किसानों की आय बढ़ाने के दो तरीके हैं। पहला तरीका है उत्पादकता में इजाफा और दूसरा कीमतों में इजाफा। उपभोक्ताओं को नुकसान पहुंचाए बिना कीमतें बढ़ाने का एकमात्र तरीका है खुदरा कीमतों में किसानों की हिस्सेदारी बढ़ाना। इसके तीन तरीके हैं: सरकार न्यूनतम मूल्य गारंटी (खाद्यान्न की तरह) और मूल्य सब्सिडी भी दे, या एक न्यूनतम कीमत (गन्ने की तरह) तय करे जो उपभोक्ताओं (चीनी मिलों) को चुकानी पड़े। तीसरा विकल्प यह कि किसान संगठित होकर सहकारिता अपनाएं, बिचौलियों को दूर करें और कच्चे माल का प्रसंस्करण कर अधिक मूल्य प्राप्त करें। दूध की सहकारिता इसका उदाहरण है। सहकारिता के क्षेत्र में वैश्विक स्तर पर सफल उदाहरण तलाशें तो कैलिफोर्निया के ब्लू डायमंड बादाम और नॉर्वे की सामन मछली का कारोबार हमारे सामने है।
खाद्यान्न सब्सिडी के कारण किसान को वह कीमत मिलनी तय होती है जो खुदरा बाजार मूल्य के लगभग बराबर होता है। गन्ने और दूध के मामले में किसान को करीब 75 फीसदी मूल्य मिलता है। इसकी तुलना में टमाटर, प्याज और आलू उगाने वाले किसान तथा बागवानी करने वाले किसानों को औसतन खुदरा कीमत का 30 प्रतिशत ही मिलता है। इसके बावजूद इनका संयुक्त उपज भार खाद्यान्न से अधिक होता है। इन तीनों उपज में 30 फीसदी के अलावा बाकी हिस्सा बिचौलियों को चला जाता है। यदि प्रत्यक्ष विपणन की व्यवस्था कायम हो जाए तो किसान की हिस्सेदारी बढ़कर 40 प्रतिशत तक हो सकती है। ऐसी फसलें भी हैं जिनके उत्पादकों को खुदरा मूल्य का बमुश्किल 10 प्रतिशत मिलता है। लैटिन अमेरिका में कॉफी और केला इसके उदाहरण हैं। ओ हेनरी ने ‘बनाना रिपब्लिक’ का जुमला वहां के हालात को देखकर ही दिया था।
किसानों को मिलने वाले मूल्य के इस अंतर के कारण उनका झुकाव उन फसलों की ओर हो गया जहां उन्हें अधिक मूल्य मिलता है। गन्ना और धान में मुनाफा होने के कारण पानी की कमी वाले इलाकों में भी किसान इन फसलों की खेती करते हैं। भारत में इन दोनों उपजों और साथ में दूध का भी अधिशेष उत्पादन होता है। फसल के समझदारी भरे चयन के लिए यह जरूरी है कि अन्य फसलों में भी उत्पादक की हिस्सेदारी में सुधार हो। क्या बिना सरकारी सब्सिडी या कीमतों में हस्तक्षेप किए ऐसा किया जा सकता है? हां, यह हो सकता है। भले ही कीमतें दूध या गन्ने के बराबर न हों लेकिन प्रत्यक्ष विपणन से काफी लाभ संभावित है। ऐसे में बहस को राजनेताओं से दूर ले जाना होगा जो या तो नए कृषि विधेयकों की आलोचना करते हैं या उन्हें लग रहा है कि यह सन 1991 के उद्योगों को लाइसेंसमुक्त करने जैसा क्रांतिकारी कदम है। मामला इतना एकतरफा नहीं है।
विनियमित बाजारों का इतिहास ऐसे में ज्ञानवद्र्धक हो सकता है। ऐसा पहला बाजार सन 1897 में कपास के लिए बना ताकि मैनचेस्टर की कपड़ा मिलों को भारत से शुद्ध कॉटन मिल सके। तब से एक सदी बाद तक विनियमित बाजार बढ़कर 8,000 हो गए क्योंकि उनमें मानक वजन, उपज की ग्रेडिंग, पारदर्शी कीमत आदि की व्यवस्था थी। खराब प्रबंधन ने उनकी स्थिति खराब की। इसके अलावा वे निहित स्वार्थ के अधीन हो गए, कीमतों से छेड़छाड़, अतिशय शुल्क और कर तथा छोटे किसानों का शोषण प्रमुख भी होने लगा।
दक्षिण भारत के छोटे कॉफी उत्पादकों को उस समय बेहतर कीमत मिलनी शुरू हुई जब उन्होंने सन 1980 के दशक में कॉफी बोर्ड के शोषण आधारित नियमों के खिलाफ बगावत की। परंतु चाय के केंद्रों की नीलामी की इजाजत समाप्त करने का उल्टा नतीजा निकला। यहां नोबेल विजेता एलिनॉर नॉस्ट्रॉम (जो साझा संसाधनों पर सरकार के बजाय जनता के सामूहिक प्रभार के हिमायती थे) की बात से सबक लिया जा सकता है कि संसाधन व्यवस्था यदि व्यवहार में कारगर है तो सैद्धांतिक रूप से भी कारगर होगी।
सरकार ने सिद्धांत को अपनाया जिसके मुताबिक किसान अपनी उपज को जिसे, जब और जहां चाहे बेच सकता है। परंतु बड़ी खाद्य प्रसंस्करण या खुदरा शृंखलाओं की थोक खरीद के समक्ष छोटा किसान क्या कर सकता है? आजादी का आनंद उनको है जिनके पास बाजार की ताकत है। परंतु क्या आलू किसानों ने कभी पेप्सी की शिकायत की? संतरा उत्पादक संघों ने महामारी के दौरान बिक्री के लिए सफल शृंखला की मदद मांगी। सच तो यह है कि अलग-अलग इलाकों और समय पर फसलें अलग नतीजे देती हैं। ऐसे में कुछ राज्यों में कुछ फसलों के किसान ही विरोध कर रहे हैं अन्य नहीं।
सरकार द्वारा कृषि उत्पादक संघों को प्रेरित करना असल बात है। ताकि वे सही तरीके से और उचित पैमाने पर काम कर सकें। इसके लिए कड़ी मेहनत करनी होगी। उत्पादकता का प्रश्न तो है ही जिस पर कोई बात नहीं कर रहा।
