इस वर्ष दुबई में आयोजित होने वाले संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन (सीओपी28) में कार्बन बाजार के लिए नियम-कायदे तय करने से संबंधित विषय पर चर्चा की जाएगी। विश्व के नेताओं को स्वैच्छिक कार्बन बाजार की त्रुटियों से सबक लेने की आवश्यकता है ताकि नई बाजार व्यवस्था में पिछली गलतियों की पुनरावृत्ति नहीं हो पाए।
दुनिया में व्यापक बदलाव लाना इस नई व्यवस्था का लक्ष्य है। पाक्षिक पत्रिका ‘डाउन टू अर्थ’ और सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट ने जब कार्बन व्यापार का विश्लेषण किया तो कुछ असहज बातें सामने आईं जिनके बाद बदलाव लाने की तरफ प्रसास करना आवश्यक हो गया है।
हम पाते हैं कि वर्तमान कार्बन बाजार दुनिया में हानिकारक गैसों का उत्सर्जन और बढ़ा सकता है। कार्बन क्रेडिट खरीदने वाली कंपनियों एवं इकाइयों ने उत्सर्जन तो कम नहीं किए हैं बल्कि इसके उलट और बढ़ा दिए हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि उन्होंने कार्बन क्रेडिट खरीद रखे हैं।
परंतु, इन क्रेडिट के लाभ बढ़ा-चढ़ा कर बताए गए हैं या यूं कहें कि वास्तविक लाभ की स्थिति है ही नहीं। उत्सर्जन में कमी भी सांकेतिक ही है। यह एक प्रकार से दोहरी समस्या है। जलवायु परिवर्तन का संकट झेल रही दुनिया के लिए इस कठिन परिस्थिति से निकलना परम आवश्यक है।
इस दिशा में सर्वप्रथम एवं स्वाभाविक कदम बाजार में पारदर्शिता लाने से जुड़ा है। जब मेरे सहकर्मियों ने इस संबंध में सूचनाएं मांगी तो उन्हें कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उन्हें परियोजना स्थलों पर जाने से पहले गैर-खुलासा समझौतों पर हस्ताक्षर करने के लिए कहा गया।
पेरिस की एक निवेश कंपनी ने मेरे सहकर्मियों को तो यह तक कहा कि भारत के गांवों में यात्रा करना काफी खतरनाक है। एक अन्य कंपनी ईकेआई एनर्जी सर्विसेस ने तो यह कह दिया कि वह ‘साइलेंट पीरियड’ (वह अवधि जिसमें कोई कंपनी विश्लेषकों या मीडिया से संवाद नहीं करती है) में है।
दूसरा कदम यह होगा कि बाजार के उद्देश्य-स्वैच्छिक, द्विपक्षीय या बहुपक्षीय-निर्धारित किए जाएं और उसी अनुसार नीति-नियम तय किए जाएं। अगर कार्बन बाजार का उद्देश्य उन परियोजनाओं में निवेश करना है जिसके बाद दुनिया के विभिन्न हिस्सों में उत्सर्जन में कमी आएगी तो उस स्थिति में कार्बन बाजार परियोजना की वास्तविक लागत के भुगतान पर आधारित होना चाहिए।
वर्तमान समय में बाजार अक्षय ऊर्जा परियोजना या बायोगैस परियोजना की लागत की तुलना में कम भुगतान करता है। गरीब देश इस बाजार में उत्सर्जन करने वाले धनी देशों को एक तरह से सब्सिडी का भुगतान कर रहे हैं।
तीसरी बात, ऐसा लगता है कि बाजार केवल परियोजनाओं के विकासकर्ताओं , सलाहकारों और अंकेक्षकों के पक्ष में ही कार्य कर रहा है। समुदायों के विकास के लिए कोई रकम नहीं बचती है। इसका मतलब यह भी निकलता है कि उत्सर्जन कम करने के प्रयासों में उनकी भागीदारी का कोई वास्तविक आधार नहीं रह जाता है।
कार्बन बाजार को समुदायों के साथ सालाना आधार पर आर्थिक संसाधन साझा करना चाहिए और स्वतंत्र रूप से इसकी पुष्टि भी होनी चाहिए। अगर घरेलू उपकरणों-इस मामले में नए कुकस्टोव की बात करते हैं। कुकस्टोव का बाजार समय के साथ तेजी से बढ़ रहा है और इसका कारण भी स्पष्ट है क्योंकि परियोजनाओं का विकास करने वाली इकाइयों के लिए काफी फायदेमंद है।
कुकस्टोव पर आने वाली लागत डेवलपर द्वारा परियोजना की 5-6 वर्ष की अवधि में अर्जित कमाई का मात्र 20 प्रतिशत है। कार्बन क्रेडिट के लाभ के नाम पर परिवारों को एकमात्र कुकस्टोव ही दिए जाते हैं। इसे दूसरे रूप में कहें तो कार्बन राजस्व का 80 प्रतिशत हिस्सा मुनाफे के रूप में गटक लिया जाता है।
कई स्थानों पर तो हमने पाया है कि गरीब लोगों ने वास्तव में इन कुकस्टोव के लिए भुगतान तक किए हैं। अब कार्बन उत्सर्जन में कटौती के स्वाभाविक प्रश्न पर आते हैं जिसे आधार बना कर कंपनियों ने उत्सर्जन में कमी के बजाय इसे और बढ़ा दिया है।
घरेलू उपकरण कार्यक्रम के मामले में कंपनियां स्टोव के वितरण के आधार पर कार्बन उत्सर्जन में कमी की गणना करती हैं। इस बारे में भी काफी कम जानकारी है कि स्टोव इस्तेमाल भी हो रहे हैं या नहीं।
हमारे शोध में पता चला है कि लोग खाना पकाने के लिए कई स्रोतों का इस्तेमाल करते हैं। लिहाजा, प्रोजेक्ट डेवलपर, सत्यापनकर्ताओं, अंकेक्षकों और निबंधकों की भारी तादाद के बावजूद प्रोजेक्ट डेवलपर उत्सर्जन में कमी को बढ़ा-चढ़ा कर बताते हैं। एक सबक तो यह अवश्य लिया जा सकता है कि परियोजना का ढांचा सरल रहना चाहिए और परियोजनाओं का नियंत्रण सार्वजनिक संस्थानों एवं लोगों के पास रहना चाहिए।
सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उत्सर्जन में कमी का श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? यह कोई काल्पनिक नहीं बल्कि वास्तविक प्रश्न है। भारत में बिजली की कुल आवश्यकता का 50 प्रतिशत हिस्सा गैर-जीवाश्म स्रोतों से प्राप्त करने के लिए जल-विद्युत सहित अक्षय ऊर्जा के प्रत्येक मेगावॉट हिस्से पर विचार एवं गणना करने की जरूरत है। लगभग 675 भारतीय अक्षय ऊर्जा परियोजनाएं 26.8 करोड़ कार्बन क्रेडिट के लिए वेरा और गोल्ड स्टैंडर्ड में पंजीकृत की गई हैं।
26.8 करोड़ कार्बन क्रेडिट में 14.8 करोड़ की अवधि समाप्त हो चुकी है या इनके लिए दावे किए जा चुके हैं। भारत के लिए राष्ट्र निर्धारित योगदान (एनडीसी) का आकलन करने के लिए इन कार्बन क्रेडिट पर कैसे विचार किया जा सकता है? या फिर इन पर विचार किया जाना चाहिए? क्या इससे दोहरी गणना की स्थिति नहीं पैदा हो जाएगी?
वास्तविकता यह है कि वर्तमान स्वैच्छिक कार्बन बाजार सहूलियत पर आधारित है। इसका अभिप्राय है कि दुनिया के देश अपनी सुविधा के अनुसार उत्सर्जन में कमी के आसान विकल्पों का इस्तेमाल कर चुके हैं।
इसका सीधा मतलब यही है कि दुनिया के देश उत्सर्जन में कमी करने के लिहाज से तुलनात्मक रूप से कठिन प्रयासों में निवेश वहन नहीं कर पाएंगे। इससे उत्सर्जन जारी रहेगा और हमारा भविष्य चौपट हो जाएगा। उत्सर्जन रोकने के प्रयासों में विफलता किसी सूरत में स्वीकार नहीं की जा सकती।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से जुड़ी हैं)