बीते तीन महीनों के दौरान भारत का प्रदर्शन उभरते बाजारों के समकक्षों से काफी कमजोर रहा है। भारतीय बाजारों मेंं डॉलर के संदर्भ में करीब 30 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। व्यापक एमएससीआई ईएम सूचकांक में 15 फीसदी की गिरावट आई। मेरी नजर में कमजोर प्रदर्शन के लिए कड़ा और लंबा चला लॉकडाउन जिम्मेदार है। यह विश्व स्तर पर सर्वाधिक व्यापक लॉकडाउन था और इस दौरान सरकार अर्थव्यवस्था की अपेक्षित मदद करने में नाकाम रही। आर्थिक तंगी अब अपना असर दिखा रही है।
वैश्विक निवेशकों को लगता है कि भारत का कमजोर सामाजिक सुरक्षा ढांचा और व्यापक असंगठित क्षेत्र उसे कोविड-19 को लेकर अधिक जोखिम भरा बनाता है। कड़े लॉकडाउन के बावजूद देश में वायरस के प्रसार का खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
अपने निवेश करियर में पहली बार मुझे देश में ऋणात्मक जीडीपी देखनेे को मिलेगा। रोजगार, आजीविका और कारोबारी आय पर इसका घातक असर होगा। श्रमिकों के बड़ी तादाद में अपने घरों को लौट जाने से कई निवेशक सुधार की गति को लेकर भी चिंतित हैं। अखबारों का अनुमान है कि घर लौटने वाले प्रवासियों की तादाद 30-40 लाख हो सकती है। इनकी वापसी के बारे में किसी को अंदाजा नहीं है। ऐसे में कारोबार कैसे चलेगा?
वैश्विक निवेशक डेट और इक्विटी में लगातार बिकवाली कर रहे हैं। संकट के आगमन के बाद से ही विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने भारत में 60,000 करोड़ रुपये की इक्विटी और एक लाख करोड़ रुपये मूल्य के डेट की बिकवाली की।
वित्तीय क्षेत्र सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ और कई बड़े निजी बैंकों के शेयर 50 फीसदी तक गिर गए। वित्तीय क्षेत्र की असहजता परिसंपत्ति गुणवत्ता और बैंकों की आय में नजर आई। सुधार को लेकर भी कोई स्पष्टता नहीं है। यह यकीन बढ़ रहा है कि सरकार की राजकोषीय तंगी के चलते बैंकों को अर्थव्यवस्था में सुधार की कुछ लागत वहन करनी पड़ सकती है।
मौजूदा कमजोरी के लिए तो महामारी जिम्मेदार है लेकिन हकीकत यह है कि देश की रेटिंग में गिरावट का सिलसिला पहले से चल रहा है। एमएमससीआई ईएम बेंचमार्क पर भारत का कमजोर प्रदर्शन तीन महीने से जारी है।
गत पांच वर्ष में एमएससीआई में 10 फीसदी की गिरावट आई है जबकि भारत की गिरावट 11 फीसदी रही है। बीते तीन वर्षों में भारत की गिरावट 19 फीसदी रही जबकि ईएम सूचकांक 7 फीसदी नीचे रहा। 10 वर्ष के परिदृश्य पर नजर डालें तो भारत अभी भी बेहतर स्थिति में है। परंतु यदि हमारा प्रदर्शन कमजोर बना रहा तो भविष्य में हालात प्रतिकूल हो जाएंगे।
भारत की रेटिंग में कमी के लिए उसका निरंतर कमजोर प्रदर्शन भी एक वजह रहा है। आज व्यापक बाजार के तमाम मूल्यांकन तार्किक बने हुए हैं, फिर भी बाजार का बड़ा हिस्सा सस्ता है और महंगे शेयरों की हिस्सेदारी बहुत कम है।
55 फीसदी के बाजार पूंजीकरण और जीडीपी अनुपात के साथ यह मार्च 2009 के स्तर पर है। लंबी अवधि का औसत 75 प्रतिशत है और इस अनुपात का उच्चतम स्तर 100 फीसदी रहा है। मिडकैप निफ्टी अपने उच्चतम स्तर से 40 फीसदी नीचे है और इसका बाजार पूंजीकरण दिसंबर 2014 के स्तर पर है। देश में 230 कंपनियां एक अरब डॉलर से अधिक के बाजार पूंजीकरण वाली हैं। यह तादाद भी 2007 केे स्तर की है। 2017 में 330 कंपनियों के साथ हम इस मामले में उच्चतम स्तर पर थे। आज देश में केवल 10 कंपनियों का बाजार पूंजीकरण 25 अरब डॉलर से अधिक है। 25 लाख करोड़ डॉलर के जीडीपी वाले देश के लिए यह तादाद बहुत कम है। भारतीय पीई चर और उभरते बाजारों के पीई चर 1.15 के अनुपात साथ दीर्घावधि के 1.52 के औसत से काफी कम हैं। दुखद बात यह है कि आज सूचकांक में भारत का 8.4 प्रतिशत भार चीन की दो इंटरनेट कंपनियों अलीबाबा और टेनसेंट के 12.7 प्रतिशत के संयुक्त भार से कम है।
रेटिंग में कमी क्यों आई? दरअसल वैश्विक निवेशक भारत की ढांचागत विकास की कहानी में भरोसा गंवा रहे हैं। एक समय इन्हें यकीन था कि भारत दुनिया में सबसे तेज विकास वाला देश है और उसकी ढांचागत वृद्धि दर करीब 8 फीसदी है। आज अधिकांश लोग 6 फीसदी की वृद्धि दर की वापसी को भी खुशकिस्मती मानेंगे। यह गिरावट वैश्विक कारकों के कारण है। वृद्धि मेंं विश्व स्तर पर धीमापन आया है। हालांकि गिरावट वाला समायोजन हमारे आंतरिक मसलों की वजह से हुआ है। अधिकांश वैश्विक निवेशकों को यकीन है कि हमारे पास बड़ी अर्थव्यवस्था के संचालन की प्रशासनिक क्षमता और ढांचे का अभाव है। हमें दूसरी पीढ़ी के प्रशासनिक, न्यायिक तथा अन्य सुधार देखने को नहीं मिले हैं। उनकी अनुपस्थिति में निवेशकों को यह यकीन नहीं होगा कि भारत क्षमताओं पर खरा उतर सकता है।
वृद्धि अनुमानों में इतनी भारी गिरावट राजकोषीय स्थायित्व को भी प्रभावित करेगी। साथ ही इसका असर मूल्यांकन मॉडल के मूल्य अनुमानों और आय वृद्धि अनुमानों पर भी पड़ेगा।
वैश्विक निवेशकों की दूसरी चिंता है बीते सात वर्ष के दौरान देश की शुद्ध कारोबारी आय में होने वाली वृद्धि। इस बाजार ने बमुश्किल सालाना 3-4 फीसदी की आय ही प्रदर्शित की है। बेहतरीन से बेहतरीन कंपनियों के शेयरोंं का प्रदर्शन विविध विस्तार से सुधरा है, न कि आय में वृद्धि से। यह सिलसिला चलता नहीं रह सकता। बीते सात वर्षों मेंं हर वर्ष जैसे जैसे हम आगे बढ़े हैं आय में गिरावट आई है। वैश्विक फंड प्रबंधक खराब आय के लिए पेश की जाने वाली नाना प्रकार की सफाई से तंग आ चुके हैं।
इसमें दो राय नहीं कि बीते सात वर्ष में हमें कारोबारी जगत में सफाई भी देखने को मिली है। जो कारोबारी समूह किफायती नहीं थे वे कारोबार से बाहर हो चुके हैं। कंपनियों और प्रवर्तकों दोनों के पास नकदी की कमी हुई है। समूची अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाया गया है और औद्योगिक ढांचे में सुधार हुआ है।
बहरहाल लाभ नजर नहीं आ रहे हैं। तमाम सुधारों को तेज और बेहतर वृद्धि सुनिश्चित करनी होती है, वरना कष्ट उठाने का फायद ही क्या? आशा है कि वृद्धि में तेजी आएगी। हालांकि वैश्विक निवेशक आपूर्ति की प्रतीक्षा करेंगे। वे पूर्वानुमान पर काम नहीं करेंगे। यानी कहा जा सकता है कि हमारे अनुमानों में गिरावट का सिलसिला तब तक जारी रहेगा जब तक क्षमता के अनुसार प्रदर्शन करना शुरू नहीं कर देते। जिन सुधारों को अंजाम दिया जाना है उनके बारे में सबको पता है और हमें अब उस दिशा मेंं प्रयास करना होगा।
(लेखक अमांसा कैपिटल से संबद्ध हैं)