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Opinion: मॉनसून में हुए बदलाव से निपटने की तैयारी

जलवायु परिवर्तन के साथ सामंजस्य विकसित करने के लिए नीति-निर्धारकों को आवश्यक स्थितियां तैयार करनी चाहिए। बता रहे हैं अजय शाह

Last Updated- September 06, 2023 | 9:09 PM IST
Preparing for a changed monsoon
इलस्ट्रेशन- अजय मोहंती

दक्षिण-पश्चिम मॉनसून जितना पेचीदा है भारत के लिए इसका महत्त्व भी उतना ही है। मगर वैश्विक तापमान बढ़ने के बीच इसके स्वरूप में बदलाव संभव है। मॉनसून की उत्पत्ति का एक हिस्सा तो पूरी तरह स्पष्ट है। जब विश्व में तापमान बढ़ता है तो समुद्र से अधिक मात्रा में जल वाष्प में बदलता है और फिर वर्षा के रूप में धरती को आच्छादित करता है।

सरल शब्दों में कहें तो जब विश्व में औसत तापमान 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ता है तो कुल वैश्विक वर्षा की मात्रा लगभग 7 प्रतिशत बढ़ जाती है। हालांकि, मॉनसून पर वैज्ञानिक जानकारी सीमित है। पहले की तुलना में अधिक गर्म दुनिया में मॉनसून के सामयिक एवं स्थानिक स्वरूप की जानकारी फिलहाल उपलब्ध नहीं है।

जब वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी नहीं हुई थी तो उस समय मॉनसून में हरेक साल असमानता देखी जाती थी। इस प्रक्रिया के पर्यवेक्षक के रूप में सामान्य और बड़े बदलावों की धारणा बनाने के बीच अंतर करने में हमें सावधान रहना होगा। किसी एक दिन हमेशा बारिश केवल मौसम से जुड़ा विषय है, न कि जलवायु से जुड़ा विषय। मगर एक लंबी अवधि के दौरान एक सतर्क दिमाग अथवा औपचारिक सांख्यिकी तकनीक कुछ बड़े बदलाव ला सकती है।

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बड़े-बुजुर्ग अपने समय में देखे गए मॉनसून की चाल की तुलना जब वर्तमान समय में करते हैं तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अब काफी कुछ बदल गया है। हम किस तरह के बदलाव देख रहे हैं? ऐसा प्रतीत होता है कि मॉनसून के सामयिक स्वरूप में कुछ खास बदलाव सामने आए है। पहली बात, मॉनसून आने में देरी हो रही है। दूसरी बात लंबे समय तक बारिश नहीं होती है और फिर बीच में अल्प अवधि में अतिवृष्टि होती है। ये घटनाक्रम बार-बार बाढ़ एवं सूखा पड़ने जैसी घटनाओं का कारण बन रहे हैं।

ये बदलाव कृषि क्षेत्र के लिए मुश्किलें पैदा कर रहे हैं। अगर मॉनसून के बादल केवल देर से आते हैं तो बोआई का समय आगे खिसका कर समाधान खोजा सकता है। मगर उस स्थिति में फसल के लिए तापमान सामान्य से थोड़ा अलग हो सकता है। अधिक दिनों तक वर्षा नहीं होने से वर्षा आधारित कृषि कार्य प्रभावित होते हैं, वहीं कई दिनों तक अतिवृष्टि से भी पौधों को नुकसान पहुंच सकता है।

कुछ समय तक तो कृषक परिवार मुश्किल दौर झेल सकते हैं मगर ये बदलाव इनमें कई परिवारों की आय पर असर डाल सकते हैं। खाद्य सुरक्षा पर विचार करने के लिए इन समस्याओं का आकलन बेहद जरूरी है। एक दूसरी समस्या मॉनसून के स्थानिक स्वरूप में बदलाव से जुड़ा है। इस बात के कुछ शुरुआती संकेत मिलने लगे हैं कि औसत वर्षा कुछ क्षेत्रों (ऊपरी हिमालय एवं प्रायद्वीपीय भारत) में अधिक और कुछ क्षेत्रों (पश्चिमी घाट, सिंधु-गंगा के मैदानी भाग, मध्य भारत के कुछ हिस्से) में कम होने लगी है।

किसान परिवारों के लिए इन बदलावों के बड़े परिणाम नजर आ रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में जनसंख्या घनत्व की वर्तमान संरचना और कृषि कार्य मॉनसून के पुराने स्वरूप पर आधारित हैं। तेजी से बदलती दुनिया में पुरानी विधियों के साथ आगे बढ़ना विपन्नता ही बढ़ाएगा।

कृषि कार्यों में काफी बदलाव लाने की आवश्यकता महसूस हो रही है। पुरानी पद्धति के लाभ कम होंगे और बदलती परिस्थितियों में श्रेष्ठ परिचालन के लिए नए तरीकों की आवश्यकता होगी। कुछ लोग सरकार से बड़े कदम उठाए जाने की मांग कर सकते हैं जिनके तहत कृषि कार्यों के तरीके सरकारी वैज्ञानिकों द्वारा तैयार किए जाते हैं।

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ये तरीके कृषि क्षेत्र से संबंधित सरकारी संस्थाओं के जरिये आगे बढ़ाया जाते हैं और सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) किसानों के सभी कृषि उत्पाद खरीद लेती है। एक अधिक संतुलित दृष्टिकोण अपनाएं तो देश कृषि एवं इससे संबंधित समस्याओं से निपटने में कमजोर साबित हो सकता है।

प्रत्येक जिले पर नजर रखना, तेजी से बदलते जलवायु को समझना, कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल होने वाली कृषि विधियों में पर्याप्त बदलाव लाना, उद्यमियों तक जानकारी पहुंचाना या कृषि में श्रम की आपूर्ति करना, सोर्सिंग, परिवहन से जुड़ी व्यावसायिक गतिविधियां और विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों की कमी आदि मोर्चों पर सरकार शायद बेहतर परिणाम न ला सके।

पुराने जमाने में कृषि क्षेत्र में अधिक आर्थिक स्वतंत्रता के पक्ष में मजबूत तर्क दिए जाते थे और कच्चे माल, उत्पादन मूल्य, भंडारण, परिवहन एवं अंतरराष्ट्रीय व्यापार में सरकारी हस्तक्षेप कम करने की मांग की जाती थी।

जलवायु परिवर्तन ऐसे कृषि सुधारों से मिलने वाले लाभ को बढ़ा देता है क्योंकि केवल बाजार ही तेज गति से कार्य प्रत्येक जिले में कृषि के लिए तेजी से बदलती संभावनाओं पर विकेंद्रीकृत रूप में समाधान खोज कर ला सकता है। बाजार प्रणाली में उत्पादन एवं मांग से जुड़े तथ्यों का लेखा-जोखा मूल्य के जरिये होता है। मूल्य से जुड़ी सूचना तेजी से सभी जगह प्रसारित की जाती है और प्रत्येक उत्पादक अपने लिए पर्याप्त अवसर खोजने के लिए उपलब्ध दामों पर विचार करता है।

भूमि की वहन क्षमता का निर्धारण सिंचाई, जलाशय और वर्षा आधारित कृषि से तय होता है। जब मॉनसून के स्वरूप में बदलाव आने पर प्रत्येक जिले के लिए संभावनाएं बदल जाएंगी। इससे कृषि भूमि के दाम में एक बड़ा बदलाव आ जाएगा। बड़े स्तर पर पलायन कई क्षेत्रों में अधिक से अधिक होगा मगर जमीन के लेन-देन के लिए सक्षम बाजार की आवश्यकता होगी ताकि पुरानी जगह में जमीन बेचना, नई जगह जाना और जमीन खरीदना आसान हो जाए।

भारत में लोग जलवायु परिवर्तन के कारण कई मायनों में प्रभावित हो रहे हैं। गर्म हवाएं, मॉनसून में बदलाव, समुद्र में जल का बढ़ता स्तर और चक्रवात सभी हमें पहले से अधिक प्रभावित कर रहे हैं। ज्यादातर मामलों में हम यह नहीं समझ पाते कि पूरी व्यवस्था या प्रणाली कैसे बदलेगी। सबसे पहले पर्यवेक्षणशालाएं स्थापित करनी होंगी जहां साक्ष्य एकत्र किए जाएंगे और निगरानी व्यवस्था दुरुस्त की जाएगी।

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वैश्विक तापमान बढ़ने की चुनौती पेश आने पर भारत में विचारक लंबे समय से यह कहकर पल्ला झाड़ते रहे हैं कि यह संकट भारत में पैदा नहीं हुआ है इसलिए हमारे देश को इसका समाधान खोजने के झमेले में नहीं पड़ना चाहिए। यह दृष्टिकोण आंशिक रूप से सही लग सकता है मगर ऐसा सोचना भारत के हित में नहीं है।

जलवायु परिवर्तन का असर भारत में भी काफी देखा जा रहा है, मसलन समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, मॉनसून के स्वरूप में बदलाव आ रहा है, चक्रवात-तूफान और बाढ़ आने की घटनाएं बढ़ गई हैं। इन प्राकृतिक घटनाओं को देखते हुए भारत को जलवायु परिवर्तन से निपटने की मुहिम में सक्रिय भागीदारी निभानी चाहिए और स्थानीय स्तर पर कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन कम करना चाहिए।

मगर श्रीलंका जैसे देश की बात करें तो स्थानीय स्तर पर उत्सर्जन में कमी से वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी रोकने में कोई खास असर नहीं होगा। मगर जहां तक भारत की बात है तो यह कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करने वाला तीसरा सबसे बड़ा देश है।

अगर भारत अपनी विदेश नीति के प्रभाव का इस्तेमाल कर दुनिया में कार्बन उत्सर्जन कम करने पर जोर देता है तो यह बदलाव हानिकारक गैसों का उत्सर्जन रोकने में एक मजबूत वैश्विक गठबंधन तैयार करने में मददगार साबित हो सकता है। ये कदम- भारत में उत्सर्जन कम करना और भारतीय कूटनीतिक शक्ति की मदद से दूसरे देशों को इसके लिए प्रेरित करना- जलवायु परिवर्तन के बीच भारत के लोगों के लिए फायदेमंद हो सकते हैं।

(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)

First Published - September 6, 2023 | 9:09 PM IST

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