Agriculture क्षेत्र को दो सुधारों की तत्काल आवश्यकता है। इनमें से एक खेती की जोत और दूसरा जमीन के पट्टे को वैध बनाने से संबंधित है है। खेती की जमीन की सीमा तय करने की बात अपनी प्रासंगिकता खो चुकी है क्योंकि अधिकांश बड़ी जोत पहले ही कई पीढ़ियों के बाद छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट चुकी है।
इसके साथ ही भूस्वामियों और पट्टे पर खेती करने वालों के बीच उचित सुरक्षा तय करने के लिए जमीन के पट्टे को कानूनी मान्यता प्रदान करना आवश्यक है।
मालिक और जमीन किराये पर लेने वालों के हितों और अधिकारों का ध्यान रखने और उनकी रक्षा करने वाली सांविधिक व्यवस्था ही भविष्य में जोत में और कमी को रोक सकती है। जबकि पहले ही अधिकांश खेतों की जोत इतनी छोटी हो चुकी है कि वह आर्थिक दृष्टि से अव्यवहार्य हो चली है।
भूस्वामित्व की सीमा तय करने और अतिरिक्त भूमि को भूमिहीन लोगों को आवंटित करने की अवधारणा ने शायद ही कृषि भूमि के समान वितरण के वांछित लक्ष्य को हासिल करने में मदद की हो। ऐसा आंशिक तौर पर इसलिए हुआ कि सीमा तय करने के कानूनों के प्रवर्तन में ढिलाई बरती गई।
इसकी एक वजह यह भी है कि भूस्वामियों ने इससे संबंधित प्रावधानों में मौजूद कमियों का फायदा भी उठाया। अधिकांश राज्यों में इस उपाय को लागू करने के लिए जरूरी राजनीतिक इच्छाशक्ति की भी कमी देखने को मिली। खेती के काम में लाए जा रहे खेतों का आकार अब बहुत छोटा हो गया है और ऐसे में भूस्वामित्व की सीमा तय करने का संदर्भ भी समाप्त हो गया है।
2018-19 के राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के अनुसार दो लाख से भी कम किसान जो ग्रामीण परिवारों का 0.1 फीसदी हैं उनके पास अब 10 हेक्टेयर से अधिक खेत हैं।
जबकि 85 फीसदी से अधिक भारतीय किसान छोटे और सीमांत किसानों की श्रेणी में आते हैं जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम खेत हैं। कृषि जोत का औसत आकार घटकर 1.1 हेक्टेयर रह गया है जो एक आम परिवार को बेहतर जीवन देने के लिए अपर्याप्त है।
अधिकांश छोटे और सीमांत किसानों को अपनी आय बढ़ाने के लिए पट्टे पर जमीन खेती के लिए लेनी होती है। परंतु जमीन पट्टे पर लेने की व्यवस्था को आधिकारिक मान्यता नहीं होने के कारण उन्हें अनौपचारिक रूप से ऐसा करना पड़ता है और यह काम प्राय: अलिखित या मौखिक अनुबंध के आधार पर होता है।
इसे कोई कानूनी समर्थन हासिल नहीं होता है। ऐसी व्यवस्था जमीन के मालिकाने को लेकर कोई दीर्घकालिक सुरक्षा मुहैया नहीं कराती है और ऐसा कोई प्रोत्साहन भी नहीं होता है जो जमीन में सुधार के उपायों मसलन जमीन को समतल करने, ट्यूब वेल स्थापित करने या दिक्कतदेह जमीन में सुधार आदि की प्रेरणा देता हो।
इसके अलावा कई भूस्वामी जिन्होंने तमाम वजहों से खेती बंद कर दी है वे अपने खेतों को इस डर से पट्टे पर नहीं देते कि कहीं उनका मालिकाना हक न छिन जाए। कई राज्यों में ऐसे कानूनी प्रावधान भी हैं जो एक खास अवधि के बाद खेती करने वाले को ही जमीन का स्वामित्व सौंप देते हैं।
इसकी वजह से बहुत बड़ी संख्या में खेती की जमीन बिना इस्तेमाल के यूं ही पड़ी रहती है जबकि उसे किसी को पट्टे पर दिया जा सकता है। इसके अलावा कई छोटे किसान जो दूसरों की जमीन पट्टे पर लेकर अपना खेती का रकबा बड़ा करना चाहते हैं वे भी ऐसा नहीं कर पाते हैं।
जमीन को पट्टे पर देने को वैध बनाना कई और वजहों से आवश्यक है। उदाहरण के लिए यदि ऐसा किया गया तो पट्टे पर जमीन लेकर खेती करने वालों को केंद्र और राज्य सरकारों की विभिन्न किसान कल्याण योजनाओं का लाभ मिल सकेगा। यहां तक कि प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि जिसके तहत किसानों को सालाना 6,000 रुपये की राशि किस्तों में दी जाती है वह भी केवल जमीन के मालिकों के लिए है।
पट्टे पर जमीन लेने वाले भले ही उस खेत पर खेती करते हों लेकिन उन्हें इसका लाभ नहीं मिलता। ज्यादातर अन्य सब्सिडी जो प्रत्यक्ष नकदी हस्तांतरण के रूप में दी जाती हैं वे भी पट्टे पर खेत लेने वालों को नहीं मिलतीं बल्कि खेत मालिक को मिलती हैं।
इसके अलावा मौजूदा भूमि कानूनों की बात करें तो अधिकांश राज्यों में वे बहुत प्रतिबंधात्मक प्रकृति के हैं। उदाहरण के लिए केरल में जमीन को पट्टे पर देने पर लगभग रोक है। कई अन्य राज्यों में केवल चुनिंदा श्रेणियों में लोगों को अपनी जमीन पट्टे पर देने की छूट है। उदाहरण के लिए सैनिक, विधवाएं, दिव्यांग, अल्पवयस्क और जेल में बंद लोग अपनी जमीन पट्टे पर दे सकते हैं।
ऐसे राज्यों में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, ओडिशा, तेलंगाना, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश शामिल हैं। कुछ अन्य राज्यों में मालिकों को पट्टे की अवधि समाप्त होने पर पूरी जमीन वापस नहीं मिलती। कुछ राज्यों ने पट्टे के किराये की सीमा तय कर रखी है जिससे यह प्रक्रिया ही अनाकर्षक हो गई है। ऐसे तमाम प्रतिबंध स्वस्थ भू-पट्टा बाजार के विकास को बाधित करते हैं।
जमीन को पट्टे पर देने की प्रक्रिया को वैध बनाने की जरूरत लंबे समय से समझी जा रही थी। केंद्र सरकार ने राज्यों के सामने एक आदर्श भू पट्टेदारी अधिनियम पेश किया जिसे नीति आयोग द्वारा गठित एक समिति ने 2016 में तैयार किया था। राज्यों को इसी के आधार पर अपने स्थानीय कानूनों में सुधार या बदलाव करना था।
इस मसौदे के माध्यम से भूस्वामियों और पट्टेदारों दोनों के हितों की रक्षा करते हुए ऐसा माहौल तैयार करना था जहां भूमि पट्टेदारी का बेहतर बाजार तैयार हो सके।
इसमें भूमि सुधार के उपायों को प्रोत्साहन देने की बात भी शामिल थी। कोशिश यही थी कि खेतों की जोत को आर्थिक रूप से व्यावहारिक बनाया जाए। बहरहाल, ज्यादा राज्यों ने इस मॉडल को गंभीरता से नहीं लिया। ऐसे में केंद्र सरकार की ओर से नई पहल की आवश्यकता है।