सरकार एक राज्य एक आरआरबी योजना लागू करने के लिए एक अधिसूचना तैयार कर रही है। गोवा में एक भी आरआरबी (ग्रामीण क्षेत्रीय बैंक) नहीं है, इसलिए वहां ऐसा बैंक स्थापित करने पर विचार किया जा सकता है। सरकार के इस कदम से देश में आरआरबी की संख्या 42 से घटकर 28 रह जाएगी। संख्या 28 भी तभी होगी यदि गोवा में आरआरबी शुरू किया जाएगा। तेलंगाना में 1 जनवरी को आंध्र प्रदेश ग्रामीण विकास बैंक की 493 शाखाओं का विलय तेलंगाना ग्रामीण बैक में कर दिया गया, जिससे सरकार की मंशा के मुताबिक संख्या घटकर 42 रह गई। आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल में तीन-तीन आरआरबी हैं। किसी और राज्य में इतने आरआरबी नहीं हैं।
सवाल उठता है कि क्या हमें वाकई आरआरबी की जरूरत है? ग्रामीण भारत में बैंकिंग सेवाओं के विस्तार में इनकी भूमिका पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। इन बैंकों की स्थापना 1975 के अध्यादेश और 1976 के आरआरबी अधिनियम के तहत हुई थी, जिनका मकसद किसानों एवं अन्य ग्रामीणों को कर्ज मुहैया कराना था। अक्टूबर 1975 में पांच आरआरबी की स्थापना हुई थी।
प्रथमा बैंक देश का पहला आरआरबी था, जिसे 5 करोड़ रुपये की अधिकृत पूंजी के साथ सिंडिकेट बैंक ने प्रायोजित किया था। प्रथमा बैंक का मुख्यालय उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद में था। शुरुआती चरण में गोरखपुर क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (भारतीय स्टेट बैंक द्वारा प्रायोजित), हरियाणा क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक (पंजाब नैशनल बैंक द्वारा प्रायोजित), गौर ग्रामीण बैंक और जयपुर-नागौर आंचलिक ग्रामीण बैंक (दोनों यूको बैंक द्वारा प्रायोजित) की स्थापना भी हुई मगर अब इनमें से कोई भी मूल रूप में नहीं बचा है। प्रथमा बैंक का 2019 में मेरठ के सर्व यूपी ग्रामीण बैंक में विलय हो गया और प्रथमा यूपी ग्रामीण बैंक सामने आया। अब पंजाब नैशनल बैंक इसका प्रायोजक है। सरकार को 2009 आते-आते महसूस होने लगा कि आरआरबी को पूंजी की जरूरत है।
एक समिति ने 2011-12 में 82 आरआरबी में 40 को 2,200 करोड़ रुपये पूंजी दिए जाने की सिफारिश की और उन्हें बनाए रखने के लिए सरकारी पूंजी देने का सिलसिला शुरू हो गया। आरआरबी में केंद्र की 50 प्रतिशत हिस्सेदारी होती है और 35 प्रतिशत हिस्सेदारी प्रायोजक बैंक की होती है। बाकी 15 प्रतिशत हिस्सेदारी उस राज्य की होती है, जहां का वह बैंक है। पूंजी देने के साथ ही इस क्षेत्र का पुनर्गठन भी शुरू कर दिया गया। जनवरी 2013 में 25 आरआरबी का आपस में विलय हुआ और 10 नए बैंक बने, जिससे इनकी संख्या कम होकर 67 रह गई। मार्च 2016 तक 10 अन्य आरआरबी का विलय हुआ और अप्रैल 2020 तक यह संख्या कम होकर 43 रह गई। आखिरी विलय जनवरी 2024 में हुआ है। बाकी बचे 42 आरआरबी जमा और कर्ज मिलाकर लगभग 11 लाख करोड़ रुपये संभालते हैं। इनमें करीब 2 लाख कर्मचारी काम करते हैं और पांच आरआरबी नुकसान में चल रहे हैं। कारोबारी लिहाज से बड़ौदा यूपी ग्रामीण बैंक सबसे बड़ा है और कर्नाटक ग्रामीण बैंक सबसे अधिक मुनाफे में चल रहा है।
ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग की जरूरत पूरी करने में आरआरबी की अहम भूमिका रही है मगर देश की तेजी से बदलती वित्तीय व्यवस्था में वे पीछे छूट चुके हैं। 31 मार्च 2023 में 18.5 लाख बैंकिंग कॉरेस्पॉन्डेंट ग्रामीण घरों तक बैंकिंग सेवाएं पहुंचा रहे थे। इनके अलावा सूक्ष्म वित्त संस्थान, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (एनबीएफसी) और फिनटेक इकाइयां भी विकल्प बन गई हैं। तकनीक ने कर्ज पाने और रकम जमा करने की राह में मौजूद बाधाएं खत्म कर दी हैं। इस मालम में ज्यादातर आरआरबी पिछड़ जाते हैं। कुछ आरआरबी की गैर-निष्पादित आस्तियां (एनपीए) ज्यादा बड़ी चिंता हैं। मार्च 2024 तक उनका सकल एनपीए अनुपात 6.1 प्रतिशत था, जबकि सितंबर 2024 में समूचे बैंकिंग उद्योग के लिए यह अनुपात केवल 2.6 प्रतिशत था। 2019-20 में 5.9 प्रतिशत रहने वाला उनका सकल एनपीए 2023-24 में घटकर 2.4 प्रतिशत रह गया। लेकिन सितंबर 2024 में समूचे बैंकिंग उद्योग का शुद्ध एनपीए 0.6 प्रतिशत ही था।
मार्च 2024 तक कम से कम 11 आरआरबी का शुद्ध एनपीए 5 प्रतिशत से अधिक था। आरआरबी से जारी करीब 90 प्रतिशत कर्ज ऐसा है, जिसे चुकाने के लिए नया कर्ज दे दिया जाता है और इस तरह कर्ज की ‘एवरग्रीनिंग’ चलती रहती है। इससे कई आरआरबी की मुनाफा कमाने की क्षमता पर सवाल खड़े होने लगे हैं। आरआरबी का लागत-आय अनुपात 68 प्रतिशत है, जो बैंकिंग उद्योग के 43 प्रतिशत से बहुत अधिक होने के कारण चिंता पैदा करता है। अधिक एनपीए और परिचालन व्यय भी आरआरबी के मुनाफे पर असर डाल रहे हैं। पूंजी की ज्यादा चिंता नहीं है क्योंकि सरकार ने वित्त वर्ष 2021 और 2023 के बीच इन बैंकों में 10,890 करोड़ रुपये डाले हैं। राज्य सरकारें और प्रायोजक बैंक भी पूंजी देते रहे हैं। मगर मुनाफा नहीं हुआ तो यह सिलसिला कब तक चल पाएगा?
बैंकिंग क्षेत्र की तुलना में आरआरबी में ऋण आवंटन की रफ्तार भी सुस्त है। बैंकिंग उद्योग की तुलना में उनका ऋण-जमा अनुपात भी कम है। यह अनुपात बताता है कि जमा के जरिये हासिल रकम का कर्ज देने में कितने कारगर तरीके से इस्तेमाल हो रहा है। हालांकि 2023-24 में आरआरबी ने 7,571 करोड़ रुपये का शुद्ध मुनाफा हासिल किया था मगर परिसंपत्ति पर औसत प्रतिफल (आरओए) केवल 0.7 प्रतिशत था, जो वाणिज्यिक बैंकों के मुकाबले आधा ही था। आरओए बताता है कि कोई इकाई कितना मुनाफा कमा पा रही है। आरआरबी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह बैंकिंग जगत में तकनीकी प्रगति के साथ कमदताल नहीं मिला पा रहे हैं। डिजिटल बैंकिंग में उनका मामूली निवेश उन्हें होड़ में पीछे खींच रहा है क्योंकि ग्रामीण क्षेत्रों में भी अब लोग मोबाइल बैंकिंग, डिजिटल बैंकिंग और रकम भेजने की अधिक कारगर प्रणाली इस्तेमाल कर रहे हैं। निजी और सरकारी बैंक बिजनेस कॉरेस्पॉन्डेंट और किफायती तकनीकी साधनों से गांवों में पैठ बढ़ा रहे हैं, जो आरआरबी के लिए सिरदर्द बन रहा है।
संचालन से जुड़ी दिक्कतें हालात को और पेचीदा बना रही हैं। सहकारी बैंकों की तरह ही आरआरबी को स्थानीय राजनीतिक हस्तक्षेप से जूझना पड़ता है। कई मौकों पर आरआरबी कर्मचारी और स्थानीय राजनीतिक दलों में तनातनी देखी गई है। इससे उनके लिए सही फैसले लेना मुश्किल होता है और कर्ज वसूलना मुश्किल हो जाता है। आरआरबी के कर्मचारी की तनख्वाह एवं पेंशन सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के बराबर ही होती हैं मगर बैंकिंग कामकाज संभालने में वे उतने माहिर नहीं होते।
एक राज्य एक आरआरबी योजना के बजाय सरकार आरआरबी का उनके प्रायोजक बैंक में ही विलय कर सकती थी। इससे आरआरबी के कर्मचारी प्रवर्तक बैंकों का हिस्सा बन जाते, जहां उन्हें ग्रामीण बैंकिंग का बेहतर प्रशिक्षण मिल सकता था। मगर ऐसा करना आसान नहीं होता। इसमें एक समस्या यह भी है कि आरआरबी की सेवा शर्तों के मुताबिक कर्मचारी का तबादला किसी अन्य राज्य में नहीं किया जा सकता।
(लेखक जन स्मॉल फाइनैंस बैंक लिमिटेड में वरिष्ठ सलाहकार हैं)