जून के अंतिम सप्ताह में भारतीय स्टेट बैंक के एक कंसोर्टियम को कर्जदार विजय माल्या की एक कंपनी के शेयरों की बिक्री से 5,824.5 करोड़ रुपये मिले। माल्या के स्वामित्व वाली किंगफिशर एयरलाइंस पर विभिन्न बैंकों के करीब 9,000 करोड़ रुपये बकाया थे। इस तरह बैंकों को एयरलाइन पर बकाया कर्ज की करीब 70 फीसदी राशि वसूल हो गई। अन्य जब्त परिसंपत्तियों की बिक्री से उन्हें और रकम मिलेगी।
कुछ नए खलनायक भी सामने आए हैं। वीडियोकॉन समूह पर कुल 64,838.63 करोड़ रुपये बकाया थे लेकिन कर्जदाताओं को सिर्फ 2,962.02 करोड़ रुपये ही मिल पाएंगे। अनिल अग्रवाल की अगुआई वाले वेदांत समूह का वीडियोकॉन समूह की कंपनियों पर नियंत्रण हो जाएगा। शिवा इंडस्ट्रीज ऐंड होल्डिंग्स लिमिटेड पर बकाया 4,863 करोड़ रुपये के बरक्स सिर्फ 318 करोड़ रुपये का एकमुश्त समाधान प्रस्ताव मिला है।
एक प्रमुख उद्योगपति एवं एक मजदूर संगठन ने अपने ट्वीट संदेशों में इसे ‘दोस्ताना पूंजीपतियों का नया खेल’ बताया है। यह नया खेल असल में क्या है? मुझे लगता है कि ये ट्वीट कंपनियों के बदमाश प्रवर्तकों एवं बैंकरों और प्रवर्तकों एवं चूककर्ता कंपनियों की बोली लगाने वालों के बीच की मिलीभगत की ओर इशारा कर रहे हैं। यहां पर मेरा आकलन सामान्य है, कोई जरूरी नहीं है कि इन दोनों मामलों में भी ऐसा ही हुआ हो।
किंगफिशर से हुई वसूली की तुलना वीडियोकॉन मामले से नहीं की जा सकती है। माल्या ने अपनी एयरलाइन के लिए कर्ज लेते समय कॉर्पोरेट गारंटी के साथ निजी गारंटी भी दी थी। इसके दम पर बैंक उनके समूह की कंपनियों की परिसंपत्तियां जब्त करने के साथ उन्हें बेच भी सकते हैं। जांच एजेंसियां भी बैंकों की मदद के लिए आगे आई हैं। ऐसी गारंटी के अभाव में बैंकिंग प्रणाली के लिए फंसे कर्ज की बेहतर वसूली कर पाना मुमकिन नहीं है।
वसूली की रकम हमेशा ही चूककर्ता कंपनी के प्रोफाइल एवं उसके कारोबार पर निर्भर करेगी। सेवा क्षेत्र, इंजीनियरिंग, खरीद एवं निर्माण क्षेत्रों की कंपनियों के अधिक खरीदार नहीं होंगे। दरअसल इन कंपनियों के पास अधिक परिसंपत्तियां नहीं होती हैं। लेकिन कीमत वाली कंपनियों से अधिक वसूली होगी और बढ़-चढ़कर बोलियां लगेंगी। मसलन, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी डीएचएफएल के कर्जदाताओं को पीरामल ग्रुप से अच्छी-खासी रकम मिली थी।
एस्सार स्टील लिमिटेड की परिसंपत्तियों बिक्री से कर्जदाताओं को 41,018 करोड़ रुपये मिले जो कुल बकाया का करीब 83 फीसदी था। इसी तरह भूषण स्टील लिमिटेड पर बकाया 56,022 करोड़ रुपये में से बैंकों को 35,571 करोड़ रुपये (63.5 फीसदी) वसूल हो गए।
दिवालिया कानून के तहत पहला मामला पुणे की कंपनी इनोवेंटिव इंडस्ट्रीज के खिलाफ दायर किया गया था लेकिन निपटाया गया पहला मामला सिनर्जीज डूरे ऑटोमोटिव का था। कर्जदाता संस्थानों को 972 करोड़ रुपये के बकाये में से सिर्फ 54 करोड़ रुपये (6 फीसदी) ही मिल पाए थे।
अगस्त 2017 से लेकर मार्च 2021 के दौरान 4,376 कंपनियों के खिलाफ दिवालिया प्रक्रिया शुरू की गईं जिनमें से 2,653 मामले बंद हो चुके हैं। इनमें से सिर्फ 348 मामलों में ही निपटारा हो पाया है। मार्च 2020 तक कर्जदाताओं को औसतन 45.96 फीसदी रकम की वसूली हुई थी लेकिन मार्च 2021 आने तक यह अनुपात घटकर 39 फीसदी ही रह गया।
दूसरे देशों की तुलना में यह स्थिति कैसी है? जापान में दिवालिया मामले के निपटान में छह महीने लगते हैं और वसूली दर करीब 93 फीसदी है। ब्रिटेन में वसूली दर 88.6 फीसदी है और साल भर में निपटारा हो जाता है। वहीं चार दशक पहले दिवालिया कानून लागू कर चुके अमेरिका में कर्ज समाधान में 18 महीने लगते हैं और 80.4 फीसदी वसूली होती है।
विश्व बैंक के मुताबिक, भारत में एक मामला निपटाने में औसतन 4.3 साल लगते हैं और कर्ज वसूली 25.7 फीसदी ही हो पाती है। इस तरह वित्तीय संस्थानों को करीब 74 फीसदी का हेयरकट उठाना पड़ता है। नया दिवालिया कानून बेहतर होने के साथ वसूली भी सुधरी है लेकिन कर्जदाताओं को चूककर्ताओं के खिलाफ तेजी से कदम उठाने चाहिए। लॉजिस्टिक मसलों के अलावा बैंक भी चूककर्ताओं को काफी लंबा वक्त देते हैं जिससे कर्जदार कंपनी का मूल्य घट जाता है।
भारत का दिवालिया कानून अधिकांश विकसित देशों की तुलना में अधिक आक्रामक है लेकिन इसमें परिसंपत्तियों के संरक्षण की गुंजाइश कम है। ऐसा न होने से अधूरी परियोजनाओं की कीमत तेजी से कम हो जाती है। आदर्श रूप में कर्जदाताओं को नया निवेश कर इन परियोजनाओं को पहले पूरा कराना चाहिए ताकि ऊंची बोली लग सके। लेकिन जांच एजेंसियों के डर से बैंक इन कंपनियों को नए कर्ज देने से परहेज करती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि कर्ज अदायगी में चूक कर रही कंपनी कबाड़ के भाव पर बेच दी जाती है।
नए कानून की सबसे बड़ी उपलब्धि प्रवर्तकों की भाव-भंगिमा में आया बदलाव है। उन्हें अपना कारोबारी साम्राज्य गंवाने का भय है। बैंकर भी दिवालिया कानून का डर दिखाकर प्रवर्तकों को बातचीत के लिए मजबूर करने लगे हैं।
लेकिन संदेह तब होता है जब ऐसे मामलों को बोलीकर्ता या प्रवर्तक द्वारा बहुत कम राशि पर ही निपटा दिया जाता है, चाहे वह दिवालिया प्रक्रिया के भीतर हो या बाहर। मसलन, वीडियोकॉन समूह की कंपनियों के लिए वेदांत समूह की कंपनी ट्विन स्टार टेक्नोलॉजीज ने 2,962.02 करोड़ रुपये की बोली लगाई। क्या तरलता का विकल्प अपनाना बेहतर नहीं होता, चाहे इसमें लंबा वक्त ही लगे। कम-से-कम दोस्ताना पूंजीवाद के हाथों में खेलने और गड़बड़ी के संदेह तो नहीं पैदा होते।
(लेखक बिज़नेस स्टैंडर्ड के सलाहकार संपादक और जन स्मॉल फाइनैंस बैंक के वरिष्ठ परामर्शदाता हैं)
