अमेरिका ने कुछ बेहद महत्त्वपूर्ण एवं मूल्यवान आर्टिफिशल इंटेलिजेंस (एआई) चिपों के निर्यात पर पाबंदी लगा दी है। अमेरिका की सरकार एआई चिप को रक्षा का उपकरण मानती है और रक्षा क्षेत्र में लगाई गई कई पाबंदियां इस क्षेत्र में भी लागू हो रही हैं। भारत में इन चिपों के प्रयोग को भी पहले के मुकाबले अधिक पाबंदियों का सामना करना पड़ेगा। सॉफ्टवेयर एवं सॉफ्टवेयर से चलने वाली सेवाओं का निर्यात भारत की आर्थिक वृद्धि के लिहाज से काफी अहमियत रखता है मगर देश की आर्थिक रणनीति के नजरिये से इन चिपों पर नई पाबंदियों से कोई बड़ा अंतर आता नहीं दिख रहा है। अगले दशक में सेवाओं का निर्यात बढ़ाकर दोगुना करने की राह एकदम साफ और सामने नजर आ रही है। इस बदले माहौल में भारत में कुछ क्षेत्रों के लिए दिलचस्प नतीजे सामने आ सकते हैं।
सूचना-प्रौद्योगिकी (आईटी) एवं आईटी समर्थित सेवाओं का निर्यात भारतीय अर्थव्यवस्था की बड़ी सफलता और मजबूती रही है। वर्ष 2017-18 से 2023-24 तक वस्तुओं एवं सेवाओं का निर्यात मुद्रास्फीति के प्रति समायोजित डॉलर में प्रति वर्ष 2.8 प्रतिशत दर बढ़ा है और इस दर से हर 25 साल में यह दोगुना हो रहा है। आईटी सेवाओं का निर्यात 9.17 प्रतिशत बढ़ रहा है यानी हर 7.5 साल में दोगुना हो रहा है और ‘अन्य कारोबारी सेवाओं’ का निर्यात 11.68 प्रतिशत बढ़ा है यानी हर 5.8 साल में दोगुना हुआ है। वर्ष 2023-24 में 341 अरब डॉलर की सेवाओं का निर्यात हुआ था। निर्यात इसी रफ्तार से बढ़ा तो अगले एक दशक में दोगुना हो जाएगा!
भारतीय आर्थिक रणनीति के लिए ये तथ्य काफी अहमियत रखते हैं। देश से वस्तु निर्यात कारगर नतीजे नहीं ला पाया है और अब हमें सोचना चाहिए कि आखिर कौन से दूरगामी बदलाव उसमें तेजी वापस लाने में मददगार होंगे। अलबत्ता सेवाओं का निर्यात लगातार मजबूत रहा है। भारतीय आर्थिक गति को तेजी देने के लिए इस क्षेत्र पर लगातार ध्यान देने और अगले एक दशक तक अतिरिक्त 341 अरब डॉलर सालाना निर्यात हासिल करने की जरूरत है।
इसके लिए क्या करना होगा? भारतीय सेवा क्षेत्र में काम करने वाले पेशेवर उन वैश्विक कंपनियों के लिए काम कर रहे हैं, जिनके मुख्यालय अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों में हैं। यह कुछ हद तक ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर (भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) के जरिये और कुछ हद तक भारतीय सेवा फर्मों के सथ स्वतंत्र समझौते के जरिये किया जा रहा है। इसे कैसे जारी रखा जाए, यह भारतीय आर्थिक नीति के लिए पहेली है।
अमेरिक द्वारा लगाई जा रही पाबंदियां वैश्विक तकनीकी युद्धों और तीसरे वैश्वीकरण का हिस्सा हैं, जिनका मकसद चीन को एआई तकनीक से यथासंभव दूर रखना है। ये पाबंदियां भारत से सेवाओं के निर्यात और निर्यात में वृद्धि की राह में बाधा नहीं डालती हैं। असल में तो जेपी मॉर्गन जैसी खरीदार को सोचना है कि अमेरिका जैसे देशों में अपने डेटा सेंटरों को उसे कैसे चालू रखना है। इसके बाद भारत के मेधावी लोग (भारत में जे पी मॉर्गन के कर्मचारी या इन्फोसिस जैसी भारतीय कंपनियों के कर्मचारी) इन वैश्विक प्रणालियों के साथ जुड़ जाएंगे और पेचीदा मगर अच्छी तनख्वाह वाले काम करेंगे।
कुछ लोग एआई तकनीक में भारत के वैश्विक नेतृत्व से काफी उत्साहित हैं। सच्चाई यह है कि सुंदर पिचाई और सत्य नडेला जैसे लोगों का भारतीय मूल देखकर हमें इस भुलावे में नहीं आ जाना चाहिए कि भारतीय कंपनियां या भारतीय विश्वविद्यालय वैश्विक एआई नवाचार में होड़ कर सकते हैं। एआई क्षेत्र में भारत की दावेदारी से जुड़ी कुछ बातें तो बढ़ा-चढ़ा कर पेश की गई हैं। भारत जैसे देश में हमें खोखले गौरव के बजाय आर्थिक वृद्धि और गरीब देश में संपन्नता का स्तर बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
मिसाल के तौर पर थोड़ी देर के लिए सोचते हैं कि भारतीय सॉफ्टवेयर सेवाओं का निर्यात 30 वर्षों में सालाना 163 अरब डॉलर तक कैसे पहुंचा। यह मुकाम हार्डवेयर (इंटेल सीपीयू), ऑपरेटिंग सिस्टम (यूनिक्स) या बुनियादी सॉफ्टवेयर (डेटाबेस) में भारत के नाम मात्र के योगदान के बिना भी हासिल कर लिया गया। इन सभी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर का विकास पश्चिमी देशों में ही हुआ। विदेश में तकनीक के विकास से भारत को बहुत लाभ हुए, जिनमें ट्रांजिस्टर से लेकर यूनिक्स और इंटरनेट तक शामिल रहे हैं। पश्चिमी देशों की कंपनियों ने अमेरिका में निर्यात पाबंदियों से जूझते हुए भी भारतीय सेवाओं की निर्यात क्रांति के लिए तकनीक, पूंजी और बाजार मुहैया कराए हैं। भारत सरकार ने नियम-कायदे (उदाहरण के तौर पर दूरसंचार एवं पूंजी प्रवाह) आसान बनाए, कम किए और देश में उच्च गुणवत्ता वाले ज्ञान को बढ़ावा दिया। भारत सरकार ने किसी भी कंपनी को सीपीयू नहीं दिए गए। ये नीतियां ही सॉफ्टवेयर निर्यात में अगली मर्तबा फिर दोगुनी रफ्तार हासिल करने में कारगर होंगी।
अब निर्यात से ध्यान हटाकर यह समझने की कोशिश करते हैं कि भारतीय कंपनियों को देसी एआई ऐप्लिकेशन के मामले में किस तरह की दिक्कतों का सामना करना होगा? तीन रास्ते नजर आ रहे हैं: पहला, भारतीय कंपनियां पहले की तरह ही विदेश में काम कर रहे क्लाउड वेंडरों से सर्वर किराये पर ले सकती हैं। दूसरा, हरेक भारतीय कंपनी साल में 1700 से कम एनवीडिया एच100 चिप (कीमत करीब 25,000 डॉलर) का आयात कर सकती है क्योंकि इतने आयात पर कोई पाबंदी नहीं है। इससे भारत में लगभग हर किसी की जरूरतें पूरी हो जाएंगी। तीसरा, ‘इनफरेंस’ (नए डेटा के आधार पर सटीक अंदाजा लगाने की एआई मॉडल की क्षमता) की जरूरत वाले एआई ऐप्लिकेशन एनडवीडिया 20 जैसे सस्ते चिपों के जरिये अपना काम कर सकते हैं। इन चिपों की भारत द्वारा खरीदारी पर कोई पाबंदी नहीं है।
ये पाबंदी डेटा केंद्रों के लिए हैं, जिनका इस्तेमाल एआई मॉडलों के प्रशिक्षण में किया जाएगा। लेकिन इसमें भारत की मौजूदगी नहीं के बराबर है। टाटा कम्युनिकेशंस, एलऐंडटी जैसी बड़ी भारतीय कंपनियां ई2ई नेटवर्क्स, योटा, कंट्रोलएस (सीटीआरएलएस) और जियो के साथ मिलकर बड़े डेटा केंद्र तैयार कर रही हैं। ये सभी कंपनियां कुल मिलाकर 1 लाख चिप सालाना ही आयात कर सकती हैं, जो 2027 में बढ़कर 3.20 लाख चिप सालाना हो जाएंगी। मौजूदा इस्तेमाल को देखते हुए यह बहुत अधिक हैं। इसे समझने के लिए अमेरिका में परमाणु विकास के लिए इस्तेमाल होने वाले सबसे बड़े कंप्यूटर का उदाहरण देख सकते हैं, जिसमें 50,000 चिप लगे हैं।
जिन कंपनियों को हर साल 1700 से ज्यादा चिप चाहिए, उन्हें ‘नैशनल वेरिफाइड एंड यूजर (एनव्यू) ऑथराइजेशन’ की जरूरत होगी। अमेरिका भारत में होने वाली घटनाओं से सशंकित रहा है। मसलन उस कंपनी के बारे में आई खबरें, जिसने मलेशिया से 1100 एनवीडिया चिप का आयात किया और उन्हें 30 करोड़ डॉलर में रूस को निर्यात कर दिया। भारत सरकार अगर रूस, चीन और ईरान को इस तरह की उच्च तकनीक का अवैध निर्यात रोकने के लिए कदम उठाती है तो अधिक से अधिक भारतीय कंपनियों को एनव्यू दर्जा हासिल करने में मदद मिलेगी।
अमेरिका जैसे देशों में मुख्यालय वाली कंपनियां ‘यूनिवर्सल वेरिफाइड एंड यूजर’ अधिकार हासिल करेंगी तो अधिक एआई तकनीक भारत में आएंगी। मगर इसके लिए उन्हें अमेरिका की सरकार के समक्ष यह साबित करना होगा कि भारत में अपने उपकरणों की सुरक्षा के लिए उनके पास पर्याप्त इंतजाम है। यह प्रक्रिया पूरी होने के बाद दुनिया में उनके कुल चिपों में से 7 प्रतिशत तक भारत में आ सकते हैं। शीर्ष वैश्विक कंपनियां हर साल 1 लाख से अधिक चिप जोड़ रही हैं, जिससे हर कंपनी के लिए भारत में हर साल 7,000 चिप (और साथ में तकनीकी ज्ञान भी) लाने का रास्ता साफ हो जाएगा। शीर्ष वैश्विक कंपनियों के पास कई देशों के विकल्प हैं, जहां वे अपने उपकरण रख सकती हैं। इसे देखते हुए भारत सरकार को इन कंपनियों से विनम्रता के साथ अनुरोध करना होगा कि वे ज्यादा से ज्यादा उपकरण भारत में ही रखें।