एक सफल भारत का मूल वह है जहां आम लोग और कंपनियां वैश्विक अर्थव्यवस्था में पूरी भागीदारी करें। भारत में जो व्यक्ति मजबूत और सक्षम कंपनियां तैयार करते हैं, उन्हें विनिर्माण संस्थाओं तथा पैसे को दुनिया भर में यहां-वहां ले जाने की पूरी पहुंच की आवश्यकता होती है। भारतीय समाजवाद के कई अवशेष हैं जो इसमें हस्तक्षेप करते हैं। उदाहरण के रूप में राउंड ट्रिपिंग (कर वंचना की दृष्टि से शेयरों की बार-बार खरीद बिक्री) और भारत के बाहर भारतीयों द्वारा नियंत्रित कंपनियों को लेकर शत्रु भाव।
इसी प्रकार भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड यानी सेबी के 25 फीसदी के न्यूनतम फ्लोट नियम में भी कोई खास आर्थिक दलील नहीं है। भारतीय नीति निर्माताओं को दो कदम पीछे लेकर पूछना चाहिए कि भारतीय राज्य, वैश्वीकरण के खेल में भारतीयों की कामयाबी के हालात कैसे बना सकता है?
दुनिया की सबसे सफल और महत्त्वपूर्ण कंपनियां राष्ट्रीय सीमाओं के परे संचालित होती हैं। वे वैश्वीकरण के सिद्धांतों पर काम करती हैं जहां दुनिया भर में न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध कच्चा माल हासिल किया जाता है, उत्पादन के काम को भी लागत का ध्यान रखते हुए दुनिया भर में अंजाम दिया जाता है और दुनिया भर में ग्राहक भी तलाश किए जाते हैं।
सफल कंपनियां नियमित रूप से दुनिया भर में कंपनियों की खरीद-बिक्री करती हैं। आधुनिक विश्व की एक अहम पहचान यह है कि आधा से अधिक अंतरराष्ट्रीय कारोबार अब कंपनियों के भीतर होता है। दुनिया में सबसे अधिक आय और संपत्ति ऐसी ही वैश्वीकृत कंपनियां तैयार करती हैं।
एक स्टील कंपनी के लिए पूंजी भी वैसा ही कच्चा माल है जैसा कि लौह अयस्क या कोयला। एक सफल स्टील कंपनी को स्वयं को संगठित करना होता है ताकि दुनिया भर में न्यूनतम लागत वाली पूंजी हासिल कर सके। पूंजी की लागत तय करने में करों की अहम भूमिका होती है।
ऐसे में सफल बहुराष्ट्रीय कंपनियां दुबई, आयरलैंड या सिंगापुर जैसे कम कर वाले स्थानों पर खुद को स्थापित करती हैं। सफल बड़ी कंपनियां उन निवेशकों से पूंजी जुटाती हैं जो कराधान को लेकर संवेदनशील हैं। ऐसे में सर्वाधिक किफायती निवेश ढांचा तैयार होता है जहां निवेशक एक्स जो वाई देश में स्थित हो वह जेड नामक कंपनी में डेट या इक्विटी पूंजी लगाता है।
एक सहज और आधुनिक अर्थव्यवस्था के रूप में भारत का उभार इसी वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में शामिल होने से जुड़ा है। आंशिक तौर पर ऐसा इसलिए है कि वैश्विक कंपनियां भारत में काम करती हैं, उनके कारण देश में उच्च गुणवत्ता वाले रोजगार तैयार होते हैं और वे भारतीय अर्थव्यवस्था को अपने ज्ञान से समृद्ध करती हैं।
परंतु सन 2000 के मध्य के बाद से बेहतरीन भारतीय कंपनियों ने भी वैश्वीकरण का रुख किया। मोटे तौर पर कहें तो अच्छी कंपनियां निर्यात करती हैं और बेहतरीन कंपनियां प्रत्यक्ष विदेशी निवेश करती हैं। अब सैकड़ों भारतीय कंपनियां हैं जो विदेशी निवेश करती हैं और विश्व अर्थव्यवस्था में सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करती हैं।
भारतीय नीतिगत व्यवस्था के कई पहलू इसके विपरीत हैं। भारतीय राज्य को ‘राउंड ट्रिपिंग’ नापसंद है। परंतु यह देखना मुश्किल है कि इसमें क्या गलत है जब भारतीय नागरिक अपना पैसा विदेशी बैंक खातों, संस्थाओं या फंड में रखना पसंद करते हैं और फिर वह राशि भारत में वापस आ जाती है। यह आर्थिक स्वतंत्रता का बुनियादी सिद्धांत है कि किसी व्यक्ति को अपना पैसा दुनिया में कहीं भी ले जाने की स्वतंत्रता है, ताकि विविध विधिक व्यक्तियों का एक ढांचा तैयार किया जाए, कई जगहों पर फर्जी कंपनियों की स्थापना की जाए।
विधिक संस्था का डिजाइन भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि भौतिक मशीन और इंजीनियरिंग का। अमीर लोकतांत्रिक देश जिन्होंने भारत के समान ही तमाम संधियों पर हस्ताक्षर किए हैं वहां पते, केवाईसी, राउंड ट्रिपिंग अथवा 120 दिनों की कर रेसिडेंसी जैसी बातें नहीं होतीं।
भारतीय व्यक्तियों और कर अधिकारियों के लिए वैश्वीकृत दुनिया की जटिलताओं में संचालन करना कठिन है। परंतु इन परिस्थितियों को समझना भारतीय कर अधिकारियों का काम है और उन्हें ही इन हालात में काम करना सीखना होगा, बजाय कि जटिलताओं को प्रतिबंधित करने के।
सरकारों को हमेशा यह आकर्षक लगता है कि वे लोगों को सहज जीवन जीतने के लिए विवश करें, वह अपनी ताकत का इस्तेमाल करके लोगों को एक खास किस्म के अनुशासन में रखती है। परंतु लोगों के लिए एक साधारण जीवन देश की समृद्धि और सफलता की कहानी के साथ मेल नहीं खाता है। भारत के सफल होने के लिए यह आवश्यक है कि लोग जटिल और दुरूह जीवन जिएं। सरकार का काम क्षमताएं विकसित करने का है जिनकी मदद से वह जटिलताओं से तालमेल बिठा सके।
कुछ देशों ने कर दरों को कम रखने का निर्णय लिया और यह उनका अधिकार है। भारत के कारोबारियों और कंपनियों के लिए यही बेहतर है कि वे ऐसे क्षेत्रों में अपनी गतिविधियों को संगठित करके कहीं अधिक वैश्विक प्रतिस्पर्धा हासिल करें। भारत के लिए यह उपयोगी साबित होगा।
भारत में रहने वाले कर्मचारियों की व्यक्तिगत आय हमेशा आय कर चुकाने वाली होगी और भारत में रहने वाले सभी व्यक्तियों की खपत पर हमेशा जीएसटी लगेगा। यानी भारतीय कर राजस्व में भारतीयों की सफलता के साथ हमेशा इजाफा होगा। भारतीय राज्य के लिए यही बेहतर है कि वह भारतीयों की उन वैश्विक गतिविधियों को अलग रखे जो कर का बोझ कम करने के लिए तैयार की गई हैं।
आमतौर पर देखें तो यह भारत के हित में है कि वह अमीर लोकतांत्रिक देशों के साथ रैंक के लिए न जूझे क्योंकि वे देश अपने कर आधार को लेकर अधिक चिंतित रहते हैं और दुबई, आयरलैंड और सिंगापुर जैसे कम कर दरों वाले देशों का इस्तेमाल करते हैं ताकि अनिवासी भारतीयों समेत अधिक वैश्विक कंपनियों को भारत से संचालन के लिए प्रेरित कर सकें। कर प्रतिस्पर्धा भारत के पक्ष में काम करती है क्योंकि हमारे यहां सरकारी व्यय अमीर लोकतांत्रिक देशों से कम है।
इसी तरह 25 प्रतिशत न्यूनतम सार्वजनिक फ्लोट पर विचार करें। यह समझना मुश्किल है कि सरकार लोगों को प्रारंभिक निर्गम पेश करते समय अपनी कंपनी का कम से कम 25 फीसदी बेचने पर क्यों विवश कर रही है। निजी व्यक्ति के लिए यह वैध निर्णय है।
उदाहरण के लिए जब गूगल अपना आईपीओ लाई तो उसने कंपनी का 25 फीसदी से कम हिस्सा बेचा। हर कोई जानता है कि बाजार में अधिक नकदीकृत शेयर को अधिक कीमत मिलेगी। ऐसे में प्रवर्तकों के पास इस बात का प्रोत्साहन होता है कि वे अधिक तरलता उत्पन्न कर सकें। यहां राज्य की कोई भूमिका नहीं। हालिया विवादों के बाद ये बातें दोबारा सार्वजनिक चर्चा में आ गईं। अब वक्त आ गया है कि भारतीय समाजवाद के अवशेषों को बदला जाए।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)