राहुल गांधी का एक आदिवासी गांव में खुले आंगन में चारपाई पर रात बिताना।
उनकी बहन प्रियंका का ऐसी शख्स से मिलने के लिए तमिलनाडु की जेल में जाना जो उनके पिता की निर्मम हत्या की साजिश में शामिल रही है, प्रियंका के भाई का अपने हफ्ते भर के मार्च के आखिरी दौर में किसी असली कार्यकर्ता की तरह झांसी के कमिशनर निवास के बाहर यह कहते हुए धरने पर बैठ जाना कि उनके जिले में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ठीक से काम नहीं कर रही है….
ये तीन अलग-अलग शख्स, तीन केंद्रीय मंत्री, तीन मुख्यमंत्री या तीन विधायक हो सकते थे। पर इन लोगों के बारे में ऐसा नहीं सुना गया है। सिवा उन एक मुख्यमंत्री को जो साइकिल से अपने कार्यालय जाते थे और दूसरे वे जिनका परिवार अब भी साइकिल रिक्शा से यात्रा करता है, सत्ता का आमतौर पर मतलब होता है, जनता से दूरी।
राजपरिवार के लोग या कहें कि सत्ता से जुड़े लोग, ये आम जनता से तभी जुड़ते हैं, जब वे हाशिए पर चले जाते हैं। राणा प्रताप के ऐसे कई किस्से हैं कि जब वह मेवाड़ के जंगल या रेगिस्तान में भटक रहे थे तो उनको एक भील आदिवासी महिला ने बाजरे की रोटी खिलाई। नामी-गिरामी राजाओं के निर्वासन में घूमने के किस्से भी कई हैं।
अब जरा यहां देखें। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद कृषि भवन में ओपन हाउस यानी खुला संवाद आयोजित करते हैं। इस भवन में उनका मंत्रालय है। स्वागत कक्ष के रजिस्टर पर कोई भी अपना नाम लिखकर उनसे मिलने जा सकता है।
केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह, जिन्होंने हाल में राहुल गांधी को संभावित प्रधानमंत्री बताने के बयान का समर्थन किया था, किले जैसी सुरक्षा वाले बंगले में रहते हैं जिसमें कई तरह के घेरे हैं और जहां आम आदमी तो क्या पत्रकारों के लिए भी घुसना मुश्किल है। वह शिक्षा मंत्री हैं।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामदास जब समय देते हैं तो पूरी बात सुनते हैं, हालांकि वह इतने व्यस्त रहते हैं कि उनसे समय मिल पाना ही टेढ़ी खीर है। यह अलग बात है कि इस व्यस्तता में भी उनके पास किसी ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्र को देखने जाने की फुरसत नहीं होती। यह बताने के लिए वाराणसी में किसी के दफ्तर तक मार्च करने की जरूरत नहीं है कि ज्यादातर महिलाओं को जननी सुरक्षा योजना के तहत प्रसव के बाद कोई भत्ता नहीं दिया जाता।
दरअसल, सत्ता में बैठे ज्यादातर लोगों के लिए यह बात सच है। और अगर गांधी परिवार की बात की जाए तो सुरक्षा संबंधी खास जरूरतों और लगभग शाहाना हैसियत के चलते उसके लिए यह बात दोगुनी सच है। पर इससे भी ज्यादा दयनीय बात यह है कि ऐसे विविध विकास कार्यक्रम शुरू करने कोई फायदा तब तक नहीं है जब तक कि उन्हें लागू करने में किसी की दिलचस्पी न हो।
अगर वर्तमान दौर के सभी निर्वाचित मुखिया हरेक कार्यक्रम की जिम्मेदारी लें तो ये कार्यक्रम महज कागजी नहीं रहेंगे। अगर इनमें से कुछ आंगनवाड़ियों, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों, प्राइमरी स्कूलों का दौरा करें या छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित गांवों के जंगलों में आदिवासियों के साथ कुछ रात गुजारें तो स्कूल ज्यादा अच्छे से चलेंगे और लोगों की प्रतिक्रिया के आधार पर योजनाओं में भी फेरबदल किया जा सकेगा।
जिस देश में राजनीति सत्ता हथियाने का रास्ता बन गई हो और जो देश की सचाई से दूर अपने तक सिमटी हो, वहां यह एक दिलचस्प बात है कि राहुल गांधी, जो सुरक्षा और संरक्षा के घेरे में बड़े हुए हैं, की पूछ बढ़ गई है और कार्यकर्ताओं से लेकर नागरिक समाज समूह उनकी मांग कर रहे हैं ताकि उनकी बात भी सुनी जाए।
देश के सबसे बड़े औद्योगिक हादसे को 25 से ज्यादा साल हो गए हैं और गैस पीड़ित बरसों से न्याय का इंतजार कर रहे हैं। अब उन्हें भी राहुल गांधी ही ऐसे शख्स के रुप में दिखाई देते हैं जो सत्ता के गलियारों तक उनकी आवाज पहुंचा सकते हैं।
60 हजार करोड़ रुपए की कर्जमाफी की घोषणा से दूर रखे गए विदर्भ के किसानों को भी अपनी आवाज उठाने के लिए राहुल गांधी ही नजर आए। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से जुड़े कार्यकर्ताओं को भी योजना से जुड़े मसलों के लिए राहुल गांधी से संपर्क करना आसान लग रहा है।
आदिवासियों, दलितों और किसानों से राहुल गांधी का मुलाकात करना चुनावी साल में मतदाताओं को लुभाने की उनकी राजनीतिक रणनीति भी हो सकती है या फिर लोगों और उनकी समस्याओं को समझने की जायज कोशिश भी हो सकती है।
जो भी हो, उनका इस तरह लोगों से मिलना खुद उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं और विरोधियों के लिए एक सबक हो सकता है। बताने की जरूरत नहीं कि उन नौकरशाहों के लिए भी यह एक नजीर बन सकता है जो जनता के लिए क्या अच्छा है की धारणा के आधार पर नीतियों का मसौदा तो बनाते हैं, मगर उनके लिए अपने दरवाजे बंद रखते हैं।