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ओवल ऑफिस की तस्वीर से सबक: ट्रंप के दौर में यूरोप ने अपने हित कैसे सुरक्षित किए, भारत के लिए जरूरी सीख

यूरोपीय देशों ने ट्रंप के साथ उनकी शर्तों पर समझौता करने का निर्णय लिया है ताकि व्यापक पश्चिमी गठजोड़ बचा रहे। हमें देखना चाहिए कि इसमें भारत के लिए क्या सबक छिपे हैं।

Last Updated- August 24, 2025 | 10:55 PM IST
Trump

थोड़ी देर के लिए उस तस्वीर पर गौर कीजिए जिसे आने वाली कई पीढ़ियों तक याद रखा जाएगा। यूरोप के बड़े देशों के नेता और वाेलोदीमिर जेलेंस्की, डॉनल्ड ट्रंप के सामने आज्ञाकारी स्कूली बच्चों की तरह खड़े हैं जबकि ट्रंप किसी शाही प्रधानाध्यापक की तरह नजर आ रहे हैं। इसे देखकर आपके मन में पहली भावना कौन सी आती है: सहानुभूति, मनोरंजन, दया, परपीड़ा सुख या एक नई विश्व व्यवस्था के आह्वान की? पूरी संभावना है कि आपके भीतर सहानुभूति के अलावा उपरोक्त भावों का मिलाजुला स्वरूप आए। ऐसा इसलिए नही क्योंकि हम आज ट्रंप के द्वारा सबसे अधिक सताए हुए हैं। आगे बढ़ते हुए हम यही सलाह देंगे कि हम आवेश में दी गई इस प्रतिक्रिया को संशोधित कर लें।

हम देख सकते हैं कि कम से कम एक नेता का दिमाग भावनात्मक घालमेल से परे है। व्लादीमीर पुतिन इसे विशुद्ध रूप से हिकारत से देखते हैं। दुनिया के सबसे अमीर, सबसे ताकतवर देश, तीसरी और छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आर्थिक ब्लॉक (यूरोपीय संघ), दो परमाणु हथियार संपन्न देश, सभी घुटनों पर नजर आए।

वे सभी पश्चिमी गठजोड़ में सबसे अधिक मायने रखने वाले इकलौते नेता के सामने झुके नजर आए जिसे पुतिन कमजोर करने का प्रयास करते रहे हैं। ओवेन मैथ्यूज ने अपने आलेख में इस बात पर जोर दिया है जिसका शीर्षक है, ‘पुतिन का जाल: कैसे रूस पश्चिमी गठजोड़ को बांटने की योजना बना रहा है?’ पुतिन इसे इस बात की स्वीकारोक्ति के रूप में भी देखते हैं कि उन्होंने जंग जीत ली है। यह पूरी तरह उन पर है कि वे इस जीत के रूप में परिभाषित करें। यह यूरोपीय देशों के विपरीत है जिन्हें यह देखना होगा कि इसे किस तरह से बुरी हार के रूप में न दिखने दिया जाए।

पुतिन को पता है कि वे जो छीन चुके हैं उस पर काबिज रह सकते हैं। इसमें 2022 के हमले के बाद की जगहें ही नहीं बल्कि क्राइमिया और डोनबास भी शामिल हैं। यह यूक्रेन के कुल भूभाग का करीब 20 फीसदी है। इसके अलावा उत्तर अटलांटिक संधि संगठन यानी नाटो का पूर्व की ओर विस्तार भी अब इतिहास हो चुका है। हम जानते हैं कि ट्रंप अपना दिमाग बहुत जल्दी-जल्दी बदलते हैं, उतनी ही जल्दी जितना कि हम फिल्मों में तानाशाहों को बदलते देखते हैं। लेकिन इस बात की संभावना नहीं है कि वह अचानक यूक्रेन और यूरोप की महत्त्वाकांक्षी मांगों का समर्थन करने लगेंगे। इन मांगों में पुतिन की हार भी शामिल है।

रूस को काफी कुछ झेलना पड़ा है लेकिन वह अभी भी हमलावर है। भले ही उसे इसकी ऊंची कीमत चुकानी पड़ रही हो। अगर इस मोड़ पर शांति स्थापित होती है तो पुतिन जीत की घोषणा कर सकते हैं। वह क्राइमिया या मारियुपोल में विजय भाषण भी दे सकते हैं। शांति स्थापना के साथ ही प्रतिबंध समाप्त हो जाएंगे। तब वह अपनी अर्थव्यवस्था को नए सिरे से तैयार करना शुरू कर सकते हैं।

अगर पुतिन यूक्रेन की संप्रभुता कम करने और वहां अपनी पसंद की सरकार बनाने के लक्ष्य नहीं पा सके हैं तो इसकी वजह है यूक्रेन की असाधारण बहादुरी और समझदारी। पश्चिमी गठजोड़ और अमेरिका ने भले ही संसाधनों के जरिये मदद की हो लेकिन यूक्रेन ने इतने लंबे समय तक लड़ाई लड़कर और बहुत भारी कीमत वसूल करके अपनी संप्रभुता को बचाए रखा।

यूक्रेन ने दुनिया को ड्रोन से युद्ध कौशल दिखाया। दूरदराज इलाके से छिपकर और बड़े पैमाने पर जंग करके दिखाया। महज 3.5 करोड़ की आबादी होने के बावजूद उसने न केवल अत्यंत साहसपूर्वक शहादतें दीं बल्कि रूस को भी जान-माल का भारी नुकसान पहुंचाया। साथ ही उसकी आर्थिक और सैन्य शक्ति को भी भारी क्षति पहुंचाई। दो बातों के चलते वे बेहतर नतीजे नहीं पा सके। पहला, यूरोपीय साझेदारों द्वारा सैन्य या आर्थिक कष्ट साझा करने में नाकामी और ट्रंप की वापसी।

इस बारे में आने वाले दिनों में बहुत कुछ कहा और लिखा जाएगा लेकिन अभी मैं आपको समझाता हूं कि यूरोप ने कैसे खुद को स्वेच्छा से ट्रंप के नए साम्राज्यवाद का पहला शिकार बनने तक सीमित कर लिया, वह कैसे प्रतिक्रिया दे रहा है और भारत के लिए क्या सबक हैं।

यूरोप ने अपनी सुरक्षा अमेरिका के हवाले करके भारी भूल की। इसकी शुरुआत दूसरे विश्वयुद्ध के बाद स्वत: आरोपित शांति के रूप में हुई। उसके बाद सोवियत युग के बाद शीतयुद्ध समाप्त होने पर शिथिलता बरती गई। नाटो का विस्तार हुआ लेकिन यह भावना हमेशा रही कि कोई वास्तविक खतरा नहीं है और अमेरिका यूरोप की रक्षा करेगा। अब हालात ये हैं कि उन्हें सैन्य उपकरणों तक के लिए कीमत चुकानी पड़ रही है।

रूस को लेकर डर ने यूरोप को ट्रंप के साथ एकतरफा संधि पर हस्ताक्षर करने पर विवश किया। ट्रंप कहते हैं कि उनके पास ताकत है कि वह यूरोप द्वारा अमेरिका में निवेश के 600 अरब डॉलर के हर डॉलर का इस्तेमाल कर सकें। यह सुरक्षा निधि और साम्राज्यवाद है। अगर वे रक्षा पर और अधिक व्यय करते हैं तो भी उन्हें नए सैन्य विस्तार के लिए जवानों की कमी पड़ेगी। यूरोप में सैन्य संस्कृति बहुत पहले समाप्त हो चुकी है। कुछ हद तक फ्रांस और ब्रिटेन में ही यह शेष है। तुर्किये को छोड़कर अन्य देश अमेरिका की दया पर हैं।

इसके अलावा, सस्ते चीनी सामानों, रूसी गैस और आउटसोर्स की गई विनिर्माण व्यवस्था पर आर्थिक निर्भरता भी आलस की अन्य निशानियां हैं। जिन टनल बोरिंग मशीनों को चीन ने हाल तक भारत को देने से इनकार किया था, वे वास्तव में जर्मन तकनीक की हैं। बस इतना हुआ कि अधिक लाभ कमाने के लिए उनका विनिर्माण चीन में स्थानांतरित कर दिया गया। फ्रांस एक बार फिर अपवाद है।

अब यूरोप हिला हुआ है। एक अहम बात जो हम भारतीयों को भी ध्यान में रखनी चाहिए वह यह है कि वे भावना से नहीं हकीकत को ध्यान में रखकर चल रहे हैं। यूक्रेन और व्यापक यूरोप की सुरक्षा पर वे कम से कम बुरे विकल्प चुन लेंगे। राष्ट्रहित अक्सर ऐसी प्रतिक्रियाओं की मांग करता है जो संशय से भरी भले हों लेकिन भावनात्मक न हों।

ओवल ऑफिस की तस्वीर हमें यही बताती है। यूरोपीय लोगों ने ट्रंप से उनकी शर्तों पर बात करना स्वीकार कर लिया क्योंकि वे व्यापक पश्चिमी गठजोड़ को एकजुट रखना चाहते हैं। अमेरिका तो ट्रंप के जाने के बाद भी रहेगा। अभी वे ट्रंप को जो रियायतें दे रहे हैं वे उनके कार्यकाल के लिए ही हैं। कल फिर आएगा और हालात सामान्य हो जाएंगे। ऐसे में भारत के लिए भी सबक हैं:

1. अपनी सेना को मजबूत बनाएं और जंग के लिए तैयार रखें। कोई नारेबाजी नहीं, बड़ी-बड़ी बातें नहीं, आने वाले दशकों में क्या करेंगे ऐसा कुछ नहीं। हमें अभी से शुरुआत करनी होगी। पहले पाकिस्तान से निपटने पर ध्यान देना होगा।

2. रूस के साथ रिश्ते मजबूत करें लेकिन किसी खेमे में जाने से बचें। लोकतांत्रिक भारत की तकदीर पश्चिम विरोधी नहीं है। चीन के साथ सकारात्मक रिश्तों को स्थिर बनाए रखें और साझा हित में काम करें। याद रहे चीन को हमसे लड़ने की जरूरत नहीं है। वह पाकिस्तान के जरिये भी हमसे लड़ सकता है। अपना ध्यान वहां केंद्रित करें।

3. अपने आसपास के इलाके को शांत करें। भारत को हर मोर्चे पर शत्रुतापूर्ण माहौल की जरूरत नहीं है। पाकिस्तान एक अलग मु्द्दा है लेकिन हर पड़ोसी रिश्ते को घरेलू राजनीति में खींचने से बचा जा सकता है। इससे विकल्प कम होते हैं।

4. अपने अवसर की पहचान करें और अमेरिका के साथ रिश्तों में समझदारी बरतें। भरोसा दोबारा कायम करने में समय लगेगा। याद रहे शीतयुद्ध का समय दोबारा नहीं आने वाला और अमेरिका विरोधी या पश्चिम विरोधी धड़ा नहीं बनेगा। एक बार यूक्रेन में शांति कायम होने के बाद पुतिन और ट्रंप दोबारा दोस्त बन जाएंगे। अमेरिका और चीन तो पहले ही सौदेबाजी में लग गए हैं।

हमें यूरोप से सीखने की जरूरत है। यह समझने की जरूरत है कि ट्रंप का दौर गुजर जाएगा। बस अपने राष्ट्रीय हित को कम से कम नुकसान होने देने का जतन करें। ट्रंप का समय समाप्त होने की प्रतीक्षा करें। ये वे सबक हैं जिन पर भारत को नजर डालनी चाहिए।

First Published - August 24, 2025 | 10:55 PM IST

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