फसलों के बेहतर प्रबंधन के जरिये सीमांत और छोटे किसानों की आय बढ़ाने में कृषक उत्पादक संगठन (एफपीओ) महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। देश में इनका तेजी से प्रसार हो रहा है। केंद्र और राज्य सरकारें इनके विकास में गंभीरता से प्रयास करने लगी हैं। पूरे देश में इस समय लगभग 7,600 एफपीओ कार्यरत हैं और केंद्र सरकार का लक्ष्य साल 2024 के अंत तक इनकी संख्या बढ़ाकर 10,000 तक करना है।
किसानों के लिए इस प्रकार के अनूठे व्यापार उद्यम की महत्ता को देखते हुए यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। फसल का उच्च मूल्य दिलाकर और कम लागत पर खाद-बीज एवं कृषि संबंधी अन्य सेवाओं जैसे इनपुट उपलब्ध कराकर एफपीओ किसानों की आमदनी बढ़ाने में खासी मदद कर रहे हैं, क्योंकि अब किसानों की ग्राहकों से मोल-भाव करने की ताकत बढ़ गई है। साथ ही आर्थिर स्तर में वृद्धि एवं उत्पादों की गुणवत्ता में भी सुधार हुआ है।
हालांकि, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आगे चलकर इन संस्थाओं के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव इस बात पर निर्भर करेंगे कि इनमें से कितने अपने अस्तित्व को बचाए रख पाएंगे। खासकर उस स्थिति में जब सरकार शुरुआती चरण के बाद एक समय पर इन्हें वित्तीय प्रोत्साहन देना बंद कर देगी। राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) द्वारा 2020-21 और 2021-22 में किए गए अध्ययन में एफपीओ के फायदे और इनकी संख्या के बारे में जानकारी सामने आई थी।
इस अध्ययन से पता चला कि एफपीओ ने कृषि उत्पादकता 18.75 से 31.75 प्रतिशत तक पहुंचाने और बीजों एवं उर्वरकों जैसे इनपुट पर खरीद लागत 50 से 100 रुपये तक प्रति कट्टा कम करने में खासी भूमिका निभाई है। यही नहीं, इनकी सहायता से किसानों की वार्षिक आमदनी में बढ़त पूर्ण रूप से प्रति एकड़ 4000 से 30,500 रुपये तक एवं सापेक्ष रूप से 14 से 60 प्रतिशत तक होने का अनुमान लगाया गया है।
इस अध्ययन में किसानों को होने वाले फायदों का श्रेय फसलों के बेहतर प्रबंधन, परिवहन एवं भंडारण सुविधाओं के बढ़ने से कटाई के बाद होने वाले नुकसान में कमी तथा फसलों की थोक में बिक्री होने से मिलने वाली उच्च कीमत को दिया गया है। छोटे और सीमांत किसानों को इन एफपीओ का सबसे अधिक लाभ हुआ है। मालूम हो कि देश में 85 फीसदी किसान इसी श्रेणी में आते हैं। ये एफपीओ न केवल फसलों की थोक में बिक्री के लिए संग्राहक की भूमिका निभाते हैं, बल्कि किसानों की ओर से बीज-उर्वरक जैसे इनपुट भी थोक में खरीद लेते हैं। इससे किसानों को इन इनपुट की लागत काफी कम पड़ती है।
एफपीओ या कृषक उत्पादक कंपनियों की अवधारणा सन 2000 में सामने आई थी। इनका मकसद किसानों को एकजुट करना, उनके संसाधनों को एकत्रित कर उनका सदुपयोग करना और फसलों को एकत्र कर बड़े स्तर पर बेचना और सामूहिकता का फायदा हासिल करना था। ये संगठन राजनीतिक हस्तक्षेप, अकुशल प्रबंधन और वित्तीय अनियमितताओं के कारण अपने उद्दश्यों में बुरी तरह नाकाम रहीं सहकारी समितियों का बेहतर विकल्प बनकर उभरे थे।
एफपीओ इस मामले में सहकारी समितियों और प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों का हाईब्रिड रूप हैं, लेकिन इनमें इनके जैसी अनचाही खामियां नहीं हैं। इनकी सदस्यता प्राथमिक स्तर के उत्पादकों के लिए है, जो कार्यदायी पूंजी में योगदान देते हैं और प्रबंधन के समक्ष अपनी बात रखने एवं वोट देने का बराबर अधिकार रखते हैं। यह अलग बात है कि इनके शेयर स्टॉक मार्केट में कारोबार नहीं कर सकते, इसलिए ये एफपीओ उद्योगपतियों द्वारा किसी भी तरह के अधिग्रहण के संकट से भी सुरक्षित रहते हैं।
एफपीओ के पंजीकरण की प्रक्रिया आसान बनाने के लिए वर्ष 2002 में कंपनी अधिनियम 1956 में संशोधन के सिवाय इसके विस्तार की दिशा में अधिक प्रयास नहीं किए गए। संशोधित कानून के जरिये एफपीओ ने किसानों के साथ-साथ पशुपालन, मत्स्य पालन, मधुमक्खी पालन, कपड़ा बुनाई और हस्तशिल्प जैसे ग्रामीण स्तर के अन्य क्षेत्रों में छोटे उत्पादकों को संगठित होकर कंपनी जैसा अपना कारोबार शुरू करने में खासी मदद की।
बड़े स्तर पर एफपीओ का विस्तार दरअसल, 2010 के बाद ही शुरू हुआ। वित्तीय सहायता उपलब्ध कराकर केंद्र और कई राज्य सरकारों ने इनके विकास में सक्रिय भूमिका निभाई। वर्ष 2020 में केंद्र सरकार ने 10,000 एफपीओ का नेटवर्क खड़ा करने के लिए बाकायदा बजट में 6,865 करोड़ रुपये का इंतजाम किया।
इस योजना के तहत पहले तीन साल के लिए प्रत्येक एफपीओ को 18 लाख रुपये और क्लस्टर आधारित संस्था के लिए 25 लाख रुपये अनुदान देने का प्रावधान किया गया। इन एफपीओ के प्रसार के लिए प्रचार और कार्यान्वयन कार्यों की जिम्मेदारी लघु किसान कृषि व्यापार कंसोर्टियम (एसएफएसी), राष्ट्रीय सहकारी समिति विकास निगम (एनसीडीसी) और नाबार्ड जैसी राष्ट्रीय स्तर की कई एजेंसियों को सौंपी गई। कई राज्य सरकारें एवं गैर-सरकारी संगठन भी एफपीओ के प्रचार-प्रसार का काम कर रहे हैं।
सबसे अधिक एफपीओ छह राज्यों महाराष्ट्र, बिहार, ओडिशा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में हैं, जहां इनके प्रसार के लिए ढांचागत विकास के साथ-साथ एक उपयुक्त पारिस्थितिकी तंत्र विकसित किया गया है। एफपीओ के प्रसार के लिए ओडिशा सरकार तो विदेशी एजेंसियों को भी प्रोत्साहित कर रही है। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार प्रत्येक ब्लॉक में कम से कम एक एफपीओ विकसित करने के लक्ष्य पर काम कर रही है।
ऐसा भी नहीं है कि सब कुछ हरा-हरा ही है और सब एफपीओ सफल और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हैं। इनमें कई अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो कई हार मानकर निष्क्रिय हो गए हैं। इन एफपीओ के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती अपना संचालन सुचारु रखने के लिए पर्याप्त धन की व्यवस्था करना और विशेष रूप से एक अवधि के बाद सरकार की ओर से सहायता बंद होने पर अपने कारोबार को जारी रखना है।
बैंक अमूमन एफपीओ को ऋण देने से बचते हैं, क्योंकि उनके पास जमानत के तौर पर रखने के लिए अपनी पर्याप्त संपत्ति नहीं होती। इसके अलावा यदि शुरुआती स्तर पर कामकाज अच्छा नहीं रहता तो बहुत सारे सदस्य एफपीओ का साथ छोड़ देते हैं। बड़े किसानों का प्रभुत्व भी इन एफपीओ के लिए घातक सिद्ध होता है, क्योंकि वे सामूहिक फायदों के बजाय केवल अपने हित के बारे में सोचते हैं।
ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर ध्यान देने और इन्हें गंभीरता से हल करने की जरूरत है, ताकि एफपीओ की स्थिति में सुधार हो तथा वे छोटे और सीमांत किसानों के हित के लिए कार्य करते रहें, क्योंकि इन किसानों को ही एफपीओ की सबसे अधिक जरूरत है।