भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम (विलय, अधिग्रहण या समेकन आदि) के संबंध में हाल में एक नया परिपत्र जारी किया है। इस परिपत्र का उद्देश्य पारदर्शिता लाना और कंपनियों की तरफ से दी जाने वाली सूचनाओं की समयसीमा में अपेक्षित सुधार करना है। उद्घोषणा संबंधी ये अनिवार्यताएं सार्वजनिक शेयरधारकों के समझौतों पर भी लागू होंगी, वहीं सूचीबद्ध इकाई के प्रबंधन एवं नियंत्रण को प्रभावित करने वाले परिवार के स्तर पर किए गए समझौते भी इसकी जद में लाए गए हैं। इस अधिसूचना में यह भी कहा गया है कि 1 अक्टूबर, 2023 से भारत की शीर्ष 100 सूचीबद्ध कंपनियों को बाजार में चल रहे कयासों पर स्टॉक एक्सचेंजों को स्थिति स्पष्ट करनी होगी।
सूचीबद्धता संबंधी सेबी के दिशानिर्देशों में नियम 30 के अनुसार कंपनियों को विलय, अधिग्रहण आदि के संबंध में जानकारी देने को कहा गया है। इसे ध्यान में रखते हुए इन घटनाओं को विलय, अधिग्रहण आदि (मटेरियल ईवेंट्स) के रूप में श्रेणीबद्ध किया गया है। विलय, अधिग्रहण आदि के संबंध में (एलओडीआर 2015 के पैरा ए के अंतर्गत) जानकारियां देनी होंगी।
बाजार में व्यवहारों में असमानता को देखते हुए सेबी ने व्यापक चर्चा के बाद पैरा ‘ए’ में घटनाक्रम अद्यतन किए हैं। इसमें यह भी स्पष्ट किया गया कि कम से कम किस तरह की जानकारियां अनिवार्य रूप से देनी होंगी। इसे लेकर भी निर्देश दिए गए हैं कि कौन सी गतिविधि कब घटित हुई है या इसका समय क्या रहा होगा।
इसके अलावा वित्तीय आंकड़े का आकार (कमाई का 2 प्रतिशत, शुद्ध हैसियत का 2 प्रतिशत और करोपरांत मुनाफे के तीन साल के औसत का 5 प्रतिशत) निर्धारित करने के लिए न्यूनतम सीमा भी तय की गई है। अब सेबी चाहता है कि कंपनियां शेयरधारक समझौते, संयुक्त उद्यम समझौते और किसी सूचीबद्ध इकाई के प्रबंधन एवं नियंत्रण को प्रभावित करने वाले समझौते भी सार्वजनिक करें। पारदर्शिता बढ़ाने के उपाय के खिलाफ तो कोई तर्क नहीं दिया जा सकता है।
आखिरकार, नॉन-कंपीट क्लॉज से जुड़े परिवार के स्तर पर हुए समझौतों के प्रावधान सीधे तौर पर सार्वजनिक शेयरधारकों को प्रभावित करते हैं। सिरिल श्रॉफ ने भी इस समाचार पत्र में प्रकाशित अपने आलेख में मजबूत तर्क दिए हैं कि कंपनी संचालन मजबूत बनाने के लिए सेबी की तरफ से किए गए संशोधन सार्वजनिक उद्घोषणा एवं निजता के बीच आपसी संयोजन में सामंजस्य बैठाने में विफल रहे हैं।
कंपनियों ने परिवार में आंतरिक स्तर पर हुए समझौते भी सार्वजनिक करने शुरू कर दिए हैं, मगर सेबी की अधिसूचना जारी किए जाने के कुछ ही हफ्तों में कंपनियां जिस तरह ये जानकारियां दे रही हैं उनमें काफी भिन्नता देखी जा सकती है।
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मौजूदा उद्घोषणाएं केवल उन कंपनियों की तरफ से आ रही हैं जहां प्रवर्तक असहज स्थिति में हैं। किर्लोस्कर ब्रदर्स ने समझौते के दो मसौदे जारी किए हैं जिनमें एक सितंबर/अक्टूबर, 2009 और दूसरा अक्टूबर 1947 का है। दूसरी तरफ टी डी पावर सिस्टम्स का मानना है कि चूंकि, इसका शेयरधारक समझौता कंपनी के पब्लिक लिमिटेड कंपनी में परिवर्तित होने से पहले जनवरी 2011 में समाप्त हो गया था और मामला विचाराधीन है, इसलिए इसे समझौता सार्वजनिक करने की जरूरत नहीं है।
हिकाल लिमिटेड ने भी कुछ जानकारियां सार्वजनिक की हैं जिन्हें लेकर प्रवर्तकों का मानना है कि ये सार्वजनिक शेयरधारकों के लिए प्रासंगिक हैं। चूंकि, इस मामले में कंपनियां समझौते में पक्षकार नहीं हैं इसलिए वे प्रवर्तकों से प्राप्त होने वाले तथ्यों पर निर्भर रहेंगी। यानी इसका मतलब यह होगा कि जानकारियां पूरी हैं या नहीं यह सुनिश्चित करने का कोई जरिया नहीं है। निवेशकों को निपटान दस्तावेज के एक से अधिक स्वरूपों से निपटने के लिए स्वयं को तैयार रखना चाहिए।
अब बाजार में या मुख्यधारा की मीडिया में लग रहे कयासों की पुष्टि या इनसे इनकार या इन पर स्पष्टीकरण को लेकर कंपनियों के लिए तय की गई शर्तों पर विचार करते हैं। देश की शीर्ष कंपनियों को 1 अक्टूबर, 2023 से और शीर्ष 250 को 1 अप्रैल, 2024 से इस नियम का पालन करना है। मौजूदा दिशानिर्देशों में सूचीबद्ध कंपनियों को स्टॉक एक्सचेंजों को दी गई किसी सूचना या घटना से संबंधित जानकारी की पुष्टि करने या इनकार करने की छूट दी गई है मगर बोर्ड ने जवाब देने या इससे इनकार करने की जरूरत के बीच एक संतुलन स्थापित कर लिया है।
आने वाले समय में कंपनियों को उन घटनाओं या जानकारियों से इनकार करने, उन पर स्पष्टीकरण या उनकी पुष्टि करने से संबंधित उपयुक्त विकल्प का चयन करना होगा जिनका सूचीबद्ध कंपनियों के संचालन पर व्यापक असर हो सकता है। कंपनियों से ‘अपेक्षा की जाती है कि वे यथासंभव इनकी जानकारी दें मगर किसी भी सूरत में घटनाओं के सामने आने या इनकी सूचना दिए जाने के 24 घंटे से पहले कंपनियों को ऐसा करना होगा। अगर सूचीबद्ध इकाई दी गई घटना की जानकारी या किसी सूचना की पुष्टि करती है तो उसे ऐसी घटना या सूचना की वर्तमान स्थिति की भी जानकारी देनी होगी।
वर्तमान परिस्थिति में भी अगर कंपनियां किसी कयास से इनकार नहीं करती है मगर बाद में अपने विचार बदल लेती है तो भी उन्हें कोई नुकसान होता नहीं दिख रहा है। मुझे लगता है कि ब्रिटेन में ‘पुट अप या शट अप’ नियम ही बता सकता है कि यह दिशानिर्देश किसी दिशा में जाएगा, खासकर विलय एवं अधिग्रहण के मामले में जहां यह (दिशानिर्देश) सर्वाधिक प्रासंगिक है।
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ब्रिटेन में ‘पुट अप या शट अप’ नियम कोई गोपनीय सूचना सार्वजनिक होने के बाद प्रभाव में आ जाती है। सूचना बाहर जाने के बाद बोलीदाता से 28 दिनों के भीतर पूर्ण रूप से वित्त पोषित बाध्यकारी पेशकश की घोषणा की अपेक्षा की जाती है। अगर बोलीदाता कहता है कि वह कोई प्रस्ताव नहीं देगा तो इस मामले में यह छह महीने तक स्थगित हो जाएगी। यह सच है कि बोलीदाता चार हफ्तों का अतिरिक्त समय मांग सकता है मगर तब तक परिस्थितियां भी बदल जाती हैं।
मुझे लगता है कि नियम-कायदे स्थापित होने तक कंपनियों और सेबी के बीच मतभेद बना रहेगा। कंपनियों को यह बात समझनी होगी यह प्रक्रिया उनके शीर्ष नेतृत्व एवं बोर्ड का खासा समय लेगी। मसलन, कब कोई सौदा करना जरूरी है, लक्षित कंपनी के शेयर की कीमत पर किसी बयान का क्या असर होगा, इनकार करने की भाषा या यहां तक की सत्यापन, उनके बीच गैर- उद्घोषणा समझौते आदि की अधिक जांच की जरूरत पेश आएगी।
स्पष्ट है कि कंपनियों एवं उनके बोर्ड के लिए जिम्मेदारियां तय हो गई हैं। फिलहाल वे इस बात से जूझ रही हैं कि किस बिंदु से जुड़ी जानकारियां दी जाना चाहिए किया और किन विषयों पर चुप रहा जा सकता है। इसे देखते हुए कंपनियों को यह परखना चाहिए कि किसी घटना या घटनाक्रम की जानकारी अनुचित रूप से निवेशकों की नजर में किसी कंपनी को अधिक या कम मूल्यवान तो नहीं बनाएगी।
(लेखक इंस्टीट्यूशनल इन्वेस्टर एडवाइजरी सर्विसेस इंडिया लिमिटेड से जुड़े हैं। ये उनके निजी विचार हैं)