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आम बजट में नजर आए दीर्घकालिक दृष्टिकोण

Last Updated- December 12, 2022 | 9:06 AM IST

केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण सोमवार को संभवत: हालिया इतिहास का सबसे महत्त्वपूर्ण बजट पेश करेंगी। इस बजट में दो तरीके अपनाए जा सकते हैं। पहला, सरकार अगले वित्त वर्ष पर ध्यान केंद्रित कर सकती है। अर्थव्यवस्था महामारी के कारण आई गिरावट से उबर रही है और वृद्धि में तेज सुधार आ सकता है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अनुमान जताया है कि अगले वर्ष भारतीय अर्थव्यवस्था 11.5 फीसदी की दर से विकसित होगी। आर्थिक गतिविधियों में सुधार के साथ राजस्व संग्रह में भी सुधार होगा। ऐसे में सरकार व्यय में इजाफा कर सकती है और वृद्धि पर जोर दे सकती है। कई टीकाकार इसका सुझाव भी दे चुके हैं।
दूसरा रुख यह होगा कि एक प्रस्थान बिंदु पर विचार किया जाए और अर्थव्यवस्था को इस तरह तैयार किया जाए ताकि दीर्घावधि के लक्ष्य हासिल हों और स्थायी उच्च वृद्धि प्राप्त की जा सके। यह कहने में कोई कठिनाई नहीं कि दूसरी राह अपनाई जानी चाहिए। यह अहम है क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण मची उथलपुथल के पहले ही भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी गति खोने लगी थी। ऐसे में यह मानना भी उचित होगा कि महामारी ने संभावित वृद्धि को प्रभावित किया है। यह स्वीकार करना अहम है कि वैश्विक आर्थिक हालात शायद उतने अनुकूल नहीं रहेंगे जितने कि हालिया दशक में थे। इस संदर्भ में दो बातों को रेखांकित करना आवश्यक है।
पहली बात तो यह कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में ढांचागत धीमापन आ रहा है। विश्व बैंक की हालिया वैश्विक आर्थिक संभावना रिपोर्ट में भी कहा गया कि सन 2019 तक वैश्विक वृद्धि पूर्वानुमान घटकर 2.4 प्रतिशत रह गया जबकि 2010 तक यह 3.3 फीसदी था। इसी अवधि में उभरते बाजार और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के लिए वृद्धि अनुमान 6.1 फीसदी से घटकर 3.9 फीसदी रह गया। उभरते बाजार और विकासशील देशों की उत्पादन वृद्धि में सन 2020 तक एक फीसदी का धीमापन आने का अनुमान जताया गया था जबकि उस वक्त महामारी नहीं आई थी। विश्व बैंक का कहना है कि 2020 के दशक में महामारी विकासशील और उभरते देशों में संभावित वृद्धि में आने वाले धीमेपन को 0.6 प्रतिशत तक बढ़ा सकती है। महामारी के पहले विश्व अर्थव्यवस्था में कामगारों की धीमी वृद्धि और धीमे निवेश जैसी वजहों से धीमापन आ रहा था। चीन में बीते कुछ वर्षों में जो मंदी आई है उसने विकासशील देशों की वृद्धि को खासतौर पर प्रभावित किया है।
दूसरी बात, वैश्विक ऋण में काफी इजाफा हुआ है। जैसा कि विश्व बैंक ने भी ध्यान दिया है सन 2020 में विकासशील और उभरते देशों में सरकारी कर्ज 9 प्रतिशत तक बढ़ा है। सन 2019 में इन देशों का कुल कर्ज, सकल घरेलू उत्पाद का 176 प्रतिशत था। इसमें निजी क्षेत्र की अहम हिस्सेदारी थी। यह बात चिंतित करने वाली है क्योंकि कर्ज में इजाफे ने अतीत में कई देशों को वित्तीय संकट में डाला है। दिक्कत की बात यह है कि कर्ज में इजाफा ऐसे वक्त पर हो रहा है जब वैश्विक वृद्धि में धीमापन आ रहा है।
वैश्विक आर्थिक माहौल में ऐसे बदलाव भारत को प्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित करेंगे। भारत को आने वाले वर्षों में अपेक्षित वृद्धि हासिल करने के लिए सुधारों की दिशा में काफी कुछ करना होगा। बढ़ते वैश्विक ऋण के कारण जो संभावित दिक्कतें आ सकती हैं उनसे भी वित्तीय स्थिरता को सुरक्षित रखने की आवश्यकता है। भारत में भी सरकारी ऋण तेजी से बढ़ा है और माना जा रहा है कि चालू वर्ष में यह सकल घरेलू उत्पाद के 90 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच जाएगा। इससे मध्यम अवधि में वृद्धि को समर्थन देने के मामले में सरकार के हस्तक्षेप सीमित हो जाएंगे। सरकार की शीर्ष प्राथमिकताओं में एक यह भी होनी चाहिए कि इसे कम किया जाए। इसके लिए समझदारी भरे वित्तीय प्रबंधन की आवश्यकता होगी। सरकार को पूंजीगत और बुनियादी व्यय में इजाफा करना होगा। इसके लिए परिसंपत्तियों की बिक्री के कार्यक्रम को गति देनी होगी।
हालांकि वृद्धि को नए सिरे से गति देने के लिए व्यापक नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी। बजट से इस प्रक्रिया की शुरुआत हो सकती है। उदाहरण के लिए सरकार को यह निर्णय लेना होगा कि उसे सरकारी बैंकों से किस तरह निपटना है। बैंकों में लगातार पूंजी नहीं डाली जा सकती। पुनर्पूंजीकरण बॉन्ड जारी करने की भी अपनी सीमा है। अर्थव्यवस्था में उथलपुथल सरकारी बैंकों के लिए हालात और मुश्किल करेंगे।  भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार सितंबर 2021 तक सकल फंसा हुआ कर्ज 16.2 फीसदी हो सकता है। बैंकिंग क्षेत्र की खराब परिसंपत्ति गुणवत्ता वृद्धि पर असर डालेगी।
बिजली एक अन्य ऐसा क्षेत्र है जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। हालांकि शायद यह सीधे केंद्र सरकार की वित्तीय स्थिति को प्रभावित न करे। बिजली उत्पादक कंपनियों का बकाया बढ़ता जा रहा है। यह स्थिति भी अस्थिरता वाली है। इस क्षेत्र को गहन सुधारों की आवश्यकता है और केंद्र सरकार को इस दिशा में पहल करनी होगी। अत्यधिक क्रॉस सब्सिडी और मूल्य निर्धारण में पारदर्शिता की कमी भी कारोबारी जगत की प्रतिस्पर्धी क्षमता को प्रभावित कर रही है। यह अहम है कि सरकार विभिन्न क्षेत्रों की लंबित समस्याओं के लिए हल तलाशे लेकिन साथ ही यह भी जरूरी है कि कुछ चीजों से बचा जाए। मसलन, नीतिगत चूक के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। सरकार को आयात शुल्क नहीं बढ़ाना चाहिए। पूरा ध्यान इस बात पर दिया जाना चाहिए कि निर्यात बढ़ाया जाए। संरक्षणवादी नीतियां ऐसा नहीं होने देंगी।
इसके अतिरिक्त सरकार को करों में कटौती और नए व्यय में इजाफा करने से बचना चाहिए। ऐसे कदम राजकोषीय प्रबंधन को और मुश्किल करेंगे। खबरों के मुताबिक सरकार का इरादा बैंक निवेश कंपनी, बैड बैंक और विकास वित्त संस्थान जैसी संस्थाएं स्थापित करने का है। ये संस्थान अधिक से अधिक निकट भविष्य में पूर्णता का अहसास देंगे लेकिन बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर सकेंगे। कहा जा रहा है कि देश में मध्यम अवधि की संभावित वृद्धि गिरकर 5 फीसदी के आसपास हो गई है। ऐसे में व्यापक नीतिगत निर्णय मध्यम अवधि में 7 फीसदी या अधिक की स्थायी वृद्धि हासिल करने के इरादे से उठाए जाने चाहिए। बजट इस दिशा में सही शुरुआत होगा।

First Published - January 29, 2021 | 11:31 PM IST

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