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देश में अमन कायम करना सबसे जरूरी

Last Updated- December 15, 2022 | 2:00 AM IST

यह विचित्र सत्य है कि बेहतरीन राजनीतिक हास्य तानाशाही के दौर में ही पाया जाता है। यह कानाफूसी और खतरे के रोमांच के बीच पनपता है। यह बात मैंने सैन्य शासित पाकिस्तान और पूर्वी और मध्य यूरोप के साम्यवादी शासन (अतीत में) वाले देशों की यात्राओं से जानी।
भारत की मौजूदा स्थिति मुझे सोवियत संघ के आखिरी वर्षों की एक जानी-पहचानी कहानी की याद दिलाती है। लेनिन, स्टालिन, ब्रेझनेफ और गोर्बाचेफ एक ट्रेन के लक्जरी सलून में साइबेरिया से गुजर रहे हैं। ट्रेन निर्जन साइबेरिया में कहीं रुक जाती है। आगे जाने के लिए पटरी भी नहीं है। तो क्या किया जाए? लेनिन ने कहा कि करीब के कुछ गांव वालों को एकत्रित कर ‘द इंटरनैशनल’ गान गाते हैं और वे खुशी-खुशी आगे की पटरी बिछा देंगे। स्टालिन ने कहा कि यह बेवकूफी होगी। उन्होंने कहा कि लोगों को एकत्रित कर उनमें से कुछ को गोली मार दी जाए। बाकी लोग खुशी से या मन मारकर काम पूरा करेंगे। गोर्बाचेफ ने कहा कि वह अपने मित्र रोनल्ड रीगन को फोन कर मशविरा करना चाहेंगे। बे्रझनेफ अब तक खामोश थे। उन्होंने कहा कि सलून में वोदका की कमी नहीं है। लुत्फ लेते रहें और सोचते रहें कि ट्रेन चल रही है। अब अपने देश के हालात पर नजर डालिए। कोरोनावायरस संक्रमण और उससे होने वाली मौत के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं। आर्थिक संकेतकों का पतन हो चुका है और चीन ने अलग मुसीबत खड़ी कर रखी है। परंतु प्रधानमंत्री और सरकार एक के बाद दूसरा जुमला उछालने में लगे हैं।
मेक इन इंडिया के आवरण में आत्मनिर्भर भारत की नई शुरुआत से लेकर उत्तर प्रदेश की अर्थव्यवस्था को एक लाख करोड़ रुपये का बनाने तक, चीनी ऐप पर प्रतिबंध, प्रति 10 लाख सबसे कम कोविड मामलों और मौत का दावा और आर्थिक गिरावट के दौर में भी उसकी सफलता का जश्न मनाना ऐसी ही बात हैं।
यह ब्रेजनेफ की बात से अलग कैसे है? वोदका भले नहीं है आप मानते रहिये कि ट्रेन चल रही है। यह स्तंभ द प्रिंट के साथ-साथ देश के बेहतरीन कारोबारी अखबार बिज़नेस स्टैंडर्ड में भी प्रकाशित होता है। मैं आंकड़े देने में संकोच करता हूं क्योंकि बिज़नेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित टी एन नाइनन का स्तंभ ‘साप्ताहिक मंथन’ आंकड़ों से भरपूर होता है। आंकड़े बता रहे हैं कि वर्ष की पहली तिमाही में देश की अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी की गिरावट आई है। अर्थशास्त्री अरविंद पानगडिय़ा, जिनकी मैं बहुत इज्जत करता हूं, का कहना है कि गिरावट काफी हद तक कोविड के कारण है लेकिन दो सवाल फिर भी उठते हैं।
कोरोनावायरस के आगमन के पहले दो वर्ष में जीडीपी वृद्धि का रुझान क्या था? भारत में इससे पहले चार तिमाहियों से वृद्धि दर घट रही थी। यह ऐसा ही है मानो बिना बिजली या ब्रेक के लुढ़क रही ट्रेन के सामने अचानक पटरी समाप्त हो जाए। वायरस के आने के बाद के दिनों की बात करने से पहले हमें यह याद रखना होगा कि उसके पहले हम कहां थे। वायरस ने हमारी दिशा नहीं बदली। इसने गिरावट तेज कर दी।
महामारी को ‘ईश्वरीय कृत्य’ बताया गया। राज्यों को जीडीपी में हिस्सा देने से इनकार को आप उचित मानें या नहीं लेकिन यह हुआ। यह भी सही है कि डॉनल्ड ट्रंप, बोरिस जॉनसन या जैर बोल्सोनारो की तरह मोदी सरकार पर ढिलाई बरतने का इल्जाम नहीं लग सकता।
बल्कि उसने तो अति ही कर दी। लॉकडाउन बहुत कड़ा था और उसे बहुत जल्दी लगा दिया गया। ‘जान है तो जहान है’ जुमले ने लोगों को डरा दिया और लाखों श्रमिक अपने साथ वायरस को दूरदराज तक ले गए। संकट से निपटने के तरीके पर भी सवाल हैं। अत्यधिक केंद्रीकरण ने विफलताओं को जन्म दिया, राज्यों में विश्वास की कमी, केंद्र द्वारा रिमोट से नियंत्रण आदि। राज्यों को अधिकार और जवाबदेही पहले ही देनी चाहिए थी। अभी भी आपदा प्रबंधन अधिनियम को लागू करने की कोई ठोस वजह नहीं है। ऐसे अधिकारों के कारण ही भारतीय चिकित्सा शोध परिषद (आईसीएमआर) जैसे कम नाम वाले संस्थान भी कुछ सप्ताह में टीका तैयार करने का फरमान देने लगते हैं। यह भी मानना होगा कि मोदी सरकार ने न तो चीन को भड़काया न उसे न्योता दिया। चीन ने हरकत इसलिए की क्योंकि उसने देखा कि भारत कोविड संकट में उलझा है और उसकी अर्थव्यवस्था ऐसे वक्त  में कमजोर पड़ रही है जब अमेरिका का ध्यान भंग है। मैं पहले भी कह चुका हूं कि चीन की प्रतिक्रिया कश्मीर के दर्जे में बदलाव और अक्साई चिन पर दावा दोहराने के कारण हो सकती है। यह एक संभावना है और कह सकते हैं कि यह जोखिम नहीं लेना था। परंतु वह आपका नजरिया है।
चीन की चुनौती से निपटना हकीकत है। सेना को उचित सामरिक स्वतंत्रता दी गई है। आधिकारिक और राजनीतिक बयानबाजी नियंत्रित है और सन 1962 में नेहरू ने दबाव या नाराजगी में जो गलत प्रतिक्रिया दी थी उससे बचा गया है। तो शिकायत किस बात की है? यदि भारत तिहरे संकट में है तो याद करना होगा इसकी शुरुआत कैसे हुई। बात दोबारा अर्थव्यवस्था पर आएगी और वही पुरानी बात कि 2017 तक भारत की आर्थिक वृद्धि बहुत अच्छी थी। सन 2011 के बाद काफी बेहतर हालात थे। गलती कहां हुई? अर्थव्यवस्था के पहिए किसने थामे या किसने गति पकड़ रही ट्रेन की पटरियां अचानक उखाड़ दीं?
यहां इस जटिल परिस्थिति में मानव हस्तक्षेप का तत्त्व आता है। कोविड ने गत मार्च के बाद जो कुछ किया हो लेकिन हम आर्थिक वृद्धि में ठहराव के लिए भगवान या चीन को दोष नहीं दे सकते। इसके पीछे नोटबंदी से लेकर आरबीआई की अस्थिरता और सरकारी बैंकों को लेकर अनिर्णय जैसे तमाम गलत और अविचारित कदम शामिल हैं। इनके चलते वृद्धि दर उस स्तर पर पहुंच गई जिसे हमें सन 1980 के दशक में पीछे छोड़ आए थे। इसके बाद संरक्षणवाद जैसा आत्मघाती कदम। यहां तक कि पानगडिय़ा जो सरकार के आलोचक नहीं हैं, उन्होंने भी एक बातचीत में मुझसे कहा कि संरक्षणवाद हमारी वृद्धि दर को दो प्रतिशत कम करेगा।
ऐसे गंभीर, विविध और आपस में गुंथे हुए संकट के दौर में देश और सरकार को राजनीतिक गुंजाइश और भरोसा चाहिए। उसे आंतरिक तौर पर यह देखना होगा कि उसने इन मसलों से निपटने के लिए बेहतरीन माहौल बनाया है या नहीं। या फिर वह मोदी के मोह में अभी किसी की परवाह न करने की रट पर अडिग है? मैं इस स्तंभ में लगातार लिखता रहा हूं कि भारत अब आंतरिक और बाहरी तौर पर सर्वाधिक सुरक्षित स्थिति में है। सन 1960 के दशक के संकटग्रस्त दौर के बालक के लिए यह बहुत शानदार अहसास था लेकिन क्या अब भी ऐसा है?
कुछ चीजें उलट गई हैं। बाहरी मोर्चे पर भारत दो मोर्चों पर दिक्कत का सामना कर रहा है जबकि कुछ अन्य पड़ोसी भी किसी न किसी वजह से धैर्य खो रहे हैं। चीन अपनी चाल चल रहा है और वह ऐसा क्यों न करे?
विपरीत अंतरराष्ट्रीय माहौल और पड़ोसियोंं के बीच किसी भी सरकार के पास सीमित विकल्प होते हैं। परंतु क्या घरेलू राजनीति में भी लगातार टकराव बना रहना जरूरी है? मौजूदा दौर को छोड़ दें तो बाहरी चुनौती के समय हमेशा भारत की एकता एक रिकॉर्ड रही है। यह जिम्मेदारी विपक्ष की नहीं है।
जब सीमा पर एक मजबूत सेना हथियारबंद हो कर चुनौती दे रही हो तो पहला काम यही होता है कि देश के भीतर शांति कायम की जाए। पुराने दिनों में राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक बुलाई जाती थी। हम जानते हैं कि बिहार और पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव और मध्य प्रदेश के उपचुनाव करीब हैं। लेकिन ऐसे संकट के समय सरकार को जनता और राजनीतिक एकजुटता की जरूरत होती है। भारत के आकार का विविधताओं से भरा देश सामाजिक समरसता के बिना मजबूत दुश्मन से नहीं लड़ सकता। मैं जानता हूं कि यह आदर्शवादी बात है लेकिन क्या हम कुछ महीनों के लिए विभाजनकारी राजनीति छोड़कर इन संकट पर ध्यान दे सकते हैं। यह दायित्व पूरी तरह प्रधानमंत्री और उनकी सरकार पर है।

First Published - September 13, 2020 | 11:39 PM IST

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