केरल के वायनाड जिले में भयावह भूस्खलन की घटना से मची तबाही के लिए आखिर कौन और क्या चीजें जिम्मेदार है? इस घटना में कई लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी। यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है, भले ही इस आपदा को हुए कई सप्ताह बीत चुके हैं और अब हमारा ध्यान भी दूसरी विनाशकारी आपदाओं की तरफ है।
जलवायु परिवर्तन इस तरह की आपदा में पूरी तरह भले ही नहीं लेकिन अहम भूमिका निभा रहा है जो पूरी तरह से प्राकृतिक आपदा भी नहीं है। पश्चिमी घाटों का यह क्षेत्र पहले से ही नाजुक स्थिति में था और मानव गतिविधियों के कारण यह आपदा के लिहाज से जोखिम की परिस्थितियों से जूझ रहा था।
लेकिन दूसरा प्रश्न, जो स्पष्ट रूप से मुझे परेशान करता है वह यह है कि इन जोखिम क्षेत्रों में रहने वाले लोग संरक्षण के प्रयासों का विरोध क्यों करते हैं? जबकि उन्हें मालूम है कि वे उसी पेड़ की शाखा को काट रहे हैं जिस पर वे बैठे हैं! ऐसे में क्या किया जा सकता है?
पहले वायनाड में विकास की गतिविधियों के बारे में समझते हैं। ‘डाउन टू अर्थ’ में मेरी सहयोगी, रोहिणी कृष्णमूर्ति और पुल्हा रॉय ने इसकी जांच की और पाया है कि वहां आपदा के पूरे आसार बन चुके थे। भूस्खलन मुंडक्कई के पास हुआ जो वेलेरिमला गांव का एक वार्ड है। मैं इस बात की ओर आपका ध्यान दिलाना चाहती हूं क्योंकि 2013 में के. कस्तूरीरंगन समिति की रिपोर्ट में इस गांव की पहचान पारिस्थितिकी रूप से जोखिम वाले क्षेत्र के रूप में की गई थी।
मैं केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित इस समिति की सदस्य थी जिसे पश्चिमी घाटों के लिए स्थायी और समान विकास के लिए चौतरफा और समग्र रणनीति पेश करनी थी। इसने सिफारिश की कि इस तरह के सभी गांव जहां 20 प्रतिशत से अधिक क्षेत्र पारिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से संवेदनशील हैं, वहां विकास की गतिविधियों पर सख्त नियंत्रण होना चाहिए क्योंकि इससे ये क्षेत्र ज्यादा असुरक्षित होंगे।
इसी वजह से इसने इस क्षेत्र में विशेषतौर पर खनन और पत्थर की खदानों सहित कई विध्वंसक गतिविधियों के विरोध में सिफारिश की। नवंबर 2013 में मंत्रालय ने यह रिपोर्ट स्वीकार की और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम की धारा 5 के तहत एक निर्देश जारी किया, जिसमें एक बड़े क्षेत्र (60,000 वर्ग किमी) को पारिस्थितिकी तंत्र के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया गया और खदानों तथा पत्थर के खनन सहित कुछ गतिविधियों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हालांकि केरल ने अपनी समिति के निष्कर्षों का हवाला देते हुए संशोधन के लिए कहा है जिसमें यह तर्क दिया गया था कि पूरे गांव को पारिस्थितिकी के लिहाज से असुरक्षित चिह्नित नहीं किया जा सकता है क्योंकि यहां दूसरी गतिविधियां भी होती हैं जो रोकी नहीं जानी चाहिए। अब आप इसके आशय को समझें।
पुल्हा ने वायनाड में खनन स्थलों की उपग्रह से जारी तस्वीरों को कस्तूरीरंगन रिपोर्ट द्वारा पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील क्षेत्रों के रूप में पहचाने गए 13 गांवों के मानचित्र के साथ मिलाकर देखा। नूलपुझा गांव में छह खनन स्थल हैं, जो सभी ‘वन’ के रूप में चिह्नित क्षेत्र में हैं। आगे की जांच और भी भयावह है। रोहिणी ने अपने शोध में पाया कि 2017 में, केरल ने अपनी लघु खनिज रियायत नियमों में संशोधन किया और किसी आवासीय भवन, वन भूमि या पहाड़ी ढलान से 50 मीटर से अधिक की दूरी पर विस्फोटकों का उपयोग करने की अनुमति दी।
इसका शाब्दिक अर्थ है किसी के घर के पिछले हिस्से में विस्फोट करने का अधिकार मिल जाना और पहाड़ियों को अस्थिर करने की स्थिति बनाना। अब ऐसे में हमें आश्चर्य क्यों होता है कि जब इस क्षेत्र में अत्यधिक बारिश होती है तब यहां बड़े पैमाने की तबाही की स्थितियां नहीं बनेंगी? इसमें कोई संदेह नहीं कि वायनाड भूस्खलन एक मानव निर्मित आपदा है। सवाल यह है कि हम क्या कर रहे हैं? इन क्षेत्रों के लोग माधव गाडगिल समिति और बाद में कस्तूरीरंगन समिति द्वारा निर्धारित संरक्षण की प्रक्रिया के खिलाफ हैं। मैंने जब इस क्षेत्र की यात्रा की तब मैंने भी ऐसा देखा था।
लोग सड़कों पर उतर आए थे और उन नीतियों के खिलाफ नारेबाजी कर रहे थे जो संरक्षण को बढ़ावा देता। आप यह तर्क दे सकते हैं कि वे कुछ निहित हितों से प्रभावित हैं। लेकिन तथ्य यह है कि उनका मानना है कि अगर इस क्षेत्र को ‘पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील’ घोषित कर दिया गया तब सरकार उनके बागान, पौधरोपण आदि की प्रक्रिया पर अपना नियंत्रण कर लेगी और खेती के तरीके पर भी प्रतिबंध लग सकते हैं। लोगों का संदेह इसलिए भी है कि हमने अब तक आधिकारिक आदेश और समितियों के माध्यम से संरक्षण किए हैं। साथ ही खनन जैसी कुछ गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाने का मतलब यह है कि उनके लिए आजीविका का नुकसान होगा।
हमें भविष्य की नीतियां बनाते वक्त भी इन बातों का ध्यान रखना होगा। हमें जलवायु जोखिम के चलते पर्यावरण प्रबंधन करने का तरीका बदलना होगा और अगर हम इसमें सफलता चाहते हैं तब हमें संरक्षण की प्रक्रिया में भी बदलाव लाना होगा। फिलहाल तो हमें यह भी सोचना होगा कि क्या नहीं किया जा सकता है और यह इस आधार पर है कि लोग जैविक दबाव में हैं और इसलिए पारिस्थितिकी के लिए हानिकारक गतिविधियों पर अवश्य प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए।
यह सही कदम हो सकता है लेकिन यह भी एक तथ्य है कि भारत में हमारे वन और अन्य पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र में ही लोगों के आवास की जगहें मौजूद हैं और यह केवल जंगली क्षेत्र नहीं है। इन क्षेत्रों की रक्षा के लिए, हमें ऐसे संरक्षण की जरूरत है जो समावेशी हो और सभी समुदायों को अपने प्रयास के साथ इसमें भागीदारी करने के लिए प्रोत्साहन दे।
यही कारण है कि कस्तूरीरंगन रिपोर्ट में भी पारिस्थितिकी रूप से संवेदनशील क्षेत्र के रूप में चिह्नित गांवों के लिए एक हरित-विकास पैकेज की सिफारिश की गई जिसके तहत पारिस्थितिकी सेवाओं के लिए भुगतान, पेड़ काटने पर रोक या विनाशकारी विकास पर प्रतिबंध लगाने की आवश्यकता बताई गई। इसमें लोगों को संरक्षण के लिए भुगतान करने की बात भी थी।
ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि हम हरित आजीविका के साधनों जैसे कि कॉफी या चाय के स्थायी बागानों से लेकर इको-टूरिज्म के आधार पर बनी विकास रणनीतियों पर काम करें। हमें यह भी सीखना होगा कि लोगों की जमीन पर और उनकी भागीदारी के साथ संरक्षण कैसे किया जाए। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में वायनाड के सबक स्पष्ट हैंः सीख लें और बदलाव लाएं या फिर नष्ट होने के लिए तैयार हों।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से जुड़ी हैं)