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चुनाव सर्वेक्षणों की नई पद्धति ‘पड़ोसी प्रभाव’

जोमैटो और स्पॉटिफाई वास्तव में आपकी खानपान और संगीत संबंधी रुचि के बारे आपसे कहीं अधिक जानते हैं। यही बात राजनीति के मामले में लागू होती है।

Last Updated- November 24, 2024 | 9:31 PM IST
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अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनावों से ‘पड़ोसी प्रभाव’ जैसी एक विवादास्पद मतदान पद्धति चर्चा का विषय बनी हुई है। इस पद्धति के आधार पर ही फ्रांस के एक नागरिक, जो स्वयं को थियो कहता है, ने डॉनल्ड ट्रंप की जीत पर शर्त लगाकर काफी पैसा कमाया। थियो ने क्रिप्टो करेंसी सट्टेबाजी साइट पॉलिमार्केट पर ट्रंप की जीत को लेकर 3 करोड़ डॉलर का दांव खेला था।

विभिन्न विश्लेषकों के अनुसार थियो ने उसकी बात सच साबित होने पर 4.8 करोड़ डॉलर से 8.4 करोड़ डॉलर तक की रकम बना ली। उसने एक इलेक्टोरल कॉलेज, चार प्रमुख स्विंग राज्यों और रिपब्लिकन के लिए एक पॉपुलर वोट की जीत का दावा किया था।

थियो ने कहा कि उसने अमेरिका की प्रसिद्ध चुनाव विश्लेषक एजेंसी के सर्वेक्षण के आधार पर यह दांव लगाया था। इस विश्लेषण को करने का तरीका बड़ा ही रोचक है। इसमें मतदाताओं से उनकी पसंद के बारे में नहीं पूछा जाता, बल्कि उनसे यह बताने के लिए कहा जाता है कि उनके पड़ोसी किस प्रत्याशी को वोट देंगे।

थियो के अनुसार ‘पड़ोस प्रभाव’ पद्धति का इस्तेमाल कर किए गए सर्वेक्षण में उन राज्यों में ट्रंप की जीत की लहर दिखाई गई थी, जिनमें अन्य पारंपरिक जनमत सर्वेक्षणों में बहुत कम अंतर से पासा किसी भी तरफ पलट जाने की बात कही गई थी। यह ध्यान रखने वाली बात है कि थियो के बयान की सच्चाई का पता लगाना असंभव है। क्योंकि, सर्वेक्षण के लिए उसने जिस एजेंसी की सेवाएं ली थीं, न तो उसका नाम बताया और न ही सर्वेक्षण के बारे में विस्तार से कोई जानकारी दी। लेकिन, इस प्रकार के सर्वेक्षण कोई नई बात नहीं हैं। इनमें सर्वेक्षण में शामिल लोगों की राय के आधार पर नहीं, बल्कि जो दिखाई देता है, उसी के अनुसार सूचनाएं एकत्र की जाती हैं। व्यक्तिगत स्तर पर भी हम सब हमेशा ऐसा ही करते हैं।

उदाहरण के लिए मान लेते हैं कि आप किसी ऐसे व्यक्ति को उपहार देना चाहते हैं, जिसके बारे में आप अधिक नहीं जानते हों। ऐसे में आप उस व्यक्ति के आसपास रहने या उसे करीब से जानने वालों से पूछते हैं कि उन्हें सबसे अधिक क्या चीज पसंद है, जो उपहार स्वरूप दी जा सके। आप उनसे कभी भी सीधे नहीं पूछ सकते कि आप क्या लेना चाहेंगे। सामान्य तौर पर यह व्यवहार्य नहीं होता और शिष्टाचार भी इसकी इजाजत नहीं देता, क्योंकि वह कभी भी आपको इस बारे में नहीं बताएंगे।

बस, यही नियम राजनीतिक पसंद के मामले में भी लागू होता है। किसी भी रायशुमारी में कोई व्यक्ति आपको यह बताने में हिचकेगा ही कि वह किसे वोट देगा। यहां तक कि वह इस बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर सकता है। मतदाताओं की हिचक दिखाना सामान्य सी बात है। हालांकि, इसी मुद्दे पर जब वे अपने पड़ोसी के बारे में बात करेंगे तो अधिक ईमानदारी से राय दे सकते हैं। यदि सर्वेक्षक चतुराई से बात करे तो पड़ोसी के बारे में बताते-बताते लोग कभी-कभी अपने बारे में भी सच उगल देते हैं। कई मामलों में उत्तरदाता अपने बारे में यह तय नहीं कर पाते कि वे किसे वोट देंगे। उदाहरण के लिए, एमेजॉन और नेटफिलिक्स के सर्वे में यह बात सामने आई है कि जो चीजें लोग खरीदते या देखते हैं, वे प्राय: सर्वे में जाहिर की गई उनकी राय से बिल्कुल अलग होती हैं।

जोमैटो और स्पॉटिफाई वास्तव में आपकी खानपान और संगीत संबंधी रुचि के बारे आपसे कहीं अधिक जानते हैं। यही बात राजनीति के मामले में लागू होती है। राजनीति में अनिश्चित मतदाता पोलिंग बूथ में पहुंच कर भी अपने बारे में यह तय करता है कि उसे किसे वोट देना चाहिए।

हालांकि सटीक जानकारी के लिए ‘पड़ोसी प्रभाव’ जैसी सर्वेक्षण पद्धति अपनाने का दांव उल्टा भी पड़ सकता है। एक मामले में तो आप ऐसा मान सकते हैं कि पड़ोसी एक-दूसरे को जानते हैं और वे उनके बारे में सटीक जानकारी मुहैया करा सकते हैं, लेकिन आधुनिक शहरी परिवेश या गेट लगी कॉलोनियों-सोसाइटियों में यह नहीं कहा जा सकता कि वहां भी लोग एक-दूसरे से पूरी तरह वाकिफ होंगे। यदि आप किसी 30 मंजिला इमारत में स्थित फ्लैट में रहते हैं तो संभव है आपको यह भी न पता हो कि आपके पड़ोस में कौन रहता है।

आरडब्ल्यूए के व्हाट्सऐप ग्रुप में शामिल होकर तथा डेटा माइनिंग के जरिए ‘पड़ोसी प्रभाव’ पद्धति वाला सर्वेक्षण जरूर किया जा सकता है। ग्रामीण समाज और पुराने पारंपरिक बसावट वाले शहरी क्षेत्रों में तो लोग एक-दूसरे को अच्छी तरह जानते-पहचानते हैं, लेकिन दूसरों के बारे में वे भी खुलकर कुछ बताने से हिचकते हैं।

भारतीय गांव प्राय: जाति और समाज के आधार पर बसे होते हैं। शहरों की तरह उनका विस्तार भी अधिक नहीं होता। अमेरिका के मामले में भी यह बात उन क्षेत्रों में लागू होती है, जहां भारतीय या क्यूबाई मूल के नागरिक अधिक संख्या में रहते हैं।

किसी समुदाय विशेष से ताल्लुक रखने वाले लोग यदि उस समुदाय के नियमों के विपरीत आचरण करते हैं तो वे भी अपनी रुचि के बारे में खुलकर बोलने से गुरेज करते हैं। उदाहरण के लिए मैं एक ऐसे सिख युवा को जानता हूं जो नशा करते हैं और जैन समाज के एक परिचित मांसाहारी हैं, लेकिन वे खुलकर अपनी इन आदतों के बारे में बताने से हिचकते हैं। वे अपने सामाजिक परिवेश में सार्वजनिक रूप से धूम्रपान करने या मांस खाने से भी बचते हैं, क्योंकि ये दोनों ही चीजें उनके अपने-अपने समाज के धार्मिक नियमों के खिलाफ हैं।

व्यक्तिगत रूप से बताऊं तो मैं प्राय: सामाजिक कार्यक्रमों में उस संगीत को भी सुन लेता हूं जो मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है। दूसरों की रुचि और मनोरंजन के लिए मैं स्पॉटिफाई पर भी वह संगीत बजा सकता हूं, जो मुझे अच्छा नहीं लगता। यदि आप यह अंदाजा लगाएं कि मैं अकेले में कैसा संगीत सुनना पसंद करता हूं तो इस मामले में आपका अनुमान गलत साबित हो सकता है अथवा आपको लगेगा कि आपका अकाउंट किसी अन्य व्यक्ति ने इस्तेमाल किया है।

ये कुछ ऐसे तत्त्व हैं, जो ‘पड़ोसी प्रभाव’ पद्धति से लोगों की राय जानने में सर्वेक्षणकर्ताओं के समक्ष मुश्किल खड़ी कर सकते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या बड़े स्तर पर नमूने या आंकड़े जुटाने में ये कारक कारगर साबित हो सकते हैं? यही कारण है कि डिजाइन, खाका, नियंत्रण और क्रॉसटैब में से जो कुछ भी थियो ने अपने सर्वे में इस्तेमाल किया, वह आकर्षक लग सकता है। जब पारंपरिक चुनावों में प्रतिद्वंद्वियों के बीच कड़ी टक्कर दिखती है तो उस स्थिति में ‘पड़ोसी प्रभाव’ पद्धति भी टाईब्रेकर साबित हो सकती है। इसलिए इसे इस्तेमाल करते समय बड़ी सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

First Published - November 24, 2024 | 9:31 PM IST

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