डॉनल्ड ट्रंप की दूसरी पारी जलवायु परिवर्तन के लिए क्या मायने रखती है? ट्रंप दुनिया को अब तक सबसे अधिक ग्रीनहाउस गैस देने वाले और हर साल उनके उत्सर्जन में दूसरा सबसे ज्यादा इजाफा करने वाले अमेरिका के राष्ट्रपति बनने जा रहे हैं। सर्वविदित है कि वह जलवायु परिवर्तन को संशय से देखते हैं और जलवायु संकट के इस दौर में भी जीवाश्म ईंधन के इस्तेमाल की पुरजोर वकालत करते हैं। वह कह चुके हैं कि पद संभालने के बाद वह ऊर्जा की कीमतें कम कराएंगे और हरित ऊर्जा योजनाएं बंद कर देंगे। वास्तव में वह चाहते हैं कि अमेरिका की ज्यादा से ज्यादा जमीन पर तेल और प्राकृतिक गैस की खोज की जाए और वहां के कच्चे तेल और पेट्रोलियम उद्योग से नियामकीय नियंत्रण ढीला पड़े।
लेकिन यह कहते समय याद रहे कि जो बाइडन के राष्ट्रपति रहते हुए भी अमेरिका जीवाश्म ईंधन में सबसे आगे रहा है और उसने इतना तेल उत्पादन किया, जितना किसी अन्य देश ने पहले नहीं किया है। वह विश्व का सबसे बड़ा तेल और गैस उत्पादक देश है, जो रूस से 40 प्रतिशत अधिक उत्पादन करता है। इसलिए जब ट्रंप कहते हैं कि वह जीवाश्म ईंधन की तरफ लौटेंगे तो हमें समझना होगा कि हालात कितने खराब हो जाएंगे!
ट्रंप तो बाइडन प्रशासन की नवीकरणीय ऊर्जा और इलेक्ट्रिक वाहन योजनाओं के भी पीछे पड़ गए हैं। उन्हें वह उद्योग और नौकरियां खत्म करने वाली, चीन समर्थक तथा अमेरिका विरोधी बताते हैं। कुल मिलाकर वह दुनिया को आसन्न आपदा के कगार पर खड़ा देखकर हरित ऊर्जा का इस्तेमाल बढ़ाए जाने के विचार को पूरी तरह खारिज कर अतीत में लौटना चाहते हैं।
फिर सवाल उठता है कि जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका में चल रहे काम का क्या होगा? पूरी दुनिया को जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए एक मंच पर लाने वाली अंतरराष्ट्रीय संधियों का भविष्य क्या होगा? यह सवाल जरूरी है क्योंकि ट्रंप की इस बार की जीत कोई तुक्का या इत्तफाक नहीं है। 2016 में जब वह अमेरिका के राष्ट्रपति बने थे तो दुनिया को पता ही नहीं था कि वह किसके साथ रहेंगे और किसके खिलाफ। हममें से ज्यादातर उनकी बातों को गीदड़ भभकी मानते थे। मगर इस बार वह इस यकीन के साथ सत्ता में आए हैं कि अमेरिका की जनता ने जलवायु परिवर्तन को सीधे तौर पर नकारने जैसे उनके विचारों के कारण ही उन्हें चुना है। इसलिए हमें उनके कार्यों से हैरत नहीं होनी चाहिए बल्कि सवाल यह होना चाहिए कि वजूद पर संकट खड़ा करने वाली इस समस्या से निपटने के लिए दुनिया को क्या करना चाहिए।
यह सच है कि खुद तेल और गैस का सबसे अधिक उत्पादन करने वाले अमेरिका के दोगलेपन के बाद भी जलवायु कार्रवाई के खिलाफ काम का संकल्प लेने के मामले में बाइडन पिछले राष्ट्रपतियों से अलग नजर आते हैं। उन्होंने 2030 तक ग्रीनहाउस गैसों को 2005 के स्तर से 50-52 प्रतिशत नीचे लाने और 2035 तक समूची बिजली को कार्बन के प्रदूषण से एकदम मुक्त बनाने का साहसिक लक्ष्य तय किया है।
स्वच्छ प्रौद्योगिकी और हरित ऊर्जा क्षेत्र में निवेश लाने के लिए लाया गया मुद्रास्फीति न्यूनीकरण अधिनियम (आईआरए) बेहद शानदार उपाय था। इस मामले में अमेरिका ने झंडा उठाया था इसलिए दूसरे देश इससे बच नहीं सकते थे। उन्हें ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने के लिए लक्ष्य निर्धारित करने ही पड़े। हालांकि यह काफी नहीं था, बल्कि लक्ष्य के आसपास भी नहीं था। मगर तस्वीर बदल गई थी।
सवाल यह भी उठता है कि क्या ट्रंप अपने देश को जलवायु परिवर्तन पर 2015 के पेरिस समझौते और संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन संधि जैसी वैश्विक संधियों से बाहर कर लेंगे? ज्यादातर लोगों को लगता है कि वह ऐसा ही करेंगे। इससे कार्बन कम करने का दुनिया का इरादा कमजोर पड़ेगा और उस सहकारी समझौते को भी झटका लगेगा, जिसके हिसाब से विकासशील देशों को कार्बन कम करने तथा स्वच्छ ऊर्जा अपनाने के लिए वित्तीय मदद मिलनी है।
तब हमें इसी हकीकत के साथ चलना होगा। लेकिन यह भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यह सब तब हो रहा है, जब जलवायु परिवर्तन के असर बढ़ेंगे और ज्यादा से ज्यादा देशों को बरबाद कर देंगे। लोग और ज्यादा गरीब होते जाएंगे और दुनिया में असुरक्षा बढ़ जाएगी। आज की दुनिया में आव्रजन वह मुद्दा है, जिसके कारण ऐसे मजबूत नेताओं का समर्थन बढ़ रहा है, जो अवैध घुसपैठियों को टिकने नहीं देंगे। जलवायु परिवर्तन का प्रभाव बिगड़ने के साथ हालात और खराब होते जाएंगे। इससे निपटने के लिए हम सब को हरकत में आना होगा। हमें वैश्विक नेतृत्व की जरूरत होगी मगर ऐसे मुखर स्वर भी चाहिए, जो सामने खड़ी आपदा की बात ही न करें बल्कि अलग तरीके से काम करने की संभावनाओं पर भी बोलें। आज हमें उम्मीद भरे ऐसे ही संदेश की जरूरत है।
दुनिया कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था बनने के सफर में आगे बढ़ चुका है और आसानी से पीछे नहीं लौट सकता। बैटरी एवं नवीकरणीय ऊर्जा समेत हरित प्रौद्योगिकियों पर बहुत भारी निवेश किया गया है और इस नई अर्थव्यवस्था में दिलचस्पी बढ़ती जा रही है। स्वच्छ प्रौद्योगिकी में भारी-भरकम निवेश करने वाले चीन के लिए यह बहुत अहम है। मगर हमें पर्यावरण के क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिए अपनाए गए तरीकों को नया रूप देना होगा। हमें जलवायु परिवर्तन से निपटने में होने वाले खर्च को समझना होगा। हमें विकासशील देशों में ही नहीं औद्योगीकरण की राह पर बहुत आगे बढ़ चुके विकसित देशों में भी हरित ऊर्जा अपनाने के समावेशी और किफायती तरीके तलाशने होंगे। ट्रंप के चुनाव से हमें यही समझने की जरूरत है – संदेश एकदम साफ है और इसे नकारने का जोखिम भी हमारा ही है।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरन्मेंट से जुड़ी हैं)