महाराष्ट्र की राजनीति में आए नाटकीय मोड़ से उपजे सवालों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है: नैतिक, राजनीतिक और वैचारिक। हमें पहले नैतिकता के सवालों से निपटना चाहिए और सबसे अंत में वैचारिक प्रश्नों से। नैतिकता का प्रश्न सबसे कम समय और शब्द खर्च करेगा और वैचारिकता के सवाल सबसे अधिक। महाराष्ट्र में विधायकों की बगावत से जुड़े नैतिकता के प्रश्न का उत्तर आसान है। महा विकास आघाडी सरकार का जन्म खुद बहुत नैतिक परिस्थितियों में नहीं हुआ था। शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा)- कांग्रेस के खिलाफ चुनाव लड़ा था। चुनाव के बाद शिवेसना ने इन दलों से हाथ मिला लिया। वह भी उतनी ही अनैतिक राजनीति थी जितनी इस सरकार का गिरना। राजनीति में नैतिकता की तलाश केवल नौसिखिया करते हैं। राजनीति की बात करें तो सत्ता हासिल करना एक बात है और उसे बरकरार रखना एकदम अलग। शिवसेना ने जबरदस्त राजनीतिक कदम उठाते हुए सत्ता हासिल की थी और यह कदम था भाजपा से अलगाव। इस अलगाव की केवल एक वजह थी और वह यह कि पार्टी मुख्यमंत्री का पद चाहती थी। हालांकि उसके केवल 56 विधायक जीते थे जो भाजपा के 105 विधायकों का करीब आधा थे।
जब भाजपा ने इनकार किया तो उन्होंने पुराने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के साझेदारों का रुख किया। उन्हें उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने में कोई दिक्कत नहीं थी। शिवसेना उन्हें एक अद्भुत तोहफा दे रही थी: हार को जीत में बदलने का तोहफा। उनके पास गंवाने को कुछ नहीं था। उनके पास शरद पवार जैसा जमीनी राजनेता था जो कांग्रेस को इसके लिए राजी कर रहा था। अब अगर हम ढाई वर्ष पीछे जाएं और मीडिया की खबरें खंगालें तो लगभग सभी जानकारों, विश्लेषकों ने कहा था कि यह सरकार अस्थिर रहेगी और ज्यादा दिन नहीं टिकेगी। इनमें से पहली बात गलत साबित हुई। सरकार स्थिर और एकजुट थी। हालांकि इसका कार्यकाल लंबा नहीं रहा। मेरा अनुमान था कि इस तीन पांव वाली सरकार को कभी न कभी कांग्रेस गिराएगी क्योंकि उसके और शिवसेना की हिंदुत्व की राजनीति के बीच मतभेद होना ही है। हालांकि ज्यादातर लोगों का मानना था कि राकांपा सरकार गिरने की वजह बनेगी। किसी ने यह नहीं सोचा था कि सरकार शिवसेना के दो फाड़ होने की वजह से गिरेगी। इसे कैसे समझा जाए? हमारी राजनीति में एक बात व्यापक तौर पर स्वीकार्य है कि सत्ता का गोंद बहुत मजबूत होता है। ऐसे में ठाकरे परिवार पार्टी, सरकार, पुलिस और खुफिया विभाग पर पूरी पकड़ होने के बाद भी कभी यह पता क्यों नहीं लगा पाया कि उसके पैरों तले से जमीन खिसक रही है? अब राजनीतिक हलकों में सबको पता है और भाजपा के अधिवक्ता और सांसद महेश जेठमलानी ने भी कहा कि पार्टी दो वर्ष से अधिक समय से गोपनीय तरीके से एकनाथ शिंदे के संपर्क में थी। अगर ठाकरे परिवार को भनक नहीं लगी तो यह राजनीतिक दृष्टि से बड़ी विफलता थी। एक बेहतरीन कदम आपको सबसे ताकतवर व्यक्ति से सत्ता छीनने में मदद कर सकता है लेकिन उसे बरकरार रखने के लिए निरंतर समझदारी और चतुराई की जरूरत पड़ती है। ठाकरे परिवार इस मोर्चे पर नाकाम रहा।
अब बात आती है विचारधारा की। शिंदे और उनके लोग कहते हैं कि उन्होंने वैचारिक शुद्धता के लिए बगावत की। ठाकरे परिवार वैचारिक धोखा कर रहा था। इसका मतलब यह है कि उनके मुताबिक वे खुद को भाजपा के अधिक करीब पाते हैं। इससे दो प्रश्न और पैदा होते हैं। पहला, 2019 में अलग होने से पहले भाजपा और शिवसेना में निर्विवाद वैचारिक एकता थी और दूसरा, शिवसेना की विचारधारा है क्या? पहले सवाल का जवाब आसान है। नवंबर 2012 में बालासाहेब ठाकरे के निधन और नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय स्तर पर उभार के एक दशक बाद उद्धव चिंतित थे कि उनका वैचारिक आधार भाजपा के हाथों में जा रहा है। वह शायद विशुद्ध महाराष्ट्रवाद से हिंदुत्व की दिशा लेकर भटकाव का शिकार हो रहे थे। जब तक शिवसेना मराठी माणुस की राजनीति कर रही थी तब तक किसी ने यहां तक कि मोदी ने भी उन्हें चुनौती नहीं दी। उन्हें तो वैसे भी राष्ट्रीय नेता बनना था। परंतु हिंदुत्व के मोर्चे पर मोदी शिवसेना की तुलना में अधिक विश्वसनीय नजर आते थे। वह सही थे। एक के बाद एक चुनावों ने दिखाया कि हिंदू वोट शिवसेना से भाजपा की ओर जा रहे हैं। महाराष्ट्र में भाजपा की शुरुआत शिवसेना के छोटे सहयोगी के रूप में हुई थी लेकिन 2019 के चुनाव में उसने शिवसेना से लगभग दोगुनी सीट हासिल कीं। उद्धव को चेतावनी मिल गई। उन्होंने इसे पलटने का प्रयास किया लेकिन देर हो चुकी थी। गहन हिंदुत्व की दिशा में बढ़ने के बजाय उन्होंने सत्ता हासिल करने और धर्मनिरपेक्ष खेमे में जाने का तय किया। इस बात ने उन्हें हिंदुत्व से और दूर कर दिया।
यहां दूसरा प्रश्न आता है कि शिवसेना की विचारधारा क्या है? हम कह सकते हैं कि यह एक चरमपंथी जातीय और माफ न करने वाले हिंदुत्व का मिश्रण है। इनमें से पहला हिस्सा गैर मराठी संकेत बोर्डों को बिगाड़ने जैसी मूर्खतापूर्ण हरकतों से लेकर बुदि्धजीवियों पर हमला करना तक शामिल था। दूसरी बात का उदाहरण है जरूरत पड़ने और अवसर आने पर कठोर हिंदुत्व का अनुसरण, मसलन 1992-93 के दंगों के दौर में। परंतु बालासाहेब तो आतंकविरोधी कानून के तहत घातक हथियारों के साथ पकड़े गए संजय दत्त का भी समर्थन कर सकते थे। बालासाहेब कुछ भी कर सकते थे। कई बार वह कुछ ही घंटों में विपरीत पक्ष ले लेते थे। परंतु वह नहीं चाहते थे कि कोई ठाकरे औपचारिक रूप से सत्ता संभाले और इसकी एक वजह थी। वह न तो राजा बनना चाहते थे और न ही किंगमेकर। वह एक डॉन थे और नेपोलियन की तरह मानते थे कि सिंहासन तो बस एक फर्नीचर का टुकड़ा है जो गैर जरूरी रूप से महंगा है। सन 2001 में एक शनिवार की देर रात मेरा फोन बजा और फोन करने वाले ने कहा कि बालासाहेब बात करना चाहते हैं। मुझे तुरंत याद आया कि उसी दिन सुबह मेरा स्तंभ आया था जिसमें मैंने उन्हें माफिओसो (माफिया समूह) कहा था। मैं लानतें सुनने के लिए खुद को तैयार कर रहा था लेकिन इसके बजाय उन्होंने कहा, ‘तमाम लोग मुझे गालियां देते हैं और उनमें तुम सबसे दिलचस्प ढंग से लिखते हो।’ उन्होंने आगे कहा कि मैं राजदीप सरदेसाई से एकदम अलग लिखता हूं। मैं मानता हूं कि वह राजदीप को फोन करके मेरे बारे में इससे भी बुरी बात कह सकते थे। मैंने कहा कि अगर उन्हें मेरा लिखा इतना ही अच्छा लगता है तो वह मेरे लिए क्या कर सकते हैं? उन्होंने मुझे मुंबई में रात्रिभोज पर आमंत्रित किया और मुझसे पूछा कि क्या मैं अपनी पत्नी को भी साथ लाऊंगा, क्या हम मांस खाते हैं या वाइन पीते हैं। मैंने सभी सवालों का जवाब हां में दिया। इस पर उन्होंने कहा, ‘लेकिन याद रखना मैं केवल व्हाइट वाइन पीता और पिलाता हूं। रेड वाइन दिल के लिए अच्छी होती है और तुम जानते हो कि मेरे पास दिल नहीं है।’
हमने मातोश्री में रात का खाना खाया। उस दिन सुरेश प्रभु (वाजपेयी सरकार में उनकी पार्टी के मंत्री ) के बारे में बात हुई कि वह कितने अक्षम या प्रवंचक हैं, कि वह पार्टी के लिए पैसा जुटाने में अक्षमता जताते रहते हैं। वहां कोई पाखंड नहीं दिख रहा था। उनके दो पोते वहीं खेल रहे थे। मेरा मानना है कि उनमें से एक आदित्य ठाकरे भी थे जिन्होंने डब्ल्यूडब्ल्यूएफ के गंजे पहलवान की टी शर्ट पहन रखी थी। बालासाहेब ने उनसे कहा, ‘अरे, तुम प्रीतीश नंदी की शर्ट क्यों पहने हुए हो?’ मैंने उनसे पूछा कि अपनी ही पार्टी के सांसद प्रीतीश नंदी के बारे में वह ऐसा कैसे कह सकते हैं। बालासाहेब ने कहा, ‘यही तो दिक्कत है। उन्होंने मुझसे राज्य सभा की सीट ले ली लेकिन कभी यह नहीं बताया कि वह ईसाई हैं। वरना मैं उसे कभी यह सीट नहीं देता।’ इन बातों का कुछ हिस्सा 2007 में एनडीटीवी के कार्यक्रम वॉक द टॉक के लिए रिकॉर्ड की गई बातचीत में दर्ज हुआ। उनके 80वें जन्मदिन के मौके पर हुई उस बातचीत में एक तस्वीर खींची गई जो मेरे पास धरोहर है। हम दोनों के हाथों में व्हाइट वाइन है और दीवार पर एक बाघ और माइकल जैक्सन की तस्वीर है। मैं बातचीत को दोबारा पैसे और राजनीति की ओर लाया। उन्होंने कहा कि उन्होंने प्रमोद महाजन से शिकायत की है कि प्रभु पार्टी के लिए पैसे नहीं कमा रहे हैं। उन्होंने बताया कि महाजन ने कहा कि अगर कोई मंत्री कह रहा है कि पैसे बनाना संभव नहीं है तो वह या तो झूठा है या अक्षम। उनमें जरा भी हिचक नहीं थी। वह सत्ता के मुद्रीकरण की कला से परिचित थे।
यही शिवसेना की सच्ची विचारधारा थी- जबरन वसूली नहीं लेकिन सुरक्षा के बदले पैसा। मुख्यमंत्री बनकर उद्धव ने अपनी पार्टी को इससे दूर कर दिया। आप सत्ता संभालते हुए इतना बड़ा निजी कार्यक्रम नहीं चला सकते। शिंदे के शिवसैनिकों की शिकायत में शायद ‘विचारधारा’ की क्षति की शिकायत भी शामिल हो।