इसमें अब शक की कम गुंजाइश रह गई है कि पिछले दो दशकों के दौरान भारत में गरीबी में काफी कमी आई है। हालांकि, आधिकारिक अनुमानों के अभाव में गरीबी का सटीक आकलन नहीं हो रहा है। एक सटीक एवं उचित गरीबी रेखा की परिभाषा पर कुछ मतभेद होने के कारण गरीबी से संबंधित आंकड़े पेचीदा और विवादों में घिरे रहे हैं। इस प्रश्न पर भारतीय शासन व्यवस्था में आंतरिक सहमति नहीं होने से कई लोगों ने विश्व बैंक द्वारा निर्धारित गरीबी रेखा की परिभाषा का उपयोग किया है।
विश्व बैंक ने 1990 में गरीबी रेखा के निर्धारण के लिए ‘प्रति दिन एक डॉलर’ मानक पेश किया था। इस मानक को वर्ष 2001, 2008, 2015 और 2022 में अद्यतन किया जा चुका है। अब विश्व बैंक ने गरीबी के संबंध में नए अनुमान जारी किए हैं और निम्न आय वाले देशों के लिए प्रति दिन 3 डॉलर उपभोग की रेखा निर्धारित की है। पहले यह रेखा 2.15 डॉलर प्रतिदिन उपभोग पर आधारित थी। निम्न मध्य आय वाले देशों के लिए यह सीमा 3.65 डॉलर से बढ़ाकर 4.20 डॉलर कर दी गई है।
यह संभवतः गरीबी उन्मूलन में भारत की प्रगति का अनुमान लगाने का शुरुआती अवसर प्रदान करता है। 3 डॉलर से कम रकम के साथ जीवन-बसर करने वाले अत्यंत गरीब लोगों की संख्या अब कम होकर कुल आबादी का केवल 5.3 फीसदी रह गई है, जो 2011-12 में 27.1 फीसदी थी। प्रति दिन 4.20 डॉलर से कम राशि पर जीवन बसर करने वाले लोगों की संख्या इसी अवधि में 57.7 फीसदी से कम होकर 23.9 फीसदी रह गई है। इस उपलब्धि को कम करके नहीं आका जाना चाहिए क्योंकि यह मानव कल्याण में बड़ी प्रगति की तरफ इशारा करता है। यह आर्थिक वृद्धि और लक्षित गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों को परिलक्षित करता है। यह वृहद सुधारवादी आम सहमति किसी भी अन्य नीतिगत कदमों एवं अन्य उपायों की तुलना में गरीबी कम करने में अधिक सफल रही है।
हालांकि, इसका यह कतई मतलब नहीं है कि गरीबी उन्मूलन में भौगोलिक एवं अन्य असमानताएं मौजूद नहीं हैं। ये असमानताएं हैं जिन्हें अवश्य ही दूर किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए विश्व बैंक द्वारा इस्तेमाल किए गए आंकड़ों के अनुसार ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में अब भी काफी अधिक है। यह तर्क दिया जा सकता है कि यह अंतर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है क्योंकि दोनों क्षेत्रों में कीमतों में अंतर भी होता है। यदि ऐसा है तो उपभोक्ता एवं अन्य सर्वेक्षणों के माध्यम इस तर्क को समर्थन मिलना चाहिए।
भारत में एक मूल समस्या यह है कि यद्यपि उपभोक्ता सर्वेक्षण अब शुरू हो गए हैं और दो लगातार ऐसे अभियान चलाए गए हैं मगर गरीबी के अनुमानों का स्पष्ट खाका खींचने का कोई प्रयास नहीं किया गया है। ऐसा एक प्रयास एक दशक पहले किया गया था। अब दो लगातार घरेलू उपभोग सर्वेक्षण के आंकड़े उपलब्ध हैं इसलिए भारत को नवीनतम अनुमान देने के लिए पूरी प्रक्रिया पर पुनर्विचार करना चाहिए।
भारत गरीबी खत्म करने की दिशा में कदम बढ़ा रहा है इसलिए एक अद्यतन गरीबी रेखा का निर्धारण जरूरी है। इस प्रयास का अंतिम पड़ाव अमूमन सबसे कठिन होता है और इसके लिए समस्याओं के बारे में सटीक जानकारी होनी जरूरी है। गरीबी उन्मूलन में हुई प्रगति से अति उत्साह में आकर लक्ष्य से नहीं भटकना भी उतना ही आवश्यक है। कोविड महामारी के अनुभव ने हमें सीख दी है कि कई लोग गरीबी रेखा से ऊपर आ जाते हैं मगर विभिन्न आर्थिक झटकों के कारण दोबारा गरीबी की चपेट में चले जाते हैं।
कुछ लोग कल्याणकारी राज्य के महत्त्व को स्वीकार करते हुए यह सवाल करेंगे कि आखिर भारत में केवल एक चौथाई लोग ही गरीब कैसे हो सकते हैं जबकि कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा सरकारी योजनाओं के अंतर्गत निःशुल्क अनाज हासिल कर रहा है। यह भी मालूम करना उतना ही जरूरी है कि ऐसी सरकारी योजनाएं आखिर किस हद तक गरीबी कम करने में मददगार साबित हो रही हैं। इन सवालों के जवाब तो आंकड़ों से ही दिए जा सकते हैं। भारतीय नीति बहुपक्षीय गरीबी अनुमानों पर निर्भर नहीं रहनी चाहिए।