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राष्ट्र की बात: कांग्रेस- अस्तित्व या मजबूती का सवाल

कांग्रेस को धीरे-धीरे यह पता चल रहा है कि उसने गत आम चुनाव के जनादेश को कुछ ज्यादा ही गलत समझ लिया था। समाजवादी पार्टी को आसान रियायत से इसे समझा जा सकता है।

Last Updated- October 27, 2024 | 9:49 PM IST
Congress: Question of existence or strength कांग्रेस: अस्तित्व या मजबूती का सवाल

अगर मैं कहूं कि बीते दो दशक में कांग्रेस के साथ घटित दो सबसे बुरी बातें रहीं 2004 के आम चुनाव में जीत और 2024 में लोक सभा में 99 सीट जीतना तो? आप शायद मुझसे कहेंगे कि मैं अपनी दिमागी हालत की जांच करवाऊं। इससे पहले कृपया मेरी बात सुनें।

कांग्रेस पार्टी महाराष्ट्र और झारखंड में जटिल सीट साझेदारी संबंधी वार्ताओं के कारण चर्चा में है। उसने उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव में सभी नौ सीट इंडिया गठबंधन के साझेदार दल समाजवादी पार्टी (सपा) के लिए छोड़कर समझदारी भरा कदम उठाया है। जीत हो या हार, अकेले हो या गठबंधन में, पार्टी अपने समर्थकों और प्रतिद्वंद्वियों को असमंजस में डालती रहती है।

पार्टी यहां तक कैसे पहुंची, इसे समझने के लिए हमें 2004 से आरंभ करना होगा। तथ्य यह है कि हार के जबड़ों से जीत को खींच लेने की पुरानी कहावत और न ही इसका उलटा राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पर लागू होता है। यही बात है कि बीते दो दशक में कांग्रेस के साथ जो दो सबसे बुरी बातें घटित हुईं उन्हें उसने सहजता से जीत घोषित कर दिया।

पहली थी 2004 के लोक सभा चुनाव में 145 सीट पर जीत। यह अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से केवल सात सीट अधिक थी। वाम दलों को ऐतिहासिक 59 सीट पर जीत मिली थी। कांग्रेस और उन्होंने मिलकर संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का गठन किया। उसने एक दशक तक शासन किया और 2009 में अपनी सीट में इजाफा किया। दूसरी है 2024 के आम चुनावों में 99 सीट पर जीत। उसके नेतृत्व वाले ‘इंडिया’ गठबंधन को 234 सीट पर जीत मिली।

अगर आप कांग्रेस के वफादार हैं तो इन दोनों को बड़ी कामयाबी मानेंगे लेकिन अगर आप उसके विरोधी हुए तो आप कहेंगे कि 2004 में तकदीर उसके साथ थी और 2024 में तो पार्टी हार ही गई क्योंकि लगातार तीसरी बार वह तीन अंकों में पहुंचने से दूर रह गई। दोनों अवसरों में से एक बार पार्टी सत्ता में पहुंची और दूसरी बार उसने नरेंद्र मोदी का कद छोटा कर दिया तो कोई टीकाकार उन्हें पार्टी के सबसे बुरे अवसर क्यों बताएगा?

ऐसा इसलिए कि कांग्रेस कैडर आधारित दल नहीं है। उसकी वैचारिकी कमजोर है और सत्ता के लिए उससे समझौता हो सकता है। बिना सत्ता के वह अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करती है। जबकि मोदी शाह के नेतृत्व ने कहा था कि वह कांग्रेस मुक्त भारत बनाएंगे लेकिन उन्होंने कांग्रेसयुक्त भाजपा बना दी है। कांग्रेस के अधिकांश क्षेत्रीय दिग्गज अब भाजपा में हैं, इनमें 2004 से 2014 तक राहुल गांधी के करीबी रहे नेता भी शामिल हैं। कांग्रेस पार्टी की मूल संरचना अभी भी सामंती है जहां एक परिवार के प्रति वफादारी ही मूल है।

2004 के नतीजे अनुमानों से परे थे। सत्ता में अचानक वापसी लॉटरी की तरह थी लेकिन इस सामंती दल के आंतरिक सलाहकार इसे इस तरह नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने सहज निष्कर्ष निकाल लिए कि यह असमानता के खिलाफ नतीजा है और सोनिया गांधी का जादू है। उन्होंने इसे वाजपेयी के इंडिया शाइन को जनता द्वारा नकारना बताया और कहा कि मतदाता कांग्रेस के वैचारिक ढांचे की ओर वापस आए हैं।

यही वजह है कि इसके बाद पार्टी ने जमकर कल्याण योजनाओं को अपनाया। इसके साथ ही उसने आंतरिक सुधारों की जरूरत को एक तरह से तिलांजलि ही दे दी। उसने आंतरिक प्रतिस्पर्धा से नए नेताओं की तलाश नहीं की। उसने विभिन्न जातियों और पहचान समूहों से नए प्रवक्ताओं की तलाश पर भी बल नहीं दिया। दलील दी गई कि जीत तो जीत ही है, भले ही एक रन से हो या एक पारी से। बदलाव और सुधारों के सभी विचारों को त्याग दिया गया। 2009 के निर्णय ने इस मान्यता को मजबूत किया।

इस तरह एक दशक का समय आश्वस्ति और उत्सव में बीत गया। संप्रग-2 के लोकप्रियता और प्रतिष्ठा गंवाने के बीच कभी कोई चेतावनी नहीं उभरी। यह भावना प्रबल हो गई कि ‘हम’ दोबारा सत्ता के स्वाभाविक दावेदार बन गए हैं। उसके बाद नौ साल का समय हार की नाउम्मीदी में बीत गया और पार्टी का कैडर और नेता तितर-बितर होते गए। दसवें साल राहुल गांधी की पदयात्रा और मल्लिकार्जुन खरगे के चुनाव से कुछ हद तक सुधार हुआ। इसने सोये हुए वफादारों को जगा दिया।

परंतु ज्यादा महत्त्वपूर्ण था एक नई हकीकत से साक्षात्कार और वह यह कि पार्टी चाहे जितनी पुरानी और मजबूत रही हो वह अब अपने दम पर भाजपा को हराने में सक्षम नहीं थी। पार्टी को साझेदारियां बनानी पड़ीं और अपने स्वभाव के उलट विनम्रता और बड़ा दिल दिखाना पड़ा। इस तरह ‘इंडिया’ गठबंधन बना और मोदी को 240 सीट पर रोका जा सका। सवाल यह है कि फिर हम इसे पार्टी के दो सबसे बुरे अवसरों में क्यों गिनते हैं? क्योंकि जिस तरह उसने 2004 में 145 सीट के बाद जीत घोषित की थी और इसे अपने राजनीतिक निर्वासन का अंत बताया था उसी तरह का दृश्य 99 सीट पर जीत और गठबंधन को 234 सीट मिलने पर भी नजर आया।

पार्टी के भीतर सुधार, आंतरिक चुनाव या नए नेतृत्व के लिए प्रतिस्पर्धा जैसी बातों को भुला दिया गया। साझेदारों की तो शायद जरूरत ही नहीं समझी जा रही है। हरियाणा में आम आदमी पार्टी (आप) या सपा को कुछ सीट क्यों दी जाएं? अपने क्षेत्र में साझेदारों को पैर क्यों जमाने दिया जाए? जून 2024 के बाद का दंभ 8 अक्टूबर की दोपहर तक समाप्त हो गया क्योंकि उस समय हरियाणा विधानसभा की तस्वीर एकदम साफ हो गई।

2024 की गर्मियों में एक बात जो नहीं बदली वह यह थी कि कांग्रेस अपने दम पर भाजपा को हराने में सक्षम नहीं थी। उसे दूसरों की मदद की आवश्यकता थी। वास्तव में भाजपा को भविष्य की एक ही चिंता है कि अगले ढाई सालों में असम के अलावा उसका कहीं भी कांग्रेस से सीधा मुकाबला नहीं होना है। महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली और बिहार में क्षेत्रीय दल उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी हैं। उनसे पार्टी को हमेशा जूझना पड़ा है। भाजपा उन चुनावों को राहुल के खिलाफ नहीं बना सकती, भले ही वह मोदी को सीधी लड़ाई से अलग रखे, जैसा कि उसने हरियाणा में किया।

अब लगता है कि कांग्रेस को अंदाजा हो गया है कि उसने आम चुनाव के नतीजों को गलत समझा था। उत्तर प्रदेश विधानसभा उपचुनाव में सपा को रियायत और महाराष्ट्र तथा झारखंड में सीट को लेकर विवेकसम्मत चर्चाओं में इसे देखा जा सकता है। दिल्ली में अभी वक्त है लेकिन लगता नहीं कि वह ऐसा सोच भी रही होगी कि वहां भाजपा और आप के साथ त्रिकोणीय लड़ाई लड़ेगी या किंगमेकर बनेगी। कांग्रेस में वही पुराने स्वर वही पुरानी बात दोहराएंगे कि यह हमारा क्षेत्र था। हम दूसरों को यहां अतिक्रमण कैसे करने दे सकते हैं? या फिर यह हमारी जगह थी जिसे किसी ने छीन लिया। हम उनके कनिष्ठ साझेदार कैसे हो सकते हैं?

भावनाओं, अतीत मोह और इतिहास से वर्तमान की हकीकत नहीं बदलती। अपने साझेदारों के अपने गढ़ में पकड़ बनाने के बजाय उसे अहसानमंद होना चाहिए कि उन्होंने उसे उसकी गंवाई जगह पर कुछ अवसर मुहैया कराए। उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र लोक सभा चुनाव में पार्टी को हुए लाभ पर नजर डालिए। पार्टी अगर थोड़ी और समझदारी दिखाती तो पश्चिम बंगाल में कुछ सीट और जीत सकती थी।

पिछले आम चुनाव ने कांग्रेस के नेताओं को यकीन दिलाया कि वे मतों के लिए नहीं लेकिन बौद्धिक और वैचारिक मार्गदर्शन के लिए वाम से जुड़ाव रख सकते हैं। यह आकर्षण इतना जबरदस्त था कि उन्होंने केरल के मुकाबले को गंभीरता से नहीं लिया। कांग्रेस की राजनीति एक अजब पहलू यह है कि उसने हरियाणा में भिवानी सीट माकपा को दे दी। यकीनन वह सीट गंवा दी गई लेकिन सवाल यह है कि वाम को साथ लिया गया लेकिन आप और सपा को क्यों खारिज किया गया? उनके नेताओं ने कुछ मत प्रतिशत के अलावा प्रचार में भी भारी मदद की होती।

वर्ष 1989 से ही कांग्रेस की उलझन यह रही है कि वह अपना अस्तित्व बचाए या खुद को मजबूत बनाए। पार्टी को एक बार फिर इन दोनों विकल्पों में से एक चुनना होगा। यह वैसा सवाल भी नहीं है कि पहले मुर्गी आई या अंडा। अस्तित्व रहेगा तभी तो मजबूती आएगी।

First Published - October 27, 2024 | 9:49 PM IST

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