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जेन स्ट्रीट मामला भारत के वित्तीय बाजार सुधारों के लिए एक चेतावनी

इस हालिया मामले में हुए खुलासों को भारत के वित्तीय बाजारों की बुनियाद की पुनर्समीक्षा का आधार बनाना चाहिए। बता रहे हैं

Last Updated- July 22, 2025 | 10:16 PM IST
Jane Street

आर्बिट्राज का अर्थ होता है एक ही समय में किसी परिसंपत्ति को अलग-अलग बाजारों में खरीदना और बेचना ताकि कीमतों में अंतर का लाभ उठाया जा सके। आर्बिट्राज अलग-अलग बाजारों में एक ही परिसंपत्ति की कीमतों को करीब लाने में मदद करता है जिससे वित्तीय बाजारों को अधिक कुशल बनाने में मदद मिलती है। दूसरी ओर बाजार के दुरुपयोग का मतलब अनैतिक और अवैध गतिविधियों की श्रृंखला होता है जो वित्तीय बाजारों को कमजोर कर सकती हैं।

जेन स्ट्रीट के कदम विधिक रूप से मूल्य अंतर का लाभ लेने वाले यानी आर्बिट्राज थे या फिर वे बाजार दुरुपयोग से संबंधित थे? यही प्रश्न भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी द्वारा हाल में आरंभ की गई प्रवर्तन कार्रवाई में अहम हैं। सेबी का आदेश सार्वजनिक है, लेकिन अंतिम निर्णय को तब तक स्थगित रखना उचित है जब तक कि जेन स्ट्रीट का बचाव सामने नहीं आ जाता है और मामला समुचित न्यायिक दायरे में निपटाया नहीं जाता है। परंतु यह प्रकरण चर्चा का एक अहम अवसर मुहैया कराता है।

इस खास मामले से परे एक अहम बात और है और वह है कि देश के वित्तीय बाजारों की मौजूदा सेहत और उनकी भविष्य की अनुमानित परिस्थितियों की कठिन जांच-परख। सुचारु ढंग से काम कर रहे वित्तीय बाजार अर्थव्यवस्था के तंत्रिका तंत्र की तरह काम करते हैं। वे सूचनाओं का सही प्रसंस्करण करते हैं, पूंजी का आवंटन करते हैं और जोखिम को कम से कम रखने को सुविधाजनक बनाते हैं। हमारे हाजिर शेयर बाजार और डेरिवेटिव्स बाजार का विकास शायद देश के आर्थिक सुधारों में सबसे अहम और निर्विवाद सफलता है। इसके बावजूद यह कामयाबी अब कुछ समस्याओं को भी दर्शाने लगी है। ऐसे में बौद्धिक रूप से ईमानदार आकलन करने की आवश्यकता है ताकि इसकी निरंतर अहमियत सुनिश्चित की जा सके। हमारा ध्यान उस बुनियादी चिंता की ओर होना चाहिए जो देश की वित्तीय प्रणाली के भविष्य के प्रभाव और उसकी विश्वसनीयता के लिए खतरा पैदा कर रही है। वह है:  हाजिर बाजार का व्यापक और बाधित करने वाला असर जो नियामकीय व्यवस्था की गंभीर समस्याओं की बदौलत और भी जटिल हो गया है।

मजबूत और नकदीकृत हाजिर बाजार किसी भी बेहतर वित्तीय तंत्र की आधारशिला होता है। यह सही मूल्य तय करने का मौका देता है और सभी डेरिवेटिव साधनों की ईमानदारी को रेखांकित कता है। अफसोस की बात है कि भारतीय इक्विटी हाजिर बाजार फिलहाल गतिविधियों के सीमित होने का संकेत दे रहा है। काफी हद तक इसका श्रेय प्रतिभूति लेनदेन कर यानी एसटीटी तथा सेबी के कई नियमों के सामूहिक असर को दिया जा सकता है। यह सही है कि इन उपायों के पीछे उद्देश्य सराहनीय थे लेकिन उनका व्यावहारिक क्रियान्वयन अक्सर अनचाहे और खराब परिणाम लाने वाला रहा।

इसे प्रमाणित करने वाले तमाम आंकड़े हमारे पास हैं। टर्नओवर अनुपात की बात करें तो वह बाजार नकदीकरण का स्पष्ट संकेत होता है। ऐतिहासिक रूप से देखा जाए तो भारतीय बाजार के लिए यह अनुपात अक्सर एक से अधिक रहा है जो स्वस्थ ट्रेडिंग गतिविधियों को दर्शाता है। उदाहरण के लिए वित्त वर्ष 2008-09 में यह 1.24 था। इसके विपरीत हाल के तीन वित्तीय वर्षों में और खासकर बाजार पूंजीकरण के मुताबिक शीर्ष 10 कंपनियों में यह टर्नओवर अनुपात कम हो गया और क्रमश: 0.50, 0.47 और 0.64 रहा। यह निरंतर गिरावट इस बात का प्रमाण है कि हाजिर बाजार में सक्रियता और नकदीकरण यानी तरलता में कमी आई है।

इस नीतिगत संयोजन से उत्पन्न सबसे चिंतित करने वाली संरचनात्मक विकृति यह रही है कि इसमें विकल्प बाजार पर बहुत अधिक और काफी हद तक अतिरेकपूर्ण तरीके से जोर दिया गया है। दुनिया के विकसित वित्तीय बाजार जहां हाजिर, वायदा और विकल्प क्षेत्रों में एक संतुलन का प्रदर्शन करते हैं वहीं भारतीय बाजार ढांचे में विकल्प कारोबार का दबदबा है जबकि वायदा और हाजिर कारोबार काफी कमजोर हैं। यह विसंगति एक स्वाभाविक बाजार का उदय नहीं दिखाती। यह राज्य के अत्यधिक हस्तक्षेप का सीधा परिणाम है यानी सेबी की नियामक शर्तों और वित्त मंत्रालय की राजकोषीय नीतियों का मिश्रण। जब बुनियादी हाजिर क्षेत्र लेनदेन की बढ़ी हुई लागत के कारण कम आकर्षक हो जाता है तो बाजार गतिविधियां अनिवार्य रूप से उन सेगमेंट की ओर आकर्षित होंगी जिन्हें कम बोझिल माना जाता है। भले ही उनकी बुनियादी आर्थिक दक्षता कुछ भी हो।

एक कारक जो वित्तीय बाजारों में नकदी की स्थिति और बाजार क्षमता को आकार देता है वह है नियमन की गुणवत्ता। वित्तीय बाजार कारोबारी व्यवस्था बनाने, प्रक्रियाओं और ज्ञान में अधिक निवेश करेंगे अगर उन्हें एक आधुनिक और सक्षम नियामक के रूप में सेबी पर अधिक भरोसा होगा। एक ऐसे नियामक के रूप में जो केवल वास्तविक रूप से गलती करने वालों के विरुद्ध प्रवर्तन संबंधी कदम उठाता है।

इस बारे में अन्य बातों के साथ-साथ ‘छद्म कानून’ के रूप में वर्णित किए जा सकने वाले तौर तरीकों पर सेबी का बढ़ता सहारा गंभीर चिंता का विषय है। सेबी अधिनियम नियामक को सार्वजनिक टिप्पणियों और संसदीय निगरानी सहित पारदर्शी और परामर्श संबंधी प्रक्रियाओं के माध्यम से विनियमन लागू करने का अधिकार देता है। यह व्यवस्था इसलिए बनी है ताकि जवाबदेही और लोकतांत्रिक वैधता सुनिश्चित की जा सके। हकीकत में सेबी अक्सर इन तय मानकों का उल्लंघन करता है। इसके लिए परिपत्र, शब्दावलियों और दिशानिर्देश आदि का सहारा लिया जाता है। ये व्यावहारिक रूप से बाजार प्रतिभागियों पर बाध्यताएं आरोपित करते हैं।

ऐसा करने से प्रक्रियागत सुरक्षा ढांचा बाधित होता है। इसका परिणाम एक विभाजित, अनुमान से परे और अक्सर अस्पष्ट विधिक ढांचे के रूप में सामने आता है। ऐसे में विनियमित संस्था के लिए कानूनों का पालन बहुत कठिन हो जाता है। इससे नियामकीय अनिश्चितता की स्थिति बनती है जो नवाचार को बाधित करता है और देश के वित्तीय बाजारों में कारोबार करने की लागत बढ़ जाती है।

नियामक के भीतर मजबूत सरकारी क्षमता के निर्माण के उद्देश्य से एक बुनियादी सुधार कार्यक्रम की तत्काल आवश्यकता है। इस व्यापक सुधार में निम्न बातें शामिल होनी चाहिए:

1.स्पष्ट परिभाषा देने और उच्च साक्ष्य सीमाएं स्थापित करने के लिए सेबी धोखाधड़ी और अनुचित व्यापार व्यवहार निषेध (एफयूटीपी) नियमों को नए सिरे से लिखना।

  1. मानकीकृत प्रक्रियाओं और जांच तकनीकों को रेखांकित करते हुए एफयूटीपी जांच के लिए आंतरिक मैनुअल का निर्माण करना।
  2. साक्ष्य अनुशासन और विश्लेषणात्मक परिशुद्धता को बढ़ावा देने के लिए मैनुअल कार्यान्वयन पर सेबी कर्मचारियों को प्रशिक्षण देना।

यह त्रिपक्षीय रुख राज्य क्षमता तैयार करने, नियामकीय कदम सुनिश्चित करने और उन्हें कानूनी दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए आवश्यकता है।

ऐसे में जेन स्ट्रीट का मामला भारत की वित्तीय प्रणाली के व्यवस्थित रचनात्मक विकास में मौजूद अधिक गहरी और स्थायी चुनौती की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए संकेतक भर है। परिवर्तन का मूल सिद्धांत स्थिर रहता है। वह कहता है कि उच्च ज्ञान से उच्च नीतिगत कार्य होते हैं। वित्तीय क्षेत्र के सुधारों में भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण तरक्की एक सुसंगत साझेदारी की विशेषता वाले दौर में हुई है। वित्त मंत्रालय, सेबी, एक्सचेंजों और स्वतंत्र बौद्धिक विचारों से युक्त एक सहकार्यात्मक गठबंधन।

इस सहयोगी भावना को दोबारा स्थापित करने के लए वित्त मंत्रालय को एक ऐसे माहौल का निर्माण करना होगा जहां गहन विश्लेषण, खुला और जानकारीपरक संवाद और साक्ष्य आधारित नीति-निर्माण के प्रति अटूट प्रतिबद्धता सर्वोपरि हो। केवल ऐसे प्रयासों से ही हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि भारत के वित्तीय बाजार अपनी अपरिहार्य भूमिका निभाएं।

(लेखक आईसीपीपी में मानद सीनियर फेलो और पूर्व अफसरशाह हैं) 

First Published - July 22, 2025 | 10:06 PM IST

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