राष्ट्रीय विकास का पैमाना कहलाने वाले शहर बदलते भी रहते हैं। उनका भौतिक, सामाजिक और बौद्धिक बुनियादी ढांचा हर 15 साल में नया रूप ले लेता है। यदि सोल के 1970 और 1985 तथा शांघाई के 2010 और 2025 के दौर की तुलना करें तो दोनों दौर में ये शहर एकदम बदले हुए लगेंगे। वे एकदम अलग शहर प्रतीत होते हैं। यही बात 1995 और 2010 के बीच के दिल्ली पर भी लागू होती है। साल 2010 में जिस दिल्ली ने राष्ट्रमंडल खेलों की मेजबानी की थी, उसकी शक्ल उस दिल्ली से बिल्कुल अलग थी, जहां मैं डेढ़ दशक पहले अपने बचपन में आया था।
राष्ट्रमंडल खेलों के बाद से दिल्ली ठहर सी गई है। इस राज्य में अगले महीने विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं, इसलिए इस बात पर चर्चा लाजिमी है कि पिछले 15 साल किस तरह बरबाद कर दिए गए हैं। प्रगति मैदान की जगह नए परिसर का निर्माण और सेंट्रल विस्टा के नाम पर हुए कुछ बदलावों को छोड़ दें तो बुनियादी ढांचे में ऐसा कोई विकास नहीं हुआ है, जिसका जिक्र किया जा सके। सौंदर्यीकरण के ये काम भी केंद्र सरकार के शीर्ष से आई खास मांगों को पूरा करने के लिए हुए हैं और इनसे आम दिल्ली वालों के लिए राजधानी के मायने और अनुभव शायद ही बदले हैं।
बीते डेढ़ दशक का यह दौर दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी के उभार का दौर रहा है। राष्ट्रमंडल खेलों के समापन के बाद 2011 से 2014 तक दिल्ली में विरोध-प्रदर्शन और आंदोलनों का दौर चलता रहा। इन्हीं में से एक आंदोलन से एक पार्टी का उदय हुआ, जिसे आम आदमी पार्टी (आप) का नाम दिया गया और जो बाद के वर्षों में दिल्ली राज्य की राजनीति पर छा गई।
आप और उसके मुखिया अरविंद केजरीवाल को कुछ सवालों का जवाब अवश्य देना होगा: पिछले दस साल से सत्ता में रहते हुए उन्होंने आम आदमी की जिंदगी में किस तरह का बदलाव किया? इस सवाल का जवाब सत्तारूढ़ पार्टी और उसके मुखिया को बिना किसी लाग-लपेट और आरोप-प्रत्यारोप के देना चाहिए। हां, केंद्र सरकार ने बेशक उनका कामकाज कुछ मुश्किल बनाया मगर ऐसा तो केंद्र ने लगभग हर राज्य की सरकार के साथ किया। इसके बाद भी उनमें से कुछ राज्यों की सरकारें अपने नागरिकों के जीवन स्तर में सुधार करती रहीं। दिल्ली 2010 के बाद से दिल्ली आर्थिक एवं उद्यमशील ऊर्जा का केंद्र रही है और ऐसी ऊर्जा इतिहास में कभी देखी ही नहीं गई। इसी के बल पर दिल्ली ने कई मामलों में मुंबई और बेंगलूरु को भी पीछे छोड़ दिया। लेकिन शहर के ताने-बाने या प्रशासन में यह ऊर्जा किस तरह नजर आती है? यदि इस सवाल का जवाब ‘बिल्कुल नहीं’ है तो आम आदमी पार्टी के होने – न होने से फर्क ही क्या पड़ता है?
सच कहूं तो आम आदमी पार्टी जब पहली बार सत्ता में आई थी तो इसके और पार्टी संयोजक अरविंद केजरीवाल के पास स्थानीय प्रशासन की अलहदा और अनूठी कल्पना थी, जो अनुभवहीन होने बाद भी उसे पुरानी पार्टियों से अलग करती थी। राजनीति में ‘स्वराज’ पर अपनी पुस्तक में केजरीवाल सत्ता के जबरदस्त विकेंद्रीकरण की वकालत करते दिखते हैं। हममें से कुछ लोगों ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से सहमत नहीं होने के बावजूद सोचा कि आप की विचारधारा का यह तत्व दिल्ली से बाहर की कुछ जगहों पर उभरते शहरी मध्य वर्ग को पसंद आ सकता है। स्थानीय जरूरतों के हिसाब से नए स्कूल खोलने का वादा और मोहल्ला क्लिनिक की योजना देखकर लगा कि विकेंद्रीकरण का एजेंडा वास्तव में लागू किया जा रहा है। ठीक तरीके से लागू होने पर इन योजनाओं ने भारतीय शासन के सबसे जमीनी स्तर पर सुधार किया होता और जवाबदेही पैदा की होती क्योंकि देश के प्रशासनिक ढांचे का यही पहलू बाकी सबके मुकाबले हमेशा नाकाम रहा है।
लेकिन इन मोहल्ला क्लिनिकों ने उस तरह का काम नहीं किया, जैसी योजना बनाई गई थी। कई जगह कर्मचारियों की कमी से ताले लग गए हैं तो कई क्लिनिकों में आए दिन दवा और सामान की कमी की शिकायत लगी रहती है। इन क्लिनिकों में कर्मचारियों और आसपास के लोगों के बीच बहस तथा लड़ाई भी देखने को मिली है। स्कूलों में भी उतना सुधार नहीं हुआ है, जितना होना चाहिए था। इधर क्लिनिकों पर ध्यान देने का मतलब यह भी नहीं है कि बड़े अस्पताल बनाए ही नहीं जाएं मगर यहां मोहल्ला क्लिनिक होने का नतीजा ऐसा ही दिख रहा है।
जी20 शिखर सम्मेलन के लिए नए सिरे से सजाई गई मध्य दिल्ली को छोड़ दें तो नई यातायात प्रबंधन प्रणाली से भी कोई फर्क आता नहीं दिखा है। जल निकासी और वायु गुणवत्ता पहले के मुकाबले ज्यादा बिगड़ी है। हवा खराब होने का दोष कुछ हद तक दूसरे राज्यों खास तौर पर पंजाब की सरकार पर डाला जा सकता है मगर जल निकासी दुरुस्त करना तो पूरी तरह दिल्ली सरकार की ही जिम्मेदारी है। आईआईटी दिल्ली ने शहर में जल निकासी व्यवस्था दुरुस्त करने की योजना तैयार की है और उसी के मुताबिक व्यवस्था सही करने की कोशिश की जा रही थी मगर आप सरकार ने उसे बीच में ही छोड़ दिया। इसके बाद उसने नई योजना के साथ निविदा जारी कर दीं। नतीजतन हर साल बारिश के दिनों में शहर को बाढ़ जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है।
दिल्ली में अपने हिस्से का काम करने और उसे चमकाने के बजाय आम आदमी पार्टी खुद को राष्ट्रीय स्तर पर विकल्प बताने और प्रधानमंत्री के सामने मुख्य विपक्षी दल बताने का दम भरने लगी। नई पार्टी होकर भी इस तरह की कोशिश कर आप ने खुद को हंसी का पात्र ही बनाया है।
अंत में सामाजिक नीतियों के आधार पर भी इस सरकार का बचाव नहीं किया जा सकता। हम यह भी नहीं कह सकते कि इस सरकार के पास दिल्ली को उदार, समावेशी और बहु सांस्कृतिक माहौला वाला विश्वस्तरीय शहर बनाने का नजरिया है। इस दल के एक लोक सभा उम्मीदवार ने अपना नाम भी कथित रूप से इसीलिए बदल लिया क्योंकि वह नाम कुछ ज्यादा ही ‘ईसाई’ लगता था। उस पार्टी से और क्या उम्मीद की जा सकती है, जिसके एक वरिष्ठ नेता ने कभी दिल्ली में अफ्रीकी नागरिकों पर छापे मारे हों?
आप वैसे ही पूरी तरह नाकाम साबित हुई है, जैसे भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन हुआ था। पिछले 15 साल में दिल्ली में थोड़ा ही बदलाव दिखा है और यह शहर शायद ज्यादा बुरी स्थिति में पहुंच गया है। दिल्ली देश की राजधानी है और आने वाले वर्षों में इसकी व्यवस्था दुरुस्त करने के लिए आम आदमी पार्टी के पास क्या ठोस योजना है? इस सवाल का जवाब अगर उसके पास नहीं है तो समझ नहीं आता कि लोग उसे दोबारा क्यों चुनेंगे।