राज्य सभा से सेवानिवृत्त होने वाले पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह शायद इतिहास के सबसे सफल टेक्नोक्रेट हो सकते हैं। टेक्नोक्रेट ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो तकनीकी रूप से दक्ष होता है और सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करता है। ऐसे कम ही लोग हैं जिन्हें उनकी विशेषज्ञता के आधार पर नेतृत्वकारी पद मिला हो और जिनके कद और प्रभाव की तुलना डॉ. सिंह के दीर्घकालिक करियर से की जा सकती है। उनकी सेवानिवृत्ति हमें यह याद दिलाती है कि टेक्नोक्रेट्स और सिद्धांतवादियों का दौर खत्म हो गया है। उनका स्थान लोकलुभावन नेताओं और परियोजना प्रबंधकों ने ले लिया है।
सन 1990 और 2000 के दशक दुनिया भर में टेक्नोक्रेट्स के लिए स्वर्णिम दौर थे। सरकार (केवल भारत में नहीं) आपके दृष्टिकोण पर निर्भर रहती थी जो या तो राजनीति से इतर होता था या फिर अत्यधिक राजनीतिक। एक ओर इस बात को लेकर व्यापक सहमति थी कि वृद्धि, विकास और बेहतरी के लिए आर्थिक और सामाजिक कल्याण योजनाओं का अनुसरण किया जाना चाहिए।
इसका अर्थ यह हुआ कि राजनीतिक प्रभाव से इस हद तक दूर रहना ताकि तीक्ष्ण नीतिगत अंतर पार्टीगत राजनीति की बात न रह पाएं। दूसरी ओर पहचान आधारित राजनीति में इजाफा होने का अर्थ है सरकार के घटक का और अधिक राजनीतिक होना। दुनिया के कुछ हिस्सों में इसकी वजह से अंदरूनी पार्टीगत राजनीति में उथलपुथल देखने को मिली। भारत में यह गठबंधनों की मदद से अभिव्यक्त हुआ। प्रशासनिक क्षेत्र में किसे क्या मिला यह राजनीतिक का मुख्य लक्ष्य बन गया। ऐसे में इस दृष्टि से देखा जाए तो सरकार अधिक राजनीतिक हो गई।
इन दोनों विरोधाभासी रुझानों ने टेक्नोक्रेट्स को एक खास जगह मुहैया कराई। नीतिगत चयनों को अराजनीतिक करने का मतलब यह हुआ कि राजनीतिक चर्चा इस बात पर केंद्रित हो गई कि सर्वसम्मति को कितनी कुशलता से लागू और क्रियान्वित किया जाता है।
टेक्नोक्रेट्स ने नीति निर्माण की कड़ी मेहनत की जरूरत को समाप्त करने का वादा किया जिससे राजनेताओं को यह सुविधा मिल सकी कि वे पहचान के संघर्ष पर ध्यान केंद्रित कर सकें। इस बीच पहचान के उन संघर्षों की मौजूदगी का मतलब था टेक्नोक्रेट्स एक और उपयोगी उद्देश्य की पूर्ति कर सकें: वे राष्ट्रीय महत्त्व की खास भूमिकाओं और पदों पर बैठ सकते हैं जिन्हें राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के लिए ऑफ लिमिट के रूप में चिह्नित किया जा सकता है।
मनमोहन सिंह एक हद तक इन दोनों रुझानों के लाभार्थी थे। सन 1991 के संकट के समय भी वह वित्त मंत्री के पद की पहली पसंद नहीं थे। पहली पसंद शायद आईजी पटेल थे लेकिन अगर हम पलट कर देखें तो इस बात में कोई संदेह नहीं कि जब इतना बड़ा संकट सामने था तो वित्त मंत्री किसी अर्थशास्त्री को ही होना था। इसके अलावा इस बात पर भी एक आम सहमति थी कि आखिर क्या किया जाना है।
तत्कालीन प्रधानमंत्री के शब्दों में, ‘अन्य सभी उपायों के बारे में समाचार पत्रों में अनगिनत बार लिखा जा चुका है। उन पर महीनों-महीनों तक चर्चा चलती रही और जब हमने पद संभाला तो कागजात तैयार थे।’ जरूरत थी तो एक टेक्नोक्रेट की जिसे सुधारों के उद्देश्य की समझ हो और यह पता हो कि इन्हें कैसे अंजाम दिया जाएगा।
डॉ. सिंह इस पर खरे थे। साल 2004 में जब वह प्रधानमंत्री बने तो गठबंधन युग का दूसरा पक्ष सामने आया। एक वफादार टेक्नोक्रेट को चुनकर कांग्रेस अध्यक्ष ने यह स्पष्ट कर दिया कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री का पद राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का विषय नहीं था बल्कि एक ऐसा पद था जिसमें विशेषज्ञता की आवश्यकता थी। इससे राजनीति का दायरा कम हो गया, खासकर सन 1990 के दशक की अफरातफरी की तुलना में जब हर कोई मानता था कि वह प्रधानमंत्री बन सकता है।
यह अब प्राचीन इतिहास जैसा लगता है, चाहे भारत में हो या कहीं और। पूरी दुनिया में लोकलुभावन नेताओं ने टेक्नोक्रेट्स को अपदस्थ किया है, इसकी शुरुआत तब हुई जब 2010 में ब्रिटेन के साहसी आर्किटेक्ट गॉर्डन ब्राउन को आकर्षक लेकिन नौसिखिये डेविड कैमरन के हाथों हार का सामना करना पड़ा।
टेक्नोक्रेट्स नीति की अपनी समझ के साथ जो विशेषज्ञता लाएंगे, उसे उच्चतम स्तर पर परियोजना प्रबंधकों के पॉवरपॉइंट और बुलेट पॉइंट से बदल दिया गया है जो नीतियों के क्रियान्वयन को अधिक तवज्जो देते हैं। इस सरकार के मंत्रियों में अर्थशास्त्र के विशेषज्ञों के बजाय अफसरशाहों के होने की संभावना अधिक है।
इतिहास में उतार-चढ़ाव आता है। एक संकट के बाद सन 1930 और 1940 के दशक के लोकलुभावनवाद को 1950 और 1960 के दशक में टेक्नोक्रेसी से बदल दिया गया जिसे व्हाइट हाउस में सबसे बेहतर लोगों द्वारा चलाया गया। यूनाइटेड किंगडम में कल्याणकारी द्विपक्षीय सहमति और भारत में महालनोबिस के दौर के बाद भारत में योजना वाली अफसरशाही।
वास्तव में यही वह समय था जब मनमोहन सिंह प्रशिक्षित हुए और अपनी सुपरिचित विनम्रता के बावजूद उनमें उस युग के नीति अर्थशास्त्र विशेषज्ञों की तरह बौद्धिक अहं था। जब वक्त बदलेगा तो लोकलुभावनवाद की जगह एक बार फिर टेक्नोक्रेट का दौर आ जाएगा। उम्मीद करनी चाहिए कि उसके लिए एक और संकट की आवश्यकता न पड़े।