प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने जो नई आर्थिक नीति अपनाई है, वह कामयाब होगी या नहीं यह जानने के लिए बेहतर समझ की आवश्यकता है। नई नीति में सरकारी कंपनियों का निजीकरण ही शामिल नहीं है बल्कि बिजली वितरण जैसे क्षेत्र भी शामिल हैं जहां उपभोक्ताओं को पसंद का आपूर्तिकर्ता चुनने की आजादी देने का वादा किया गया था। संपत्ति निर्माताओं की तारीफ करते हुए सरकार ने कंपनी और कर कानूनों का अपराधीकरण समाप्त करने और कर आकलन मेंं कर्मचारियों की भूमिका कम करने का भी वादा किया है। अनुकूल कारोबारी माहौल और कम शंकालु सरकार के वादे ने अधिकांश लोगों को चकित किया है। परंतु इसकी भूमिका नए श्रम कानूनों, कृषि विपणन बाजारों को खोलने के प्रस्ताव, खनन और रेल परिवहन में निजी क्षेत्र के प्रवेश और विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिए प्रोत्साहन के साथ ही तैयार हो गई थी। मोदी ने सात वर्ष पहले कहा था कि कारोबारी जगत में सरकार की कोई भूमिका नहीं है। लेकिन कारोबारी समुदाय को बदलाव अब महसूस हो रहा है।
इस मामले में सरकार को शायद अतीत मेंं उठाए गए कदमों की नाकामी याद आई हो। वस्तु एवं सेवा कर अपेक्षा के अनुरूप प्रदर्शन नहीं कर सका और जीडीपी की तुलना में कर राजस्व में कमी आई। गैर कर राजस्व के भी भविष्य में खास सुधरने की आशा नहीं है क्योंकि दूरसंचार, सरकारी कंपनियां और रिजर्व बैंक संसाधनविहीन हो चुके हैं। ऋण लेने, कंपनियों को बेचने और सरकारी परिसंपत्तियों के मुद्रीकरण के सिवा चारा ही क्या है? दूसरे शब्दों में कहें तो निजीकरण और सरकारी संपत्तियों के मुद्रीकरण की बात इसलिए उठी क्योंकि राजकोषीय मोर्चे पर हम तंगहाल हैं।
अन्य नीतियों को भी अधिक कामयाबी नहीं मिली है। बैंकिंग हो या मेक इन इंडिया, निर्यात हो या समग्र आर्थिक वृद्धि। लगता है कि कमर कसने का फैसला कर लिया गया है। हालांकि यह मोदी सरकार की बुनियादी प्रकृति नहीं है। यही वजह है कि कारोबारी जगत को लेकर उसके नए रुख और बीते समय में राजनीति और सार्वजनिक जीवन के क्षेत्र में अपनी मर्जी चलाने के उसके जोर में विसंगति नजर आ रही है। बाजार आधारित अर्थव्यवस्था जो निजी निवेश चाहती है वह बिना स्वतंत्र संस्थानों के अच्छी तरह संचालित नहीं होती। उसके लिए कार्यकारी अतियों पर नियंत्रण और निर्भय होकर बात कहने की आजादी भी जरूरी है। मोदी सरकार के लिए यह कहना मुश्किल होगा वह इन चीजों को बढ़ावा देती रही है क्योंकि यहां तो अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता के निर्णय तक लागू नहीं होते।
दूसरी तरफ रविंदर कौर ने हाल में प्रकाशित अपनी पुस्तक- ब्रांड न्यू नेशन: कैपिटलिस्ट ड्रीम्स ऐंड नैशनलिस्ट डिजाइन्स इन ट्वेंटी -फस्र्ट सेंचुअरी इंडिया- में एक दिलचस्प तर्क दिया है। उन्होंंने कहा है कि दक्षिणपंथी राजनीति व दक्षिणपंथी अर्थव्यवस्था में कोई विरोधाभास नहीं है। अपनी पुस्तक में कौर ने कहा है कि भारत की एक नई छवि तैयार करने में इन दोनों पहलुओं का सहयोग रहा है। देखने वाली बात यह होगी कि यह नई व्यवस्था काम कैसे करती है। दुनिया के अन्य हिस्सों में ऐसे प्रयोगों के नतीजे अलग-अलग रहे हैं। तुर्की में राष्ट्रपति रिसेप अर्दोआन के शासन में पूंजी लगातार देश से बाहर निकलने से वहां की मुद्रा लुढ़क गई है। दूसरी तरफ हंगरी में विक्टर ऑर्बन के शासन में करों में कमी किए जाने के साथ उपयोगिता शुल्क समाप्त कर दिए गए हैं। राजकोषीय घाटा और सार्वजनिक कर्ज नियंत्रण में हैं और आर्थिक वृद्धि तेज होने के बीच बेरोजगारी में कमी आई है। व्लादीमिर पुतिन के रूस में हालात खराब होते जा रहे हैं। रूस की अर्थव्यवस्था सुस्त पड़ रही है और सरकार आलोचकों एवं पुतिन की नीतियों से असहमत लोगों की आवाज दबाने की कोशिश में है।
दूसरी तरफ आप चीन का उल्लेख कर सकते हैं जिसने उइगर समुदाय के उत्पीडऩ के साथ विदेशी निवेश के स्वागत के विरोधाभास से निपटने में उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। राष्ट्रपति शी चिनफिंग चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में अपने विरोधियों एवं प्रतिद्वंद्वियों को दरकिनार या कैद कर रहे थे और चीन पूरी दुनिया का कारखाना बन गया। इसी तरह चीन ने दुनिया का झुकाव हासिल करने के साथ ही वैश्विक तकनीकी दिग्गजों को अपने कानून के मुताबिक ढलने या चले जाने को मजबूर किया।
मोदी के भारत में कुछ उन रवैयों की हल्की आहट सुनाई देती है लेकिन चीन से कुछ सबक लेने भर से काम नहीं चलेगा क्योंकि चीन योजनाओं पर अमल में कहीं बेहतर है जबकि खुद मोदी के मुताबिक भारत के पास आईएएस हैं। भारत में किसान राजधानी में प्रवेश के तमाम स्थानों को महीनों तक बंद कर सकते हैं लेकिन सरकार चीन की तरह उनके दमन के बारे में सोच भी नहीं सकती है। अगर सच है कि भारत बुनियादी रूप से शासन करने लायक नहीं है तो फिर मोदी के लिए यही सही है कि समुचित तैयारी के बगैर एक हद तक कामयाब होने की पुरानी भारतीय परंपरा ही जारी रहे।
