बैंकिंग तंत्र में उपलब्ध अधिशेष तरलता या नकदी दिसंबर 2024 का दूसरा पखवाड़ा आते-आते रफूचक्कर हो गई और इसमें कमी का सिलसिला शुरू हो गया। 20 जनवरी तक बैंकिंग क्षेत्र में नकदी की कमी बढ़कर 2.36 लाख करोड़ रुपये तक पहुंच गई। भारतीय रिजर्व बैंक के पास सरकार द्वारा जमा की गई भारी भरकम रकम भी कुछ हद तक इस स्थिति के लिए जिम्मेदार थी। शुद्ध अधिशेष टिकाऊ नकदी (दीर्घकालिक नकदी) भी 27 दिसंबर तक कम होकर 64,350 करोड़ रुपये ही रह गई, जो 26 जुलाई को 4.20 लाख करोड़ रुपये थी। विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में रिजर्व बैंक के हस्तक्षेप के कारण बैंकिंग प्रणाली से भी बड़ी मात्रा में रुपया निकल गया। रिजर्व बैंक के पास उपलब्ध विदेशी मुद्रा भंडार में 27 दिसंबर 2024 से 10 जनवरी 2025 के बीच 4 अरब डॉलर की कमी और आ गई। इसलिए टिकाऊ नकदी भी अब तक कमी में तब्दील हो गई होगी।
नकदी में कमी आने की आशंका को रिजर्व बैंक पहले ही भांप गया था, इसीलिए दिसंबर में मौद्रिक नीति समीक्षा के बाद उसने सभी बैंकों के लिए नकद आरक्षी अनुपात (सीआरआर) दो बार 25-25 आधार अंक घटाकर शुद्ध मांग एवं समय देयता (एनटीडीएल) का 4 प्रतिशत कर दिया। रिजर्व बैंक के इस कदम से बैंकिंग प्रणाली में लगभग 1.16 लाख करोड़ रुपये की प्राथमिक नकदी आ गई।
कुछ वित्तीय समाचार पत्रों में छपी खबरों के मुताबिक हाल में हुई एक बैठक के दौरान बैंक अधिकारियों ने रिजर्व बैंक को सुझाव दिया कि सीआरआर में और कटौती करते हुए टिकाऊ नकदी का इंतजाम किया जा सकता है। सीआरआर अब ऐसे गंभीर स्तर पर पहुंच चुका है जहां अतिरिक्त कटौती करने से पहले अत्यंत सावधानी बरते जाने की आवश्यकता है।
अतीत में मौद्रिक प्रबंधन उपाय के रूप में सीआरआर का इस्तेमाल आरक्षित मुद्रा प्रसार सीमित करने के लिए किया जाता था मगर अब इससे दो लक्ष्य साधे जा रहे हैं। पहला, सीआरआर की मदद से रिजर्व बैंक के पास बैंकों के खातों में निपटान रकम (भुगतान देनदारियां पूरी करने में इस्तेमाल होने वाली रकम) में अचानक हुई बढ़ोतरी या निकासी को नियंत्रण में रखकर अल्प अवधि की दरों पर अंकुश लगाए रखने में मदद मिलती है। बैंकों में काम-काज की अवधि समाप्त होने पर सीआरआर का तय स्तर बरकरार रखना अनिवार्य होता है मगर कारोबारी अवधि के बीच बैंक इस रकम का इस्तेमाल निपटान के लिए कर सकते हैं और करते भी हैं। रिजर्व बैंक के पास बैंकों की अनिवार्य रकम जितनी कम रहती है बैंकों के पास ओवरनाइट लिक्विडिटी डेफिसिट का जोखिम उठाए बिना कामकाजी अवधि (इंट्रा-पीरियड) में आरक्षित रकम प्रबंधित करने की गुंजाइश उतनी ही कम होती है। इतना ही नहीं, दिन के अंत में किसी तरह की कमी की भरपाई सीआरआर रकम से की जा सकती है क्योंकि किसी पखवाड़े में सीआरआर का औसत स्तर बरकरार रखना होता है (मगर रोजाना निर्धारित सीआरआर का न्यूनतम 90 प्रतिशत स्तर बनाए रखना भी अनिवार्य है)। इससे ओवरनाइट इंटर-बैंक कॉल मनी रेट पर दबाव कम हो जाता है। ओवरनाइट इंटर बैंक कॉल मनी रेट मौद्रिक नीति का कामकाजी लक्ष्य होता है। अल्प अवधि की ब्याज दरें स्थिर रखने के उद्देश्य से आरक्षित नकदी की जरूरत अनिवार्य तौर पर या स्वैच्छिक तौर पर लागू की जाती है। दुनिया की कई विकसित अर्थव्यवस्थाओं में भी यह व्यवस्था है।
तेजी से उभरते बाजारों में नकद आरक्षी अनुपात की शर्त रखने का एक अन्य महत्त्वपूर्ण कारण बड़े स्तर पर और रकम की अचानक आवक से जुड़ी चिंताओं से निपटना है। हाल के वर्षों में ऐसे दो मौके आए हैं, जब रिजर्व बैंक को वित्तीय बाजार को शांत करने के लिए काफी कम समय में बड़ी मात्रा में नकदी डालनी पड़ी। पहला मौका 2008 में आया, जब उत्तर अटलांटिक वित्तीय संकट पैदा हुआ था। उस समय रिजर्व बैंक ने एनडीटीएल के 15 प्रतिशत से अधिक के बराबर नकदी उपलब्ध कराई थी या इस तरह के उपायों की घोषणा की। इनमें सीआरआर 9 प्रतिशत में 4 प्रतिशत की कटौती भी शामिल थी, जिसके बाद यह 5 प्रतिशत ही रह गया था।
दूसरा मौका कोविड-19 महामारी के दौरान आया था जब रिजर्व बैंक ने 17 लाख करोड़ रुपये से अधिक नकदी (भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 8.7 प्रतिशत के बराबर रकम, जिसमें से 14 लाख करोड़ रुपये से अधिक तो केवल बैंकों के लिए थी) उपलब्ध कराई थी। यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि जून 1973 में जब से सीआरआर में पहली बार संशोधन कर इसे 3 प्रतिशत से बढ़ाकर 5 प्रतिशत किया गया तब से केवल एक अपवाद को छोड़कर इसे एनटीडीएल का 4 प्रतिशत से कम नहीं होने दिया गया। केवल कोविड महामारी के दौरान मार्च 2020 में इसे 100 आधार अंक घटाकर एनटीडीएल का 3 प्रतिशत कर दिया गया। चूंकि सीआरआर पहले ही गंभीर स्तर पर था इसलिए एकबारगी उपाय के तौर पर इसे कम किया गया मगर एक साल के भीतर ही इसे दोबारा 4 प्रतिशत कर दिया गया।
संकट के समय सीआरआर में कमी के जरिये वित्तीय तंत्र में तेजी से और दीर्घकालिक नकदी डाली जा सकती है। सीआरआर में यह स्वतंत्रता और छूट देती है, जो दूसरे उपायों में अक्सर नहीं दिखती है। उदाहरण के लिए खुले बाजार में परिचालन (ओएमओ) के जरिये टिकाऊ नकदी उपलब्ध कराना एक धीमी प्रक्रिया है, जिससे एक बार में बड़ी मात्रा में रकम उपलब्ध कराना मुश्किल हो जाता है। ओएमओ के साथ दूसरी समस्या यह है कि इसमें अधिक सांविधिक तरलता अनुपात (एसएलआर) प्रतिभूतियां रखने वाले बैंक ही भाग ले सकते हैं।
बड़े ओएमओ सरकारी प्रतिभूतियों या बॉन्ड पर यील्ड को नुकसान पहुंचा सकते हैं और ब्याज दर के पूरे ढांचे में भी भारी उथल-पुथल ला सकते हैं। दूसरे उपायों से अलग सीआरआर के माध्यम से टिकाऊ नकदी तेजी से उपलब्ध कराने में रिजर्व बैंक को कामकाज से जुड़ी किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता है। इसका प्रभाव भी सभी बैंकों पर समान रूप से होता है। वास्तव में चालू पखवाड़े में भी सीआरआर में कमी का विकल्प मौजूद रहता है क्योंकि इसकी निर्धारित सीमा एक पखवाड़ा रुककर प्रभाव में आती है। इस वजह से रिजर्व बैंक को वित्तीय प्रणाली में तत्काल नकदी उपलब्ध कराने में आसानी होती है।
फिलहाल सीआरआर में और कमी की गुंजाइश दिख रही है और दूसरी बात यह है कि हम किसी संकट से भी नहीं गुजर रहे हैं। इन बातों पर विचार करते हुए सीआरआर 4 प्रतिशत से नीचे करना समझदारी वाला कदम नहीं माना जा सकता। वैसे भी मौजूदा नकदी संकट अस्थायी है, जो समय के साथ दूर हो जाएगा। ऐसे हालात से निपटने के लिए रिजर्व बैंक की नियमित नकदी समायोजन व्यवस्था ही काफी है। अगर दीर्घ अवधि के लिए नकदी डालने की जरूरत पेश आई तब भी दूसरे उपायों पर विचार किया जा सकता है।
(लेखक सेंटर फॉर सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)