जब कोयला और प्राकृतिक गैस दोनों जीवाश्म ईंधन हैं तो इनके बीच अंतर करने का क्या तुक है? मैंने अपने स्तंभ के पिछले अंक में यह प्रश्न पूछा था क्योंकि यह जलवायु न्याय से जुड़ा हुआ प्रश्न है और उससे भी महत्त्वपूर्ण बात, यह उस गति और पैमाने की व्यवहार्यता से जुड़ा हुआ है जिस गति से जीवाश्म ईंधन पृथ्वी के गर्म होने के लिए जिम्मेदार है।
तथ्य यह है कि दुनिया की आबादी के करीब 70 फीसदी ने कार्बन उत्सर्जन में योगदान नहीं दिया है लेकिन आज यह आबादी ऊर्जा के लिए कोयले पर बहुत हद तक निर्भर है। अमीर देशों ने कोयले से प्राकृतिक गैस का रुख कर लिया है जो अपेक्षाकृत स्वच्छ है। प्राकृतिक गैस, कोयले की तुलना में मीथेन के अलावा लगभग आधी कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ती है। परंतु ऊर्जा की उनकी आवश्यकता को देखते हुए समझ सकते हैं कि इन देशों ने अतीत में बहुत अधिक उत्सर्जन किया और अभी भी कर रहे हैं। यह वैश्विक कार्बन बजट में उनकी हिस्सेदारी की तुलना में एकदम असंगत है।
अब स्वच्छ ऊर्जा में बदलाव का बोझ उन देशों पर है जो उत्सर्जन के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं और इस बदलाव की दृष्टि से भी सबसे कम सक्षम हैं। यह न केवल अनुचित है बल्कि हकीकत से दूर भी है। यह बात जलवायु परिवर्तन से लड़ाई को और अधिक कठिन बनाती है।
मौजूदा वैश्विक प्रयास दो स्तरों पर हो रहे हैं। पहला, गरीब देशों में कोयला आधारित ताप बिजली परियोजनाओं को वित्तीय सहायता बंद करना। दूसरा, ताप बिजली घरों को बंद करने और नवीकरणीय ऊर्जा की ओर बढ़ने के लिए वित्तीय सहायता उपलब्ध कराना। जी7 देशों के जस्ट एनर्जी ट्रांजिशन पार्टनरशिप (जेईटी-पी) में अब दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया और वियतनाम शामिल हैं। अभी इस बात पर चर्चा जारी है कि क्या जेईटी-पी बदलाव के लिए जरूरी मात्रा में फंड मुहैया करा सकेगी।
नई नवीकरणीय ऊर्जा परियोजनाओं की लागत अभी भी कोयला आधारित परियोजनाओं की स्थापना लागत से दो से तीन गुनी है। यह स्थिति तब है जबकि सौर और पवन ऊर्जा की लागत में लगातार कमी की गई है। यानी जब तक वित्तीय मदद जरूरत के मुताबिक नहीं होगी तब तक स्वच्छ ऊर्जा की दिशा में अपेक्षित बदलाव देखने को नहीं मिलेगा।
ऐसे में क्या विकल्प शेष हैं? आइए भारत के संदर्भ में बात करते हैं जहां हमें कोयले को जलाने के कारण प्रदूषित हो रही हवा की समस्या से निपटना है। वैश्विक राजनीति की स्थिति चाहे जितनी खराब हो हम कोयले का बचाव करने वाल नहीं बन सकते। स्थानीय वायु प्रदूषण को कम करना और जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करना हमारे हित में है।
लेकिन हमें ऐसा करते समय अपने हितों को ध्यान में रखना होगा। हमारी रणनीति ऐसी होनी चाहिए कि हम देश में विद्युतीकरण की दर बढ़ाएं ताकि हम अपने लाखों औद्योगिक बॉयलरों में कोयले की खपत को कम कर सकें। ये बॉयलर किफायती नहीं रह गए हैं और बहुत अधिक प्रदूषण फैला रहे हैं। हमें गाड़ियों को भी बिजली चालित बनाने की ओर बढ़ना होगा ताकि शहरों में प्रदूषण को कम किया जा सके।
लाख टके का सवाल यह है कि यह बिजली आखिर उत्पन्न कैसे होगी? यहां हमें जेईटी-पी को शामिल करना चाहिए। हमारा पहला काम है कोयले पर निर्भरता कम करन जबकि इस बीच हम ऊर्जा आपूर्ति में इजाफा कर रहे हैं। इसका अर्थ यह है कि भारत सरकार ने जो कदम उठाने की प्रतिबद्धता जताई है, उसी दिशा में हमें और आगे बढ़ना होगा। कोयले के इस्तेमाल को सीमित करने और स्वच्छ प्राकृतिक गैस तथा नवीकरणीय ऊर्जा में निवेश करना है।
देश के ऊर्जा मिश्रण में कोयले से बनने वाली बिजली की निर्भरता को 70 फीसदी से कम करके 50 फीसदी करना है। इसके लिए नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य को 2030 तक 450 गीगावॉट से बढ़ाकर 650 से 700 गीगावॉट करना होगा। इस पैमाने पर बदलाव लाने के लिए काफी धन की जरूरत होगी, खासतौर पर अगर हमें नवीकरणीय ऊर्जा की नई क्षमताओं की लागत को कम रखना हो ताकि ऊर्जा की कीमत कम रह सके। यहां अंतरराष्ट्रीय साझेदारी की जरूरत पड़ सकती है। वित्तीय लागत कम करने और अतिरिक्त वित्तीय सहायता हासिल करने, दोनों कामों में उसकी जरूरत पड़ेगी। जेईटी-पी को इस पर ही ध्यान देना चाहिए ताकि किफायती दरों पर धन जुटाया जा सके और भविष्य में स्वच्छ ऊर्जा मिल सके।
यह सवाल फिर भी बाकी है कि हम मौजूदा कोयला संयंत्रों का क्या करेंगे? हमें इन संयंत्रों को भी स्वच्छ बनाने का प्रयास करना होगा। केंद्र सरकार के पर्यावरण, वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 2015 में मानक उत्सर्जन को लेकर जो अधिसूचना जारी की थी उसे लागू करने में और टालमटोल नहीं करनी चाहिए।
इससे मौजूदा बिजली संयंत्रों से होने वाले स्थानीय वायु प्रदूषण में कमी आएगी। हमें प्राकृतिक गैस आधारित बिजली संयंत्रों का भी रुख करना चाहिए। हमारे देश में 20 गीगावॉट क्षमता ऐसी है जिसका परिचालन नहीं हो रहा है, उसे गति देने की आवश्यकता है। इसके लिए हमें सस्ती दरों पर प्राकृतिक गैस चाहिए और हमारी यही मांग होनी चाहिए। इसके अलावा हमें यह देखना होगा कि मौजूदा कोयले का कैसे बेहतर इस्तेमाल किया जाना चाहिए? पुराने संयंत्रों को बंद किया जाना चाहिए लेकिन इसके लिए ऐसी योजना तैयार करनी चाहिए जिससे श्रम और भू संसाधनों का स्वच्छ ऊर्जा में सही इस्तेमाल हो सके।
वैश्विक समुदाय को अपने प्रस्तावों पर नए सिरे से काम करने की जरूरत है। पहले जेईटी-पी को स्वच्छ ऊर्जा बदलाव के लिए सक्षम बनाना होगा। इसे नई अधोसंरचना को स्वच्छ बनाने और जलवायु परिवर्तन के लिहाज से बेहतर बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि वित्तीय सहायता की लागत को उभतरे बाजारों के अनुकूल बनाना।
वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन की प्रक्रिया में कोयला और प्राकृतिक गैस आदि सभी शामिल होने चाहिए। इससे न केवल यह पता चलेगा कि अमीर देशों का प्राकृतिक गैस का कोटा खत्म हो चुका है बल्कि उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों को किफायती दर पर गैस भी उपलब्ध होगी। ये देश वैश्विक तथा स्थानीय उत्सर्जन की दोहरी समस्या से जूझ रहे हैं। जलवायु परिवर्तन का विज्ञान समावेशन और जवाबदेही की राजनीति भी है। हमें इस बात को समझना होगा।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वायरनमेंट से संबद्ध हैं)