महामारी के बाद अर्थव्यवस्था का आकलन करते हुए गत माह अपने आलेख में मैंने अनुमान लगाया था कि उच्च आय वाले लॉकडाउन से ऊंची वित्तीय बचत के साथ निकलेंगे और कम आय वालों का कर्ज बढ़ जाएगा। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को हुए नुकसान में कॉर्पोरेट नुकसान के कम योग को देखते हुए यह भी दलील सामने आई कि बैंकों का फंसा हुआ कर्ज आशंका से कम होगा।
गत माह जारी आंकड़े इन आकलनों का समर्थन करते हैं। उच्च आय वाले परिवारों के पास खर्च का अवसर था इसलिए उन पर निर्भर श्रेणियों में सबसे पहले सुधार आया। उदाहरण के लिए महंगी कार निर्माताओं के लिए अक्टूबर का महीना अच्छा रहा। बड़े शहरों में आवासीय अचल संपत्ति बाजार की हालत सुधरी है। महंगे टेलीविजन, फ्रिज और फोन की बिक्री भी बढ़ी। कारों की बिक्री भी दोपहिया वाहनों से बेहतर रही। कारोबार में सुधार के बीच वित्तीय कंपनियों की कर संग्रह क्षमता 95 फीसदी का स्तर पार कर गई है और कई श्रेणियों में यह कोविड से पहले के स्तर पर है। कुछ बैंक उपभोक्ता ऋण में जोखिम की कमी से आश्वस्त हो गए हैं और दोबारा ऋण दे रहे हैं।
बहरहाल, उच्च आय वर्ग की खपत में सुधार से आर्थिक गतिविधियां बहाल होने के बावजूद अर्थव्यवस्था को जो नुकसान पहुंचा है वह साफ नजर आ रहा है। मसलन अक्टूबर में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत काम की मांग मजबूत रही। यह जून से कम जरूर है लेकिन अभी भी गत वर्ष अक्टूबर से अधिक है। पिछले वर्ष अक्टूबर की तुलना में इस वर्ष अक्टूबर में 80 लाख अधिक लोगों ने काम की मांग की जबकि जून में यह तादाद 2.6 करोड़ थी। यह मानने की पर्याप्त वजह है कि मनरेगा में जो भी अतिरिक्त मांग उत्पन्न हुई है उसके पीछे लोगों का काम छूटना और प्रवासी श्रमिकों का गांवों में लौटना वजह है। हालांकि इसका उलटा सच नहीं है। ग्रामीण इलाकों में कई लोग काम न होने के बावजूद शायद 202 रुपये रोजाना पर काम करना न चाहें। शहरी बेरोजगार ये काम नहीं करते। व्यापक संकेतक के अभाव में शहरी क्षेत्र के संकट के लिए अखबारों में छपी खबरों पर यकीन करना होगा। समाचार पत्र इंडियन एक्सप्रेस में गत सप्ताह प्रकाशित खबर में कहा गया कि उत्तरी मुंबई के कांदीवली इलाके में 300 परिवारों ने अपने गहने गिरवी रखकर 70 लाख रुपये का ऋण महामारी में लिया।
निराशा का एक और संकेत वर्ष 2020 के सालाना शिक्षा सर्वेक्षण रिपोर्ट से निकलता है। इसके मुताबिक सन 2018 के पिछले सर्वे के मुकाबले निजी विद्यालयों में इस वर्ष नामांकन में कमी आई जबकि सरकारी विद्यालयों में नामांकन बढ़ा है। नामांकन नहीं कराने वाले बच्चों की तादाद 4 फीसदी से बढ़कर 5.5 फीसदी हो गई है। इससे पता चलता है कि स्कूल जाने की उम्र के बच्चों के माता-पिता की आय प्रभावित हुई है। इससे शिक्षकों तथा स्कूलों से जुड़ी अन्य गतिविधियों से जुड़े लोगों की आय पर नकारात्मक असर पडऩे की बात भी सामने आई है। सन 2019 में कुल खपत में शिक्षा की हिस्सेदारी 5 फीसदी थी। इससे तमाम संगठित-असंगठित रोजगार भी जुड़े थे।
दूसरी ओर भारत आने वाले विदेशी यात्री जीडीपी के एक फीसदी के बराबर राशि व्यय करते हैं। देश के बाहरी खातों के नजरिये से देखें तो विदेश जाने वाले भारतीय पर्यटकों के वहां खर्च करने के कारण मामला बराबर हो जाता है। हालांकि यह बात रोजगार और आय पर लागू नहीं होती। जो परिवार विदेश हनीं जा सकते वे अपनी बचत चीजों पर खर्च कर सकते हैं। अक्टूबर महीने मे पेट्रोल और डीजल की मांग में इजाफा भी कमजोर रहा और विमान ईंधन की मांग आधी रह गई।
गतिविधियों पर प्रतिबंध लगातार कम किए जा रहे हैं और कुछ राज्यों में तो विद्यालय भी खोल दिए गए हैं। परंतु हालात सामान्य होने में समय लगेगा।
अमीरों के व्यय शुरू करने के साथ ही कर राजस्व की संभावना में भी सुधार आ रहा है। अगस्त में केंद्र सरकार का सकल कर संग्रह गत वर्ष अगस्त से दो फीसदी अधिक था। जबकि सितंबर पिछले वर्ष की समान अवधि की तुलना में 13 फीसदी की गिरावट आई। सारी गिरावट कॉर्पोरेट कर में रही क्योंकि वह 38 फीसदी कम हुआ। सितंबर में अन्य करों का प्रदर्शन अच्छा रहा। व्यक्तिगत आय कर में भी सुधार हुआ।
ऐसे में भविष्य बेहतर नजर आ रहा है। वस्तु एवं सेवा कर संग्रह में गत माह 10 फीसदी की वृद्धि अक्टूबर में खातों में नजर आएगी। संभव है कि जब कंपनियों ने अग्रिम कर भुगतान के लिए अपनी साल भर की कर जवाबदेही का आकलन 15 सितंबर की समय सीमा के लिए किया हो तो आकलन मौजूदा की तुलना में अधिक निराशावादी रहा हो। वह समायोजन दिसंबर के अग्रिम कर भुगतान में नजर आएगा। आयकर फाइलिंग की समय सीमा दिसंबर के अंत तक टाला गया है, यानी दिसंबर में उसमें भी इजाफा हो सकता है। उत्पाद शुल्क संग्रह में भी इजाफा हो रहा है क्योंकि प्रति लीटर पेट्रोल और डीजल लगभग दोगुना हो गया है। अक्टूबर में इनकी बिक्री भी बढ़ी है।
कर प्राप्तियों में राहत से सरकार को व्यय बढ़ाने में मदद मिलेगी क्योंकि हम मजबूत छमाही की ओर बढ़ रहे हैं। प्राप्तियों में सुधार के बावजूद सितंबर में केंद्र ने कम व्यय किया जो समझ से परे है।
देश के पास राजकोषीय गुंजाइश नहीं होने की दलील दिन पर दिन कमजोर पड़ रही है। ऐसा लगता है कि असली चुनौती है शहरी गरीबों, असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों और छोटे असंगठित उपक्रमों तक बिना किसी चूक या लीकेज के फंड पहुंचाना।
खबरों के मुताबिक सरकार शहरी रोजगार गारंटी योजना पर काम कर रही है। ऐसे में सवाल उठे हैं कि यदि इसमें वेतन मनरेगा से अधिक हुआ तो प्रवास की समस्या का क्या होगा? क्या शहर इन नए प्रवासियों के लिए तैयार हैं?
महामारी ने भारत समेत दुनिया भर में सरकारों की क्षमता प्रभावित की है। साथ संकट से उबरने के लिए कई बड़ी बदलावपरक योजनाएं भी सामने आई हैं। मौजूदा कमियों को दूर करते हुए यह याद रखना होगा कि वाहनों की बिक्री जैसे संकेतक उच्च आय वर्ग की ओर झुकाव रखते हैं। समेकित मांग को अभी भी तेजी चाहिए। अर्थव्यवस्था की स्थिति सुधारने के लिए भुगतान संतुलन अधिशेष की खपत और बुनियादी निवेश में सुधार करना आवश्यक है। इतना ही नहीं वित्तीय क्षेत्र की बाधाएं भी महामारी के पहले बाधा रही हैं। अगली कुछ तिमाहियों में वे फिर सामने आ सकती हैं। उन्हें हल करना आवश्यक है।
