कंपनियों का भौतिक परिसंपत्तियों में निवेश के बजाय वित्तीय निवेश को तरजीह देना चिंता का विषय है। समझा रही हैं आर कविता राव
भारतीय अर्थव्यवस्था को पिछले कुछ वर्षों में कई झटकों का सामना करना पड़ा है। इनमें रणनीतिक और बाहरी दोनों तरह के झटके शामिल हैं। तर्क दिया जाता है कि इनका अर्थव्यवस्था की संरचना और आर्थिक गतिविधियों के स्वरूपों पर असर पड़ा है।
उदाहरण के लिए कहा जाता है कि इन झटकों के कारण असंगठित या अनौपचारिक क्षेत्र पर नकारात्मक असर पड़ा होगा, जिसके कारण औपचारिक क्षेत्र का विस्तार हुआ होगा। अनौपचारिक क्षेत्र में आर्थिक गतिविधियों के स्तर और आकार को मापना इतना चुनौती भरा है कि इस तरह की अवधारणाओं को कसौटी पर कसना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का आधार संशोधित करने के हाल में शुरू किए गए प्रयास और उनकी मदद के लिए किए जा रहे प्राथमिक सर्वेक्षण इस मुद्दे पर कुछ गहन जानकारी दे सकते हैं।
अगर अर्थव्यवस्था के पूरी तरह संगठित या कर चुकाने वाले वर्गों पर ही ध्यान दें तो आयकर रिटर्न से मिली जानकारी अर्थव्यवस्था में नए पनपते कुछ रुझानों की झलक देती है।
एक नया और उभरता हुआ रुझान है परोक्ष आय की हिस्सेदारी बढ़ना। वेतन और कारोबारी आय को प्रत्यक्ष आय की श्रेणी में रखा जाए और दूसरे सभी स्रोतों से हुई आय को परोक्ष आय माना जाए तो देख सकते हैं कि कुल बताई गई आय में परोक्ष आय की हिस्सेदारी कर निर्धारण वर्ष (असेसमेंट इयर) 2023-24 में 24 फीसदी हो गई है।
यह हिस्सेदारी असेसमेंट इयर 2016-17 में 16 फीसदी ही थी। इसमें आवास संपत्ति से हुई आय, दीर्घकालिक और अल्पकालिक पूंजीगत लाभ तथा अन्य स्रोत मसलन ब्याज आय और लाभांश शामिल हैं। दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ में खास तौर पर बेहद तेज इजाफा हुआ और यह 2.36 फीसदी से बढ़कर 8 फीसदी हो गया।
सक्रिय पूंजी बाजारों और जानकारी की सुगम उपलब्धता और निवेश में आसानी के कारण फिनटेक के तेज विकास तथा छोटे निवेश की सुविधा ने निवेशकों की संख्या में बहुत अधिक विस्तार कर दिया है। डीमैट खातों की संख्या में इजाफा और खुदरा निवेश में बढ़ोतरी इसी का नतीजा हैं।
2023-24 की आर्थिक समीक्षा संकेत देती है कि भारतीय शेयर बाजारों में बाजार पूंजीकरण का 15 फीसदी से अधिक हिस्सा खुदरा निवेशकों का ही है, जो प्रत्यक्ष रूप से या सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (एसआईपी) के जरिये परोक्ष रूप से हुआ है।
इसे देखते हुए उम्मीद लगाई जाती होगी कि व्यक्तिगत रिटर्न में आयकर के उद्देश्य से बताई गई आय में भी ऐसा ही बदलाव नजर आएगा। व्यक्तियों के लिए दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ से होने वाली आय की हिस्सेदारी 1.83 फीसदी से बढ़कर 4.08 फीसदी हो गई। सभी प्रकार की परोक्ष आय पर विचार करें तो इस अवधि में यह 14.8 फीसदी से बढ़कर 16.8 फीसदी हो गई।
परोक्ष आय की हिस्सेदारी में तेज इजाफे को समझने के लिए हमें आर्थिक गतिविधियों में योगदान करने वाले दूसरे प्रमुख पक्ष यानी कारपोरेट क्षेत्र पर नजर डालनी होगी। कॉरपोरेट क्षेत्र की बात करें तो वहां परोक्ष आय की हिस्सेदारी कर निर्धारण वर्ष 2016-17 में 16.6 फीसदी ही थी, जो 2023-23 में यह बढ़कर 30.7 फीसदी हो गई। इस तेज इजाफे में दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ तथा अन्य आय वृद्धि का बड़ा योगदान रहा।
कर निर्धारण वर्ष 2016-17 और 2023-24 के बीच कंपनियों के कारोबार से होने वाली आय सालाना 14 फीसदी की औसत दर से बढ़ी किंतु यह दीर्घकालिक पूंजीगत लाभ कर की 35 फीसदी की वृद्धि दर से बहुत कम थी।
कंपनियों के लिए पूंजीगत लाभ और अन्य स्रोतों से आय में वृद्धि इस बात की सूचक हो सकती है कि भौतिक या उत्पादक कहलाने वाले निवेश के बजाय कंपनियां वित्तीय निवेश को वरीयता देने लगी हैं।
इस अवधि में शेयर बाजार मूल्यांकन में सालाना 12 फीसदी से ऊपर की औसत वृद्धि हुई है जबकि आर्थिक झटकों के कारण वस्तुओं और सेवाओं की मांग में कमी आई है। निवेश वरीयता में बदलाव इसके कारण भी हो सकता है। कोविड के बाद के दौर में निजी पूंजीगत व्यय में कम बढ़ोतरी हुई, जो इस नई तस्वीर की चुनौतियां बताती है।
इस उभरती तस्वीर में चिंता का एक विषय यह है कि पूंजी बाजार में लगातार तेजी रहने से क्या अर्थव्यवस्था में वास्तविक निवेश को बढ़ावा नहीं मिल पाएगा? वास्तविक क्षेत्र का निवेश इस बात पर निर्भर करता है कि कम लागत वाले संसाधन यानी बैंक ऋण उपलब्ध हैं या नहीं। बैंकों के जरिये मिलने वाला धन परिवारों की वित्तीय बचत में कमी और बेहतर लोक वित्त प्रबंधन के कारण कम पड़ सकता है। यदि परिवार बैंकिंग प्रणाली को छोड़कर निवेश के दूसरे माध्यमों की ओर लगातार जाते रहे तो समस्या और भी जटिल हो सकती है।
दूसरी ओर वित्तीय निवेश के मुकाबले वास्तविक निवेश पर रिटर्न मिलने में बहुत अधिक समय लग जाता है, इसलिए वास्तविक निवेश पर संभावित रिटर्न ज्यादा भी होना चाहिए। इन दो कारणों से कंपनियां भौतिक निवेश के बजाय वित्तीय निवेश के पाले में जाकर बैठ सकती हैं।
क्या यह चिंता का विषय है? भारतीय अर्थव्यवस्था की मध्यम अवधि की वृद्धि अभी तक सरकार द्वारा होने वाले पूंजी निर्माण के ही सहारे रही है। केंद्र सरकार ने पिछले पांच सालों में पूंजी आवंटन में काफी इजाफा किया है। इस दौरान आवंटन सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 1.6 फीसदी से बढ़कर 3.2 फीसदी हो गया है और अनुमान है कि 2024-25 में यह बढ़कर जीडीपी का 3.85 फीसदी हो जाएगा।
केंद्र सरकार का कर्ज 58.1 फीसदी है, इसलिए राजस्व प्राप्ति का 37 फीसदी से ज्यादा हिस्सा ब्याज चुकाने में ही खर्च हो जाता है। ऐसे में घाटे और ब्याज में कमी को मध्यम अवधि में अहम प्राथमिकता बनाना चाहिए।
अगर वृद्धि की रफ्तार बनाए रखनी है तो निजी निवेश की ओर ध्यान देने की जरूरत है। नीति निर्माताओं को इसकी चिंता करनी चाहिए। यह पूछना तो बनता है कि अगर सब कुछ ठीक ढंग से चल रहा है तो क्या उसमें अड़ंगा डालना जरूरी है?
(लेखिका राष्ट्रीय लोक वित्त एवं नीति संस्थान, नई दिल्ली की निदेशक हैं)