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भारत में महिलाओं के लिए नौकरी पाना अभी भी चुनौतीपूर्ण

भारत को महिला सशक्तिकरण के लिए अधिक प्रयास करने की जरूरत

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बीएस संपादकीय   
Last Updated- October 26, 2023 | 10:30 PM IST

भारत में महिलाओं की कम श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) को भारतीय समाज में व्याप्त पितृ सत्तात्मक सोच और भारतीय कारोबारी जगत के पूर्वग्रह का उदाहरण माना जाता है।

यह बात हालिया सर्वेक्षणों पर भी लागू होती है जो इशारा करते हैं कि पुरुषों द्वारा परिवार पालने के लिए कमाना ही प्रतिमान है, वहीं महिलाओं पर घर के कामकाज का असंगत दबाव होता है और श्रम से होने वाली आय में से 82 फीसदी पर पुरुषों का कब्जा है।

सलाहकार सेवा कंपनी ईवाई इंडिया के हालिया विश्लेषण में ये सभी कारक नजर आए। कंपनी ने 2022-23 में 1,040 सूचीबद्ध कंपनियों में नौकरियों के रुझान का अध्ययन किया। इसके साथ ही अध्ययन ने सार्वजनिक शासन की एक अहम नाकामी की ओर भी संकेत किया जिसके तहत कामकाजी महिलाओं के लिए अनुकूल माहौल नहीं बन पाया।

ईवाई इंडिया का अध्ययन दिखाता है कि भारत के कारोबारी जगत में जब हम साधारण लिपिकीय स्तर से कार्यकारी स्तर की ओर बढ़ते हैं तो इसके साथ ही विविधता में भी इजाफा होता है।

अध्ययन में पाया गया कि प्रबंधकीय या प्रशासनिक स्तर के 70 लाख स्थायी कर्मचारियों में 23 फीसदी महिलाएं थीं। यह अपने आप में बहुत कम आंकड़ा है क्योंकि 2017-18 से उच्च शिक्षा में महिलाओं का नामांकन पुरुषों से अधिक है।

इससे यह संकेत भी मिलता है कि अर्हता को महिलाओं को काम पर रखने के अवरोध के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। अनुमान के मुताबिक ही सूचना प्रौद्योगिकी और वित्तीय सेवा जैसे अपेक्षाकृत नए ओर प्रतिस्पर्धी क्षेत्रों में ही पुरुषवाद कम नजर आया।

सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में कर्मचारियों में 34 फीसदी महिलाएं थीं जबकि कामगारों में उनका प्रतिशत 42 था। वहीं वित्तीय सेवा क्षेत्र में यह आंकड़ा क्रमश: 23 और 28 फीसदी था।

निचले दायरे के रोजगार की बात करें तो वहां तस्वीर ज्यादा खराब नजर आती है। यहां स्थायी कर्मचारियों में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 11 फीसदी थी। यह आंकड़ा भी केवल इसलिए इतना है क्योंकि टेक्सटाइल क्षेत्र के स्थायी कर्मचारियों में 42 फीसदी महिलाएं हैं।

यह दिखाता है कि मातृत्व लाभ, झूला घर, शौचालय और सुरक्षित परिवहन जैसे सहायक ढांचे का किस कदर अभाव है। ये ऐसा निवेश है जो छोटी और मझोली कंपनियां यानी भारतीय उद्यमी जगत की ज्यादातर कंपनियां नहीं करना चाहती हैं क्योंकि वे पहले ही बहुत कम मार्जिन पर कारोबार करती हैं। यह संभव है कि अगर ज्यादातर गैरसूचीबद्ध इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग को ध्यान में रखा जाए तो महिलाओं की तादाद में काफी इजाफा हो जाएगा।

टेक्सटाइल्स की तरह यहां भी महिलाओं को काम पर रखने का झुकाव अधिक है क्योंकि इस कारोबार में भी असेंबली का काम अधिक होता है और महिलाओं को इसके अनुकूल माना जाता है। परंतु इंजीनियरिंग क्षेत्र की बड़ी कंपनियां जो महिलाओं के अनुकूल निवेश कर सकती हैं, उन्होंने भी इसमें ढिलाई बरती। परंतु ईएसजी यानी पर्यावरण, समाज और संचालन को लेकर तैयार नई अवधारणा के जोर पकड़ने के बाद कई कंपनियों ने महिलाओं की नियुक्ति बढ़ाने का इरादा जताया है।

परंतु ढांचागत परिचालन संबंधी कमजोरी जो महिलाओं की नियुक्ति की राह में बाधा बनती है, उसमें इजाफे की एक वजह यह भी है कि भारत महिलाओं के लिए सुरक्षित जगह नहीं है। कंपनियां सार्वजनिक स्थानों पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए सार्वजनिक परिवहन प्रणाली या कानून प्रवर्तन के भरोसे नहीं रह सकती हैं। बच्चों की देखभाल की गुणवत्तापूर्ण नीतियों की तो बात ही छोड़ दें।

इन कमियों की बदौलत कंपनियों का क्षतिपूर्ति व्यय बढ़ता है और महिलाओं को नियुक्ति देने की लागत में इजाफा होता है। ध्यान देने वाली बात यह है कि दक्षिण पूर्व एशिया के अधिकांश देशों में एलएफपीआर भारत की तुलना में बेहतर है।

वियतनाम में यह 60 फीसदी से अधिक है। ये तमाम देश महिलाओं को सार्वजनिक अधोसंरचना पर भरोसा करने को प्रेरित करते हैं जिनके भरोसे वे काम करने जा सकती हैं। उन्हें इसके सामाजिक-आर्थिक लाभ भी मिल रहे हैं। भारत भी वहां पहुंच सकता है, बशर्ते राजनीतिक बहस जाति और धर्म से परे हटकर महिला-पुरुष समता जैसे अधिक व्यावहारिक विषय पर केंद्रित हो।

 

First Published : October 26, 2023 | 10:30 PM IST