने अभी तक कोई आश्वासन नहीं दिया है।
पाकिस्तान का संकट भी श्रीलंका से कोई अलग नहीं है। पाकिस्तान ने चीन से 30 अरब डॉलर से अधिक राशि ऋण के रूप में ले रखी है। यह पाकिस्तान पर कुल विदेशी ऋण का 30 प्रतिशत है। पाकिस्तान के लिए चीन सबसे बड़ा ऋणदाता देश है। चीन ने चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में 62 अरब डॉलर से अधिक निवेश किया है। मगर चीन से प्राप्त यह सहायता पाकिस्तान को राजस्व अर्जित करने, आर्थिक सुधारों को बढ़ावा देने या और अधिक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने में विफल रही है। पाकिस्तान चीन से पहले ही काफी कर्ज ले चुका है और वह अब कोई चारा नहीं देख आईएमएफ से सहायता मांग रहा है।
हालांकि 1.1 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता के लिए आईएमएफ से बातचीत होने से संकट थोड़ा टल गया है। पाकिस्तान ने आईएमएफ की शर्त पूरी करने के लिए करों में इजाफा कर दिया है मगर वह अपने ऋण का पुनर्गठन कराने या चीन के साथ दोबारा बातचीत करने में विफल रहा है। चीन तब भी नए ऋणों के साथ पाकिस्तान की मदद कर रहा है। नवंबर 2022 में चीन ने पाकिस्तान को 8.75 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता की पेशकश की थी। इसमें वाणिज्यिक ऋण, मुद्रा की अदला-बदली (करेंसी स्वैप) और मौजूदा ऋणों के नवीकरण (लोन रोलओवर) शामिल थे। पिछले दो महीने में चीन ने आर्थिक सहायता बढ़ा दी है और 2 अरब डॉलर मूल्य के ऋण को नए ऋण में बदल दिया है। ये दीर्घ अवधि में पाकिस्तान में ऋण संकट और बढ़ा देंगे।
इस बीच, आईएमएफ ने बांग्लादेश को भी 4.7 अरब डॉलर की आर्थिक सहायता इस वर्ष मंजूर कर दी है। बांग्लादेश ने पहले से एहतियात बरतते हुए यह मदद मांगी थी। इसका कारण स्पष्ट है क्योंकि विदेशी ऋण बांग्लादेश की आर्थिक वृद्धि के लिए महत्त्वपूर्ण रहे हैं। बांग्लादेश का विदेशी मुद्रा भंडार कम हो रहा था, ऊर्जा की किल्लत थी और घटते घरेलू उत्पादन के साथ निर्यात में कमी जैसी समस्याएं सिर उठा रही थीं। उस पर 72 अरब डॉलर का विदेशी कर्ज है जिसमें से 5 अरब डॉलर रकम चीन से मिली है। चीन से मिला कर्ज बांग्लादेश पर कुल विदेशी कर्ज का 7 प्रतिशत है। हालांकि चीन से मिला कर्ज बहुत अधिक नहीं है मगर बीजिंग बांग्लादेश के ऊर्जा क्षेत्र, भौतिक ढांचे, रेलवे और संपर्क परियोजनाओं में निवेश करता आया है जिसे देखते हुए थोड़ा सतर्क रहने की दरकार है।
बीजिंग की महंगी परियोजनाएं, वाणिज्यिक उधारी, अस्पष्ट बातचीत और ऋण पुनर्गठन में उसकी आनाकानी दक्षिण एशिया के देशों में आर्थिक संकट की आग को हवा दे रही हैं। ऋण संकट से निपटने के लिए चीन नए ऋणों की पेशकश कर रहा है मगर इनसे दक्षिण एशियाई देशों में संरचनात्मक कमजोरी और आर्थिक अस्थिरता और बढ़ती जा रही है। चीन से बेतहाशा उधारी के व्यापक परिणामों की आशंका को देखते हुए पश्चिमी देश और भारत दक्षिण एशियाई देशों को लगातार अति आवश्यक आर्थिक सुधार लागू करने और आईएमएफ से बातचीत करने की सलाह दे रहे हैं। अमेरिका ने पाकिस्तान को चीन पर आवश्यकता से अधिक निर्भरता कम करने को कहा है और भारत ने पेरिस क्लब देशों के साथ श्रीलंका को ऋण पुनर्गठन की सुविधा देने का आश्वासन दिया है।
परंतु तमाम आर्थिक उतार-चढ़ावों के बीच दक्षिण एशियाई देश चीन और पश्चिमी देशों दोनों के साथ मधुर संबंध बनाए रखेंगे। चीन इस क्षेत्र में भारत और उसके सहयोगी देशों का प्रभाव कम करने के लिए श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश को अधिक स्वायत्तता देगा। भारत जैसे देश भी दक्षिण एशिया में चीन का दबदबा कम करने के लिए श्रीलंका और बांग्लादेश आदि को आर्थिक सहायता देने में पीछे नहीं हटेंगे। चीन आर्थिक दृष्टिकोण से मजबूत है। इसलिए उसका सहयोग दक्षिण एशिया में आर्थिक सुधारों के लिए महत्त्वपूर्ण है। आईएमएफ से आर्थिक सहायता पाने में भी कमजोर देशों के लिए चीन का साथ आवश्यक है।
आईएमएफ की शर्तों और सलाह को अक्सर ‘पश्चिमी उपनिवेशवाद’ की चाल के तौर पर देखा जाता है मगर इसके विपरीत आईएमएफ छोटे और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाओं को स्थायित्व देने का प्रयास कर रहा है। दूसरी तरफ, चीन संकीर्ण भू-राजनीतिक उद्देश्यों और कड़ी आर्थिक शर्तों के साथ कमजोर देशों को आर्थिक सहायता दे रहा है। वैश्विक स्तर पर विशेष दर्जा पाने की ललक और भू-राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाओँ ने चीन को ब्रेटन वुड्स प्रणाली को चुनौती देने के लिए उकसाया है मगर कोविड महामारी के बाद की दुनिया में वास्तविकता कुछ अधिक पेचीदा हो गई है। श्रीलंका और पाकिस्तान में पैदा संकट एक विकल्प के रूप में चीन की भूमिका और इस पर निर्भरता के लिए चुकाई जा रही बड़ी कीमत को लेकर सवाल खड़ा कर रहे हैं। चीन से मिलने वाला सहयोग अब रामबाण नहीं रह गया है जैसा कि पहले समझा जा रहा था।
(लेखक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली में क्रमशः उपाध्यक्ष (स्टडीज ऐंड फॉरेन पॉलिसी) और जूनियर फेलो हैं।)