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जमीनी हकीकत: कृषि क्षेत्र में तौर-तरीके बदलने की आवश्यकता

वास्तविकता यह है कि ये सभी किसान दुनिया में कृषि उत्पादन पर बढ़ी लागत और जलवायु परिवर्तन से होने वाले गंभीर खतरों का सामना कर रहे हैं।

Last Updated- March 10, 2024 | 9:59 PM IST
कृषि क्षेत्र में तौर-तरीके बदलने की आवश्यकता, Rethink the way we grow food

दुनिया की कृषि व्यवस्था में बुनियादी स्तर पर कुछ न कुछ कमी है। जब आप यूरोप के आर्थिक रूप से संपन्न किसानों की तस्वीरें और भारत में अपनी नाराजगी सरकार तक पहुंचाने के लिए ट्रैक्टरों के साथ सड़क जाम करते किसानों को देखते हैं तो खामियों की बात साफ हो जाती है। वास्तविकता यह है कि ये सभी किसान दुनिया में कृषि उत्पादन पर बढ़ी लागत और जलवायु परिवर्तन से होने वाले गंभीर खतरों का सामना कर रहे हैं।

दुर्भाग्य से यूरोप में विवाद की जड़ जलवायु परिवर्तन से जुड़े कानून हैं। इन नए नियमों के अनुसार किसानों को कीटनाशकों का इस्तेमाल घटाकर आधा और उर्वरकों का उपयोग भी 20 प्रतिशत तक करने के लिए कहा गया है। नए नियमों के तहत उन्हें जैविक उत्पादन में इजाफा करना होगा और जैव-विविधता संरक्षण के लिए गैर-कृषि कार्यों हेतु अधिक भूमि छोड़नी होगी।

इसके अलावा नीदरलैंड्स ने नाइट्रोजन प्रदूषण कम करने के लिए मवेशियों की संख्या कम करने का प्रस्ताव दिया है और जर्मनी को जीवाश्म ईंधन डीजल पर सब्सिडी कम करनी है। ये सभी उपाय इसलिए जरूरी तौर पर करने होंगे क्योंकि दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों से जूझ रही है।

यूरोपीय संघ (ईयू) ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का बड़ा स्रोत है। उसके सालाना उत्सर्जन का 10 वां हिस्सा ग्रीन गैसें होती हैं। भारतीयों की तुलना में यूरोप के अधिक संपन्न किसान जब कृषि क्षेत्र में बढ़ रहीं चुनौतियों से परेशान हैं तो भारत के किसानों का क्या हाल होगा जो अस्तित्व से जूझ रहे हैं?

वास्तविकता यह है कि दुनिया में आधुनिक कृषि का प्रतीक मानी जाने वाली यूरोपीय कृषि प्रणाली सब्सिडी की बदौलत ही अब तक अपना अस्तित्व बचाती आई है। वर्ष 1962 से ही यूरोपीय संघ की साझी कृषि नीति (सीएपी) ने कृषि को वित्तीय समर्थन मुहैया कराया है। इसकी आलोचना भी खूब होती रही जिसके बाद यह सब्सिडी थोड़ी कम की गई।

वर्तमान में सीएपी यूरोपीय संघ के बजट का लगभग 40 प्रतिशत है और इसके तहत किसानों को सीधे सब्सिडी दी जाती है। यूरोपीय आयोग के आंकड़ों के अनुसार प्रत्येक किसान को सीधे आय समर्थन के रूप में 2021 में सालाना 6,700 यूरो (लगभग 50,000 रुपये प्रति महीने) दिए गए। इसके अलावा यूरोपीय संघ में कृषि को बढ़ावा देने के लिए अधिक निवेश किए जाते हैं।

पिछले कई वर्षों के दौरान कृषि कार्यों के तरीकों में बदलाव आए हैं और खेतों का आकार-बड़ा और अधिक संगठित हो गया है। लागत बढ़ने, ऊंचे मानकों और ढुलमुल सरकारी तंत्र के कारण छोटे किसान या छोटे स्तर पर इन कार्यों में लगे लोग छटपटा रहे हैं। बड़े किसान भी ऋणों के बोझ से परेशान हैं क्योंकि इन दिनों खेती करने की लागत काफी बढ़ गई है।

जैविक खेती का चलन उत्पादन खर्च बढ़ाने के लिए तैयार किया गया है। इस समय यूरोपीय संघ में 10 प्रतिशत भूमि पर जैविक खेती हो रही है। किसान बढ़ी लागत का जवाब दूसरे रूप में दे रहे हैं और फसलों एवं दूध आदि का उत्पादन बढ़ाने के लिए वे सभी तरह के उपाय आजमा रहे हैं। अधिक उत्पादन के चक्कर में रसायन और जैव-सामग्री (बायो-इनपुट) का अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है। मगर इससे बदलते मौसम एवं जलवायु परिवर्तन के खतरों के बीच कृषि कार्यों की लागत और ज्यादा बढ़ गई है।

लागत में इस बढ़ोतरी को दो वास्तविकताओं का सामना करना पड़ता है। इसमें पहली चुनौती है खाद्य पदार्थों की कीमतें नियंत्रण में रखना और दूसरी चुनौती है जलवायु परिवर्तन के संकट के कारण फसलों को तेजी से होने वाला नुकसान। अंधाधुंध और अधिक से अधिक उत्पादन पाने का चलन बढ़ता ही जा रहा है। यह माना जाता है कि इस चलन को जारी रखते हुए पर्यावरण भी सुरक्षित रखा जा सकता है और किसान उत्पादन बढ़ाकर अपना मुनाफा भी बढ़ा सकते हैं। मगर साफ है कि मामला उतना सीधा भी नहीं है जितना समझा जा रहा है। पश्चिमी देशों में भी अनाज सस्ता नहीं रह गया है।

दिल्ली की दहलीज पर प्रदर्शन करने वाले किसान अपने कृषि उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की मांग कर रहे हैं। इन किसानों के सामने भी वही संकट है जिनका सामना पश्चिमी देशों के किसान कर रहे हैं। फर्क केवल इतना है कि भारत में किसानों को फसल उत्पादन के लिए भारी भरकम सब्सिडी नहीं दी जा रही है। इसके बाद दूसरी समस्या है। सरकार को अनाज वितरण के लिए अनाज खरीदना पड़ता है। इसलिए उसे कीमतें नियंत्रण में रखनी पड़ती है। उपभोक्ता (हम सभी लोग) खाद्य महंगाई की मार से बचना चाहते हैं।

किसान ऊंची लागत और बदलते मौसम एवं कीटों के आक्रमण के बीच असहज महसूस कर रहे हैं। उनके लिए इससे भी बड़ी चुनौती यह है कि खाद्य पदार्थों की कीमतें जब भी बढ़ती हैं तो यह किसानों के लिए मुनाफा कमाने का एक अवसर होता है। मगर सरकार आयात के जरिये कीमतें नियंत्रित करने का विकल्प खोज लेती है। इस तरह किसानों को नुकसान उठाना पड़ जाता है। इसके बाद किसान मृदा, जल या जैव-विविधता में सुधार के लिए निवेश करने की स्थिति में नहीं रह जाते हैं।

अब किसानों को यह समझाया जा रहा है कि मुनाफा बढ़ाने के लिए उन्हें उत्पादन बढ़ाने की जरूरत है। मगर कृषि कार्यों के लिए आवश्यक सामग्री महंगी होने से अधिक उत्पादन करने पर खर्च भी बढ़ता जा रहा है। उत्पादन का यह गणित अर्थहीन हो जाता है क्योंकि ऊंची लागत के लिए भारत जैसे देश में कोई मदद नहीं दी जा सकती जहां लोगों को सस्ती दरों पर अनाज मुहैया कराना सरकार के लिए जरूरी है।

यह स्पष्ट है कि भारत सरकार यूरोपीय देशों की तरह तो एक-एक किसान को सब्सिडी नहीं दे सकती है। यह बात भी स्पष्ट है कि येन-केन प्रकारेण उत्पादन बढ़ाने के बीच वित्तीय समर्थन भी पर्याप्त नहीं होगा। इस तरह हमें अब इस बात पर चर्चा करनी होगी कि उत्पादन लागत कैसे कम की जाए और किसानों को उनकी मेहनत का फल मिल जाए। इन परिस्थितियों में पुनर्योजी या प्राकृतिक कृषि बड़ी भूमिका निभाएगी।

मगर इसे बड़े पैमाने पर करना होगा और इसके लिए ठोस नीतियां भी तैयार करनी होंगी। इनके अलावा वृहद कार्य प्रणाली और वैज्ञानिक विधियों की भी जरूरत होगी। स्थानीय स्तर पर काम करने के लिए हमें खाद्य-क्रय नीतियों की भी जरूरत है ताकि किसानों को गुणवत्तापूर्ण फसलों के लिए अच्छी रकम मिल सके। मध्याह्न भोजन के लिए मोटे अनाज खरीदने की ओडिशा सरकार की योजना इसी दिशा में उठाया गया एक कदम है।

सच्चाई यह है कि दुनिया में लोगों का पेट भरने के लिए अनाज की कमी नहीं है मगर समस्या यह है कि इनका काफी हिस्सा मवेशियों को खिलाने में इस्तेमाल होता है या बेकार हो जाता है। हमें इस पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एन्वॉयरनमेंट से संबद्ध हैं)

First Published - March 10, 2024 | 9:59 PM IST

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