एयर इंडिया को आधिकारिक तौर पर टाटा समूह को सौंप दिया गया है। इसके साथ ही उस पर दशकों पुराना सरकारी नियंत्रण समाप्त हो गया है। राष्ट्रीयकरण होने के पहले भी यह टाटा समूह के कारोबारी साम्राज्य का हिस्सा थी और बतौर चेयरमैन रतन टाटा ने कभी भी उस कंपनी पर दोबारा नियंत्रण करने की आस नहीं छोड़ी थी जिसे सन 1932 में टाटा एयरलाइंस के रूप में स्थापित किया गया था। गत अक्टूबर में टाटा समूह 18,000 करोड़ रुपये मूल्य की बोली लगाकर इस विमानन कंपनी को दोबारा हासिल करने में कामयाब रहा। इस राशि में विमानन कंपनी का 15,300 करोड़ रुपये का कर्ज भी शामिल है। कुछ अनुमानों के मुताबिक एयर इंडिया को हर रोज करीब 20 करोड़ रुपये का घाटा हो रहा है और इसमें सुधार के लिए असाधारण प्रयास करने होंगे। टाटा समूह के लिए विमानन क्षेत्र नया नहीं है क्योंकि देश में बची इकलौती अन्य पूर्ण सेवाएं देने वाली विमानन कंपनी विस्तारा में उसकी आंशिक हिस्सेदारी है तथा कम लागत वाली विमानन सेवा एयर एशिया की भारतीय शाखा में भी वह साझेदार है। एयर इंडिया के कई विमान अपेक्षाकृत नए हैं लेकिन उनमें काफी काम करना होगा। यह भी देखना होगा कि उसकी सेवाओं का स्तर इतनी जल्दी निजी क्षेत्र के समान किया जा सकता है या नहीं क्योंकि टाटा समूह ने कहा है कि वह एक वर्ष तक किसी कर्मचारी को नहीं निकालेगा।
इसके बावजूद मानना होगा कि यह एक ऐतिहासिक अवसर है जिसके बारे में कई लोगों का सोचना था कि यह अवसर नहीं आएगा। एयर इंडिया सार्वजनिक क्षेत्र में कुप्रबंधन और ऐसे क्षेत्र में सरकार के नियंत्रण रखने का जीता जागता उदाहरण है जिसमेंं उसकी भागीदारी की कोई तार्किक वजह नहीं है। एयर इंडिया सरकार के लिए भी बहुत उपयोगी साबित नहीं हुई और उसने बहुत बड़े पैमाने पर सरकार की नकदी डुबाई। इसके चलते समूचा नागर विमानन उद्योग विसंगतियों से भर गया। दशकों तक उसकी स्थिति सुधारने के तमाम प्रयास नाकाम होते रहे। यह निजीकरण भले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल में हुआ हो लेकिन यह इस लिहाज से महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय नेतृत्व पिछले एक दशक में निजीकरण को स्वीकार करने में बहुत लंबी दूरी तय कर चुका है।
आशा की जानी चाहिए कि निजी क्षेत्र के हवाले होने के बाद एयर इंडिया कामयाबी हासिल करेगी और टाटा समूह उसे प्रभावी ढंग से बदल पाने में कामयाब रहेगा। ऐसे में सफल निजीकरण के प्रभाव सामने आएंगे। यह निस्संदेह सुधारों के बाद के भारत के लिए एक मील का पत्थर है।
सरकार को ऐसे प्रयास जारी रखने चाहिए। इस सफल बिक्री का पूरा श्रेय सरकार को मिलना चाहिए लेकिन उसे केवल इस सफलता के भरोसे नहीं रुकना चाहिए। सरकारी नियंत्रण वाले बैंकिंग क्षेत्र समेत कई क्षेत्र हैं जिनमें काफी कुछ किया जाना है। ऐसे तमाम सरकारी संस्थान हैं जहां निजीकरण ही प्रदर्शन में सुधार की इकलौती आशा है। एयर इंडिया की बिक्री से यह अपेक्षा जग सकती है कि आने वाले वर्षों में लंबे समय से लंबित ऐसे तमाम अन्य कदम उठाए जाएंगे। भारतीय जीवन बीमा निगम तथा अन्य उपक्रमों में हिस्सेदारी बेचने की योजना स्वाभाविक रूप से महत्त्वपूर्ण है लेकिन एयर इंडिया के तर्ज पर स्वामित्व हस्तांतरण का कोई दूसरा विकल्प नहीं है। ऐसा इसलिए क्योंकि प्रयास केवल सरकार के लिए राजस्व जुटाना नहीं है बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि परिसंपत्तियों का प्रबंधन बेहतर हो तथा उनकी उत्पादकता बढ़े। बैंकों के राष्ट्रीयकरण को दोबारा उलटने की कल्पना तो दूर की कौड़ी लग सकती है लेकिन एयर इंडिया का राष्ट्रीयकरण पलटे जाने के बाद इसे असंभव भी नहीं माना जा सकता है।
