माना जा रहा है कि भारत जुलाई में दुनिया में सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। हालांकि, इस बारे में ठोस रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि हमारी जनगणना एक दशक पुरानी है। इसे ध्यान में रखते हुए हम केवल अनुमान लगा सकते हैं कि भारत 2023 के मध्य में किसी समय चीन की 1.45 अरब आबादी की बराबरी कर लेगा और इससे आगे निकल जाएगा। मुझसे अक्सर इस बारे में प्रश्न पूछा जाता है कि तेजी से बढ़ रही आबादी का पर्यावरण पर क्या असर होगा?
निःसंदेह लोगों की आबादी बढ़ेगी तो उनके लिए अधिक संसाधनों की भी आवश्यकता होगी। मगर यह तर्क भी नहीं दिया जा सकता कि आबादी बढ़ना पर्यावरण पर प्रतिकूल असर पड़ने का संकेत होगा। इन दोनों बातों का कोई सीधा संबंध नहीं है। इसके विपरीत एक सरल तर्क यह दिया जा सकता है कि अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के लोग तुलनात्मक रूप से आबादी में कम होने के बावजूद प्राकृतिक संसाधनों का इस्तेमाल भारत से कहीं अधिक करते हैं।
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया की आबादी क्रमशः 33.6 करोड़ और 2.6 करोड़ है। अर्थ ओवरशूट डे के अध्ययन के अनुसार अगर सभी अमेरिकी लोगों की तरह जीवन-शैली अपना लें तो हमें पांच पृथ्वी की आवश्यकता होगी। इसी तरह, ऑस्ट्रेलिया को लोगों की तरह जीवन जीने पर हमें 4.5 पृथ्वी की जरूरत होगी।
मगर भारत के लोगों की तरह रहने के लिए मात्र 0.8 पृथ्वी की आवश्यकता होगी। कम आबादी होने के बावजूद इन देशों ने वातावरण में अत्यधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड गैस का उत्सर्जन किया है जिससे दुनिया जलवायु परिवर्तन जैसे गंभीर खतरे का सामना कर रही है। इस आधार पर हम कह सकते हैं कि पर्यावरण संकट के लिए बढ़ती आबादी जिम्मेदार नहीं है बल्कि उपभोग एवं प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल पर्यावरण क्षरण के लिए उत्तरदायी हैं।
हम सभी जानते हैं कि धनी देश पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाते हैं। वे भूमि, जल, वन और अन्य संसाधनों का अत्यधिक दोहन करते हैं। ये देश जीवाश्म ईंधनों का बेतहाशा इस्तेमाल कर रहे हैं जिससे वैश्विक तापमान बढ़ रहा है। मगर उनके यहां हवा ‘स्वच्छ’ प्रतीत होती है क्योंकि बेहतर तकनीक में निवेश करने के लिए उनके पास पर्याप्त रकम है। इन धनी देशों में ऐसे क्षेत्र अधिक हैं जो कभी इस्तेमाल में नहीं आए हैं। आप तर्क दे सकते हैं कि इस कारण से उनका प्राकृतिक क्षेत्र सुरक्षित है। ऐसा नहीं है। चूंकि, वे प्राकृतिक आवास का काफी इस्तेमाल करते हैं जिसका नतीजा यह होता है कि दूसरी जगहों पर वन क्षेत्रों का इस्तेमाल आवश्यकता से अधिक होता है भूमि का क्षरण भी होता है।
दूसरी तरफ, विपन्न देशों के लोग अपने स्थानीय पर्यावरण में उपलब्ध संसाधनों का अत्यधिक इस्तेमाल करते हैं। गांवों में वे जंगल, मैदान और जलाशयों पर निर्भर रहते हैं। जंगल और जमीन दोनों पहले ही अत्यधिक दबाव में हैं और जलाशय प्रदूषित हैं मगर पर्यावरण पर इन सभी बातों का संयुक्त प्रभाव धनी देशों की तुलना में कम है।
हालांकि, यह भी सच है कि भारतीय लोग इसलिए पर्यावरण का कम दोहन करते हैं क्योंकि वे आर्थिक रूप से कम संपन्न हैं। गरीबी के कारण हम संसाधनों का अधिक उपभोग नहीं कर पा रहे हैं। अतः यह कहा जा सकता है कि जब हम थोड़े और संपन्न हो जाएंगे तो हम वैश्विक मध्यम वर्ग की जीवन-शैली (अमेरिका के लोगों की तरह) अपनाने की ख्वाहिश रख सकते हैं। यह जीवन-शैली एक तरह से आर्थिक धन एवं आधुनिकता के मानक बन चुकी है।
अगर हम अन्य मध्यम वर्ग की तरह अंधाधुंध उपभोग नहीं करेंगे तब भी हम संख्या में इतने अधिक हैं कि पर्यावरण पर कुल मिलाकर बड़ा असर डालेंगे। हम अपशिष्ट पदार्थों के संदर्भ में ऐसे देख भी चुके हैं। जैसे-जैसे हमारी आर्थिक क्षमता बढ़ती जा रही है वैसे ही अपशिष्ट पदार्थों की मात्रा भी बढ़ रही है, इनकी संरचना भी बदल रही है और गलियों में चारों तरफ कूड़ा पसरा नजर आ रहा है।
शहरों में वायु प्रदूषण भी कुछ इसी ओर इशारा करती है। आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ ही हम अपने निजी वाहनों में सफर करने लगे हैं। अगर हम अपने वाहनों में प्रदूषण नियंत्रण की बेहतर तकनीक लगाते हैं तब भी इनकी संख्या में लगातार इजाफा अधिक प्रदूषण का कारण बनेगा।
इन सभी बातों पर विचार करने के बाद हमें तीन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। सबसे पहले हमें इस पर विचार करना चाहिए कि जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए क्या कदम उठाए जा सकते हैं? अपनी आबादी का लाभ कैसे उठाएं क्योंकि हरेक व्यक्ति प्रकृति की सुंदर रचना एवं परिसंपत्ति होती है? तीसरा बिंदु यह है कि बढ़ती आबादी के बीच हम स्वयं को दुनिया के अन्य देशों की तरह विनाश का कारण बनने से कैसे रोकें?
पहले प्रश्न का उत्तर अपेक्षाकृत स्पष्ट है। भारत में कुल प्रजनन दर कम हो रही है। यह कम होकर विस्थापन स्तर (2.1) से कम रह गई है। नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार केवल बिहार, झारखंड, मणिपुर, मेघालय और उत्तर प्रदेश में प्रजनन दर प्रति महिला दो संतान (औसत राष्ट्रीय दर) से अधिक है।
यह सभी समझते हैं कि लड़कियां जितनी अधिक शिक्षित एवं सशक्त होंगी और उनकी स्वास्थ्य एवं आर्थिक सुरक्षा जितनी बढ़ेगी प्रजनन दर में उतनी कमी आएगी। प्रजनन का संबंध केवल जनसंख्या नियंत्रण तक नहीं है बल्कि यह संतानोत्पत्ति को लेकर महिलाओं के अधिकार से जुड़ा है। यह प्रगति का सूचक है। हम इस दिशा में आगे भी बढ़ रहे है, बस हमें इस गति को बनाए रखना होगा।
इसके बाद जनसंख्या से मिलने वाले लाभ का विषय आता है। यहां भी शिक्षा अहम हो जाती है। हमें देश में शिक्षा के विस्तार के लिए काफी कुछ करना होगा। अंत में पर्यावरण से जुड़ा विषय आता है। इससे जुड़ी सुरक्षा सुनिश्चित करना काफी कठिन होगा क्योंकि दुनिया में मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं को समझना और उन्हें पूरा करने से रोकना आसान नहीं है।
वैश्विक उपभोक्ता वर्ग की शैली बाजार कारकों एवं उस अर्थशास्त्र से जुड़ा है जो धन सृजन को बढ़ावा देता है। मगर हमारी असल परीक्षा यहीं है। हमें एक ऐसी दुनिया की जरूरत है जो सभी के रहने के लिए उपयुक्त हो। इस पर गंभीरता और शीघ्रता से विचार करने का समय आ गया है।