पिछले महीने संसद में पेश आर्थिक समीक्षा में सुझाया गया है कि भारत में मुद्रास्फीति नियंत्रण से जुड़े लक्ष्य का निर्धारण करते समय खाद्य वस्तुओं पर विचार नहीं करना चाहिए। इसके पीछे तर्क दिया गया है कि मुद्रास्फीति की गणना में खाद्य वस्तुएं शामिल करने से किसानों को उनके उत्पाद के मूल्य बढ़ने का फायदा नहीं मिल पाता है। समीक्षा में तर्क दिया गया है कि आपूर्ति में व्यवधान के कारण बढ़ी महंगाई नियंत्रित करने के लिए अल्प अवधि के मौद्रिक उपाय नुकसानदेह हो सकते हैं। परंतु यह सुझाव कुछ अहम बातें सामने लाता है।
पहली बात, यह सच है कि मौद्रिक नीति मांग के प्रबंधन का जरिया है और खाद्य मुद्रास्फीति में वृद्धि पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। किंतु लगातार ऊंची खाद्य मुद्रास्फीति के ‘दूसरे चरण के प्रभाव’ (दूरगामी प्रभाव) नियंत्रित करने में मौद्रिक नीति महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अगर आपूर्ति में व्यवधान अस्थायी है तो यह बड़ी समस्या नहीं है और मौद्रिक नीति इसे नजरअंदाज कर सकती है क्योंकि कारण दूर होते ही बढ़ी मुद्रास्फीति अपने शुरुआती स्तर पर आ जाएगी।
यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मौद्रिक नीति के अंतर्गत उठाए गए कदमों का असर देर से पता (अमूमन एक वर्ष से अधिक समय) चलता है। लिहाजा जब तक मौद्रिक नीति का असर महसूस किया जाता है तब तक मुद्रास्फीति अपने शुरुआती स्तर पर आ सकती है। अगर आपूर्ति व्यवधान लंबे समय तक रहता है तो खाद्य मुद्रास्फीति का असर समूची मुद्रास्फीति पर भी दिखने लगता है। इसका कारण यह है कि लोग खाद्य मुद्रास्फीति को अन्य मुद्रास्फीति से भी जोड़ने लगते हैं। खाद्य वस्तुओं की कीमतें लंबे समय तक ऊंचे स्तरों पर रहती हैं तो ‘दूसरे चरण का प्रभाव’ बढ़ने लगता है।
भारत में अक्सर किसी न किसी खाद्य वस्तु की आपूर्ति में बाधा आती है। भारत में खाद्य मुद्रास्फीति का असर लोगों पर अधिक दिखता है क्योंकि इसे हरेक दिन महसूस किया जाता है, जबकि समग्र मुद्रास्फीति के साथ यह बात नहीं है। इसे देखते हुए भारत में ‘दूसरे चरण का प्रभाव’ अधिक दिखता है। हाल में कई ऐसे उदाहरण देखने को मिले हैं जब खाद्य मुद्रास्फीति लगातार ऊंची रहने का असर समग्र मुद्रास्फीति पर भी दिखा है। मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के भारतीय रिजर्व बैंक के लक्ष्य में खाद्य मुद्रास्फीति शामिल की जाए या नहीं की जाए, दूसरे चरण के प्रभाव का जोखिम तो रहेगा।
दूसरी अहम बात यह है कि खाद्य वस्तुओं को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) से हटाने पर मौद्रिक प्राधिकरण के रूप में रिजर्व बैंक की विश्वसनीयता पर चोट पहुंच सकती है। सीपीआई में खाद्य वस्तुओं की हिस्सेदारी 45.8 प्रतिशत है। समग्र मुद्रास्फीति उन विभिन्न जरूरी वस्तुओं एवं सेवाओं के दाम में उतार-चढ़ाव का आकलन करती है, जिनका इस्तेमाल उपभोक्ता रोजमर्रा के जीवन में करते हैं। मुद्रास्फीति का आकलन करने वाला कोई तरीका अगर सीपीआई में आधी हिस्सेदारी रखने वाले खंड (खाद्य वस्तुएं) को बाहर रखता है तो यह जीवनयापन पर होने वाले कुल खर्च की बानगी नहीं दे सकता।
परिवार खाद्य वस्तुओं पर भी खर्च करता है, इसलिए आम आदमी को यह समझाना आसान नहीं होगा कि रिजर्व बैंक उपभोग श्रेणी में आने वाली सभी वस्तुओं एवं सेवाओं में से आधे की ही परवाह क्यों करता है। समाज में आर्थिक रूप से पिछड़े लोग तो बढ़ी मुद्रास्फीति से प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के जरिये बच सकते हैं मगर समाज का एक बड़ा हिस्सा ऊंची खाद्य एवं समग्र मुद्रास्फीति का सामना करेगा। मुद्रास्फीति निर्धारण की प्रक्रिया से खाद्य वस्तुओं को बाहर रखने पर आम लोगों को यही लगेगा कि रिजर्व बैंक मूल्य स्थिरता के अपने संकल्प को कमजोर कर रहा है।
तीसरी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि सीपीआई में अगर खाद्य वस्तुएं शामिल नहीं की जाएं तो यह स्थिति रिजर्व बैंक के लिए एक बड़ी चुनौती हो सकती है और संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। उस स्थिति में चुनौती और बढ़ सकती है, जब समग्र मुद्रास्फीति और अखाद्य मुद्रास्फीति दर में अधिक अंतर रहता है। भारत में अक्सर ऐसा दिखता है।
वास्तव में समग्र मुद्रास्फीति और प्रमुख मुद्रास्फीति (खाद्य वस्तुएं और ईंधन शामिल नहीं) दरों में बड़े अंतर को देखते हुए बैंक ऑफ थाईलैंड ने समग्र मुद्रास्फीति पर ध्यान केंद्रित किया और प्रमुख मुद्रास्फीति को छोड़ दिया। बैंक ऑफ थाईलैंड ने प्रमुख मुद्रास्फीति के लिए जो उपाय किए थे वे समग्र और प्रमुख मुद्रास्फीति में बहुत अंतर होने की स्थिति में जीवनयापन पर होने वाले वास्तविक खर्च को नहीं दर्शा पाते थे। बैंक ऑफ कोरिया ने भी 2007 से प्रमुख मुद्रास्फीति की जगह समग्र मुद्रास्फीति पर ध्यान केंद्रित कर दिया।
मुद्रास्फीति नियंत्रण की व्यवस्था अपनाने वाले सभी बड़े केंद्रीय बैंक मुद्रास्फीति की गणना समग्र मुद्रास्फीति के आधार पर करते हैं क्योंकि इसे समझना और समझाना आसान होता है। फिर भी मौद्रिक नीति तैयार करते वक्त किसी गलती से बचने के लिए रिजर्व बैंक सहित लगभग सभी केंद्रीय बैंक कुछ हद तक प्रमुख मुद्रास्फीति का भी प्रयोग करते हैं। इससे उन्हें अर्थव्यवस्था में व्यापक मुद्रास्फीति नियंत्रित करने में मदद मिलती है। मुद्रास्फीति नियंत्रित करने के ऐसे उपाय निहित मुद्रास्फीति दर (आपूर्ति में किसी तरह का व्यवधान नहीं होने पर सामान्य परिस्थितियों में मूल्य बदलाव की अपेक्षित दर) का आकलन करने के लिए इस्तेमाल होते हैं।
चौथी बात यह है कि समग्र मुद्रास्फीति का आकलन करने के तरीके से खाद्य वस्तुएं बाहर हुईं तो कई तरह के सवाल उठने लगेंगे और रिजर्व बैंक जिस सूचकांक को आधार बनाता है उसमें शामिल वस्तु एवं सेवाओं के चयन पर बहस शुरू हो जाएगी।
इस समस्या से निपटने का एक उपयुक्त तरीका यह है कि रिजर्व बैंक को मौद्रिक नीति के संचालन में अधिक सहूलियत दी जाए। इसके लिए बदलती परिस्थितियों को दर्शाने के मकसद से सीपीआई के विभिन्न घटकों के भार संशोधित करने होंगे। वर्ष 2022-23 के लिए घरेलू उपभोग व्यय सर्वेक्षण (एचसीईएस) मार्च 2024 में जारी किया गया, जिसमें प्रति व्यक्ति औसत मासिक उपभोग व्यय में खाद्य वस्तुओं का हिस्सा काफी कम हो गया।
ग्रामीण इलाकों में यह 2009-10 के 57 प्रतिशत था किंतु 2022-23 में घटकर 47.5 रह गया। इसी तरह शहरी क्षेत्रों में इसी अवधि के दौरान यह 44.4 प्रतिशत से घटकर 39.2 प्रतिशत रह गया। लिहाजा सीपीआई सूची में विभिन्न घटकों के भार में संशोधन करने की जरूरत वाकई है। भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रगति के साथ लोगों की आय भी बढ़ रही है, इसलिए घरेलू उपभोग सूची में खाद्य वस्तुओं का भार और कम होना चाहिए। इसे देखते हुए सरकार को हर तीन वर्ष में सीपीआई का भार दुरुस्त करना चाहिए।
किसानों के हितों की रक्षा अवश्य होनी चाहिए मगर इसके लिए किसी बेहतर विकल्प की आवश्यकता है। मुद्रास्फीति का आकलन करने वक्त खाद्य वस्तुओं पर विचार नहीं करने से मौद्रिक एवं वृहद आर्थिक प्रबंधन और जटिल हो जाएगा।
(लेखक सोशल ऐंड इकनॉमिक प्रोग्रेस, नई दिल्ली में सीनियर फेलो हैं। वह रिजर्व बैंक के कार्यकारी निदेशक तथा मौद्रिक नीति समिति के सदस्य रह चुके हैं)