तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने देश में हो रहे आम चुनावों को लेकर एक अलग संकेत दिया है। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (BJP) की संभावित सीट की बात करने के बजाय कांग्रेस (Congress) पार्टी को मिलने वाली सीट पर ध्यान केंद्रित किया है।
द प्रिंट को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि उनकी पार्टी को अगली सरकार बनाने के लिए केवल 125 सीट की आवश्यकता है जबकि भाजपा को कम से कम 250 सीट की जरूरत होगी।
मुझे पता है कि आपमें से कई पाठक यह पढ़कर भड़क गए होंगे। आखिर उन्हें इतनी सीट कहां से मिलेंगी? यह किस तरह की कल्पना है? यह आलेख मैं लिखता हूं चैटजीपीटी नहीं, इसलिए आगे आपको कुछ कठिन बातें मिल सकती हैं। हम कभी किसी चुनाव का पूर्वानुमान नहीं लगाते। सीट का अनुमान तो भूल ही जाइए।
रेड्डी की दलील है कि कांग्रेस के पास अब गठबंधन और उसका भरोसा है। भाजपा के पास दोनों नहीं हैं। हम यह बात भी शामिल कर सकते हैं कि इतिहास हमें बताता है कि 150 से कम सीट वाली पार्टी भी गठबंधन का नेतृत्व कर सकती है।
कांग्रेस को 2004 में भाजपा की 138 सीट के मुकाबले 145 मिली थीं और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) की पहली सरकार बनी थी क्योंकि ज्यादा साझेदार कांग्रेस के साथ थे। एक बार फिर यह प्रश्न पूछना बनता है कि कांग्रेस में कोई नेता 125 सीट जीतने के बारे में सोच भी कैसे रहा है? आज के इस प्रश्न पर पारंपरिक तरीके से अलग हटकर भी विचार किया जा सकता है।
मतगणना को तीन सप्ताह से भी कम समय बचा है और सबकी जुबान पर यही सवाल है कि आखिर कितनी सीट मिलेंगी? यहां भाजपा की सीट की बात की जा रही है। क्या उसे 370 सीट मिलेंगी।
नरेंद्र मोदी ने शुरुआत में यही लक्ष्य तय किया था और साझेदारों की 30 सीट के साथ मिलकर आंकड़ा 400 पार हो जाएगा। क्या यह आंकड़ा पिछले आम चुनाव के 303 के आंकड़े से 20-30 सीट कम या ज्यादा रहेगा? क्या पार्टी 272 के आंकड़े से नीचे रह जाएगी? यह वैसा ही है जैसे आपको पता हो कि क्रिकेट मैच कौन जीतेगा और आप केवल यह चर्चा कर रहे हों कि कितने रन या विकेट से जीत होगी।
अगर हम इस बहस को उलट दें और यह चर्चा करें कि हारने वाले का प्रदर्शन कैसा रहेगा तो? यह बात कांग्रेस और मोदी के आलोचकों को भड़काएगी। हम कांग्रेस को शीर्ष पर आते नहीं देख रहे हैं क्योंकि वह केवल 328 सीट पर लड़ रही है जो इतिहास में अब तक का सबसे कम आंकड़ा है।
कांग्रेस को 2014 और 2019 में क्रमश: 44 और 52 सीट पर जीत मिली थी जबकि भाजपा को 282 और 303 सीट मिली थीं। राज्य दर राज्य चुनावी लड़ाई को देखते हुए हम कह सकते हैं कि अगर भाजपा को 303 का अपना आंकड़ा बढ़ाना है तो इनमें से अधिकांश सीटें गैर कांग्रेस दलों-राकांपा, शिव सेना, आप, तृणमूल कांग्रेस, भारत राष्ट्र समिति, बीजू जनता दल और यहां तक कि द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम तथा आंध्र में वाईएसआरसीपी से आनी होंगी।
कांग्रेस के विरुद्ध पार्टी पहले ही अधिकतम सीट पर है। 2019 में जिन सीट पर दोनों दल आमने-सामने थे उनमें से 92 फीसदी पर भाजपा को जीत हासिल हुई थी। ऐसे में कांग्रेस के पास खोने को कुछ नहीं है।
अब समीकरण को उलट दें और यह सोचें कि कांग्रेस किन सीट पर जीत हासिल कर सकती है। उत्तर में हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड तथा पश्चिम और दक्षिण में गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा और कर्नाटक में कांग्रेस ने लगभग सभी सीटें भाजपा के हाथों गंवा दीं।
इन राज्यों की 241 सीट में से कांग्रेस को केवल नौ सीट पर जीत हासिल हुई। अब पार्टी के पास खोने को कुछ नहीं है। पार्टी को ज्यादातर जीत उन जगहों पर मिली जहां भाजपा उसकी प्रतिद्वंद्वी नहीं थी। उदाहरण के लिए केरल और तमिलनाडु।
कांग्रेस अब जिन 328 सीट पर चुनाव लड़ रही है वहां उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी भाजपा है। इसका अर्थ यह है कि मोदी और भाजपा के अश्वमेध को रोकने की जिम्मेदारी भी उसी के कंधे पर है। वह यहां जो भी सीट जीतेगी, वह भाजपा को सीधा नुकसान होगा। जब 90 सीट ही पर्याप्त हैं तो उसे 125 सीट की जरूरत नहीं है। आइए समझते हैं।
अगर कांग्रेस 80 सीट पाती है तो भाजपा की सीट 2019 की तुलना में 25-30 तक कम हो जाएंगी। निश्चित रूप से भाजपा और उसके समर्थक कहेंगे कि उसे ओडिशा, पश्चिम बंगाल, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश में लाभ होगा और वह वहां गैर कांग्रेसी दलों से सीटें छीनेगी। उनकी बात सही भी हो सकती है।
इसके उलट उद्धव ठाकरे, शरद पवार और तेजस्वी यादव के दलों के विरुद्ध भाजपा दबाव में हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि अगर कांग्रेस को 52 से 10 सीट अधिक मिलीं तो भाजपा की 10 सीट कम होंगी। अगर कांग्रेस 90 पर पहुंचती है तो काफी संभव है कि भाजपा 272 क आंकड़े से नीचे रह जाए। 100 सीट राष्ट्रीय राजनीति में हलचल मचा देंगी।
मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा होगा या हो सकता है। मैं बस एक बुनियादी समीकरण पेश कर रहा हूं कि हारने वालों को सरकार बनाने के लिए जीतने वालों से कम की जरूरत है। इसे दूसरी तरह से देखते हैं।
भाजपा को अगर 30 और सीट मिलती हैं और वह 330 पर पहुंच जाती है तो इससे अगली सरकार की मजबूती पर कोई असर नहीं होगा। जबकि 30 सीट की कमी उसके लिए गंभीर परिणाम लाएगी।
कांग्रेस को 70 के ऊपर मिलने वाली हर सीट राष्ट्रीय राजनीति को दोबारा संतुलित करेगी। पार्टी चाहे जो भी दावा करे लेकिन ऐसा करना आसान नहीं होगा। खासतौर पर इसलिए कि इनमें से अधिकांश में उसे भाजपा को हराना होगा या कहें तो मोदी को हराना होगा। 2019 में दोनों दलों को मिले वोटों के अंतर को ध्यान में रखें तो यह काम आसान नहीं होगा।
कांग्रेस अतिरिक्त 30 सीट कहां से लाएगी? क्योंकि अगर उसे हालात बदलने हैं तो कम से कम इतनी सीट की जरूरत होगी। पार्टी उन राज्यों पर नजर डालेगी जहां वह 2019 में भाजपा के हाथों ज्यादातर सीट गंवा चुकी है और अब वहां या तो वह गठबंधन कर चुकी है या उसकी राज्य सरकार हैं। कर्नाटक और तेलंगाना सबसे पहले आते हैं जहां पार्टी के पास 28 और 17 में से क्रमश: एक और तीन सीट ही हैं।
उसके बाद महाराष्ट्र क्योंकि भाजपा का गठबंधन टूटा हुआ है और कांग्रेस को ठाकरे शिव सेना के रूप में नया साझेदार मिल चुका है। अब हम हिंदी राज्यों पर आते हैं। बिहार में भाजपा का साझेदार कमजोर है जबकि कांग्रेस के साथ तेजस्वी हैं। झारखंड में भी साझेदार महत्त्वपूर्ण हैं।
मध्य प्रदेश और राजस्थान पर कांग्रेस के दावों पर गौर करते हुए हरियाणा, दिल्ली, चंडीगढ़ और हिमाचल प्रदेश की बात करें तो इन राज्यों की 22 में से कांग्रेस के पास केवल एक सीट है। भाजपा को यहां एक को छोड़कर सभी सीट पर 50 फीसदी से अधिक मत मिले। कांग्रेस और आप के बीच गठबंधन हो चुका है। क्या यह गठबंधन और पुलवामा-बालाकोट जैसे जोश की कमी कुछ सीट पर असर डालेगी? खासकर हरियाणा में?
अगर आप इस सूची पर दोबारा नजर डालें तो 30 सीट का इजाफा या उससे कुछ अधिक सीटें असंभव नहीं हैं। याद रहे कि मैंने इसके लिए संभावित शब्द का प्रयोग नहीं किया। जितना मैं जानता हूं, कांग्रेस 52 से कम सीट पर भी सिमट सकती है। भाजपा के बजाय कांग्रेस की सीट के बारे में अनुमान लगाना अधिक दिलचस्प है।