देश में एक बार फिर पांच साल के लिए नई सरकार का गठन हो गया है। मेरी नजर में इस सरकार का एजेंडा वही पुराना है लेकिन इसमें एक बुनियादी अंतर है। यह एजेंडा देश के विकास और जलवायु परिवर्तन (Climate change) के दौर को देखते हुए होना चाहिए।
एक तथ्य यह भी है कि प्राथमिकता वाले कदमों के क्षेत्रों की सूची भी समान है। ऊर्जा से लेकर पानी और सफाई से लेकर खाद्य और पोषण तक लगभग हर क्षेत्र में हमारे काम अधूरे हैं। स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में भी यही स्थिति है। हमें पता है कि पिछली सरकार के पास योजनाएं थीं और उसने इन तमाम मुद्दों के लिए बजट भी आवंटित किया था।
हम यह भी जानते हैं कि जन कल्याण का काम एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। इन चुनावों के दौरान जब संवाददाता मतदाताओं के विचार जानने निकले तो हमें सुनने को मिला कि बेरोजगारी एक अहम चिंता थी।
स्वच्छ पेयजल की कमी और सफाई का अभाव भी एजेंडे में प्रमुख था। ऊर्जा संकट भी एक मुद्दा था क्योंकि घरेलू गैस सिलिंडर की कीमत जेबों पर भारी पड़ रही थी और बिजली की उपलब्धता के बारे में ठीक-ठीक कुछ नहीं कहा जा सकता था। किसान अभी भी संकट में हैं। यानी अभी काफी काम करना बाकी है और यह उन क्षेत्रों में है जिनके बारे में पिछली सरकार ने कहा कि वह इन पर काम कर रही है। इसमें चकित होने वाली कोई बात नहीं।
भारत एक बहुत बड़ा देश है और यहां शासन के मोर्चे पर तमाम कमियां हैं। किसी भी सरकारी योजना का अंतिम लक्ष्य यही है कि वह हर बार लोगों तक पहुंचे। अब जलवायु परिवर्तन का असर भी इसमें जुड़ गया है क्योंकि लगभग रोज देश का कोई न कोई हिस्सा मौसम की अतिरंजित घटना से दो-चार होता है। इसका विकास कार्यक्रमों पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।
बेमौसम बारिश और मौसम की अन्य अतिरंजित घटनाओं के कारण बाढ़, सूखा, आजीविका का नुकसान हुआ है और सरकारी संसाधनों पर अतिरिक्त दबाव जैसे असर हुए हैं। यही वजह है कि भविष्य के एजेंडे में इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि विकास का संबंध पैमाने, गति और परिकल्पना से है। हमें विकास संबंधी योजनाओं के डिजाइन में और अधिक कल्पनाशीलता दिखाने की आवश्यकता है।
लंबे समय तक सरकारें कल्याणकारी रुख तथा पूंजीवादी न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप के रुख के बीच उलझी रहीं। मेरी दृष्टि में जलवायु जोखिम के इस दौर में नए कथानक की आवश्यकता है। सरकार को विकास को लेकर नए सिरे से काम करने की जरूरत है ताकि वह समावेशी हो, सबके लिए लाभदायक और टिकाऊ हो। यानी हमें हर चीज को देखने को लेकर अपनी कल्पनाशीलता में बदलाव करना होगा।
इसमें स्वच्छ जल की आपूर्ति से लेकर ऊर्जा तक शामिल है जिसका स्वच्छ लेकिन कम लागत वाला होना भी जरूरी है। इसके लिए डिजाइन और आपूर्ति में बदलाव लाना होगा। हमें धरती के लिए नई तरह का विकास प्रतिमान चाहिए जो सबके लिए कारगर हो।
ध्यान देने वाली बात है कि अधिकांश मामलों में सरकार के पास योजनाएं और बजट है। हमें यह सीखने की जरूरत है कि क्या कारगर है और क्या नहीं। हमें ऐसे कदमों की जरूरत है जो बड़े बदलाव लाएं। इसके लिए क्रियान्वयन करना होगा और जैसा कि मैंने कहा इस दिशा में पूरे जुनून के साथ काम करना होगा।
यह सब तभी संभव होगा जब हम अगली पीढ़ी के दो सुधारों को अंजाम देना होगा। मेरी नजर में यह सरकार के लिए सबसे अहम एजेंडा होना चाहिए। पहला, हमें जमीनी संस्थानों को मजबूती देनी होगी जहां स्थानीय लोग हिस्सेदार हों। हमें भागीदारी वाले लोकतंत्र की आवश्यकता है ताकि विकास कार्यक्रम सफल हो सकें।
जन संस्थानों मसलन ग्रामीण इलाकों में पंचायती राज और शहरी इलाकों में नगर निकायों को मजबूत बनाने के लिए पारित 73वें और 74वें संविधान संशोधन को 30 वर्ष बीत चुके हैं। हमने ग्राम सभाओं को मजबूत करके लोकतंत्र की पहुंच बढ़ाने के प्रयोग भी किए। परंतु यह सब अधूरा रह गया। हमें ग्रामीण और सरकारों को प्राकृतिक संसाधनों का नियंत्रण दिलाने के लिए अहम प्रयास करने होंगे। जरूरत यह है कि वे फंड का प्रबंधन करें, पर्यावरण के अनुकूल रोजगार तैयार करें और आजीविका के लिए प्राकृतिक संसाधनों में निवेश करें।
हमें एक नए भारत के लिए संचालन संस्थानों को भी मजबूत करने की आवश्यकता है। बीते कुछ वर्षों के दौरान अधिकांश पारंपरिक संस्थानों का क्षरण हुआ है। परंतु तथ्य यह है कि शासन और नियमन के लिए संस्थानों की आवश्यकता है जो जवाबदेही तय कर सकें और जो असहज करने वाले तथा कठिन निर्णयों से गुजर सकें।
दूसरा, आज की तुलना में आने वाले समय में शासन को फीडबैक और जवाबदेही की अधिक आवश्यकता होगी। इसके लिए विभिन्न स्वरों के प्रति सहिष्णु होना होगा। यह समझना आवश्यक है कि वैकल्पिक सूचनाएं असहमति या आलोचना नहीं होतीं। हम जितना अधिक यह जानेंगे कि क्या कारगर है और क्या नहीं, शासन में उतना ही सुधार होगा। फिलहाल अधिकांश असहमत आवाज खामोश हैं।
एक इको चैंबर जैसा माहौल है जहां केवल खुशामद करने वाले पनप रहे हैं। मेरी नजर में इससे सरकार कमजोर ही होती है। उसे कुछ सीखने को नहीं मिलता है और वह बहुत कम सीखती है। विश्वास बहाल करना सबसे महत्त्वपूर्ण है।
यह न केवल योजनाओं की कामयाबी के लिए जरूरी है बल्कि समाज के विकास के लिए भी यह जरूरी है। यही एजेंडा होना चाहिए। यह वक्त बदलाव का है। हमें समाज को पर्यावरण के अनुकूल बनाना चाहिए क्योंकि यह समावेशी है और विकास को बढ़ावा देना चाहिए क्योंकि यह टिकाऊ है।
(लेखिका सेंटर फॉर साइंस ऐंड एनवायरनमेंट से संबद्ध हैं)